संवत् १८८२ में मार्गशीष शुक्ल दशमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के मन्दिर में विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'प्रश्नोत्तर करिये ।' तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'भगवान के भक्ति मार्ग में प्रवृत्त भक्त के लिए एक ऐसा साधन कौन सा है जिसके उपयोग से कल्याण के लिए प्रतिपादित कौन सा साधन है जोउसी एक साधन में आजाय ?''
श्रीजी महाराज बोले कि - 'तीस लक्षणों से युक्त सन्त का संग मन, कर्म तथा वचन द्वारा करने से एक ही साधन में कल्याण के सभी साधन आ जाते हैं ।'
इस प्रकार से उत्तर देकर श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान का एकान्तिक भक्त ऐसा जो योगी हो वह जानता है कि सांख्यशास्त्र योगशास्त्र इन दोनों का मत वासुदेव नारायण पर आधारित है । अतः वह योगी भगवान के स्वरुप में किस प्रकार से वृत्ति रखे ? वह अपने मन को कैसे नियन्त्रित करे और मन के साथ मूर्ति को कैसे रखे ? किस तरह से वह अन्तःकरण और बाह्य रुप से वृत्ति रखे ? निद्रारुपी लय एवं संकल्प-विकल्प रुपी विक्षेप से किस कला योग द्वारा अलग रखा जाय ? इसका उत्तर करें ?'
मुक्तानन्द स्वामी और गोपालानन्द स्वामी को जैसा आया वैसा कहा, लेकिन किसी से यथार्थ उत्तर न हो सका तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जैसे जल के फुहारे के योग से भंवर पडने से पानी उपर की ओर उछलता है वैसे ही अन्तःकरणरुपी फुहोर में जीव की वृत्ति रहती है । वह वैचारिक भंवर पडने से पांच इन्द्रियों द्वारा उछलती है । जो योगी होते हैं वे एक वृत्ति द्वारा उसे अपने हृदय में साक्षीरुप रहे श्री वासुदेव भगवान का चिन्तन करते हैं और दूसरी वृत्ति की दृष्टि द्वारा बाहर रखें । उस वृत्ति द्वारा उसे बाह्य रुप से भगवान का चिन्तन नख से शिखा पर्यन्त समग्र मूर्ति के साथ करना चाहिये । परन्तु एक-एक अंग का अलग-अलग चिन्तन नहीं करना चाहिए । जैसे कोई बडा मंदिर हो उसेएक ही साथ समग्र दृष्टि से देखा जाय तथा किसी विशाल पर्वत को एक साथ सम्पूर्ण देखता है किन्तु प्रत्येक अंग को अलग अलग नहीं देखता । जब वह उस मूर्ति को अपने दृष्टि के आगे कुछ दूरी पर धारण करते हैं तब उस मूर्ति के बगल में कोई अन्य पदार्थ दिखने लगे तब धारण की हुई उस मूर्ति को निकट लाकर अपनी नासिका के अग्रभाग में उस मूर्ति को रखना चाहिए ऐसा करते हुए भी यदि आसपास कुछ पदार्थ दिखे तब अपनी भ्रकुटि के मध्य भाग में मूर्ति को धारण करना चाहिए । ऐसा करनेपर भी यदि आलस्य या निद्रा दिखायी दे तो फिर मूर्ति को दृष्टि के आगे दूर धारण करना चाहिए । जैसे लडके पतंग उडाते हैं वैसे ही मूर्तिरुपी पतंग को अपनी वृत्ति रुपी डोरी से ऊंचा चडाना चाहिए और फिर नीचे लाकर अलग-बगल में डुलाना चाहिए । इस तरह से योगकला द्वारा जब वह सचेत हो जाय तब मूर्ति को नासिका के अग्रभाग में धारण करके वहां से भुकुटि में लाकर मूर्ति को हृदय में उतारना चाहिए । अन्तःकरण में साक्षीरुप रही मूर्ति और बाहर रहीमूर्ति का एकीकरण हो जाता है । ऐसा करते हुएयदि आलस्य या निद्रा जैसा प्रतीत हो तो पुनः दोनों प्रकार की वृत्तियों द्वारा मूर्ति को बाहर ले जाना चाहिए । इस तरह से जो श्रोत्र, त्वक, रसना तथा घ्राण इन्द्रियों द्वारा भी योगकला को सिद्ध करना चाहिए । वैसे ही मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार द्वारा भी भगवान की मूर्ति को धारण करना चाहिए और इन्द्रियों तथा अन्तःकरण आदि सबको सांख्य विचार द्वारा अलग करके अगेले चैतन्य में ही भगवान की मूर्ति को धारण करना चाहिए । उन भगवान की मूर्ति को अन्तःकरण में या बाहर धारण करते समय यदि कोई व्यवहार सम्बन्धी विक्षेप आये तो उस विक्षेप का भी मूर्ति धारण करते ही समाधान करना चाहिए । परन्तु विक्षेप की स्थिति में भी अपनी योगकला का त्याग नहीं करना चाहिए । इस तरह से योगी योगकला युक्त होकर आचरण करता है ।'
इति वचनामृतम् ।।४।। ।। २०४ ।।