वचनामृतम् १९

संवत् १८८२ में माघ शुक्ल द्वितीया के दिन श्रीजी महाराज सायंकाल के समय श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर में पूर्व की तरफ रूप चौकी पर गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे और उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
जब ठाकुरजी की सन्ध्या आरती हो गयी, तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'सुनिये, भगवान की वार्ता करते हैं कि इस जीव को जब भरतखंड में मनुष्यदेह की प्राप्ति होती है तब भगवान के अवतार या भगवान के साधु जो प्रकट होकर निश्चित रूप से पृथ्वी ऊपर विचरण करते हैं, तो यदि जीव की उनके साथ पहचान हो जाती है, जब वह भगवान का भक्त हो जाता है तब उसे भगवान के बिना अन्य किसी पदार्थ में प्रीति रखना अच्छा नहीं लगता । क्योंकि भगवान के धाम का जो सुख है उसके आगे मायिक पंचविषयों का सुख नर्क तुल्य होता है । जो नर्क के कीडे हैं वे तो नर्क को परम सुखदायी मानते हैं परन्तु जो मनुष्य हैं वे तो उस नर्क को परम दुःखदायी जानते हैं, उसी तरह से जिसे भगवान की पहचान हो जाती है वह तो भगवान का पार्षद हो जाता है अतः उसे भगवान के पार्षद से हटकर विष्टा के कीडे की तरह से मायिक पंचविषयों के सुख की इच्छा नहीं करनी चाहिये । जो भगवान के भक्त होते हैं, वह जिस जिस मनोरथ की इच्छा करते हैं वे सभी सत्य होते हैं । अतः भगवान के बिना अन्य पदार्थ की अज्ञानता वश इच्छा करता है, वह उसका बडा अविवेक होता है । अतः भगवान के भक्तों को तो चौदह लोकों के सुख को काकविष्ठा के तुल्य समझना चाहिये, मन, वचन कर्म से उसे भगवान के भक्तों में ही दृढ प्रीति करनी चाहिये । यह समझना चाहिये कि - 'भगवान के भक्त को कदाचित भगवान के सिवा अन्य कोई वासना रह गयी हो तो भी वह इन्द्र पदवी या ब्रह्मलोक को प्राप्त करेगा । परन्तु प्राकृत जीव की तरह से उसको नर्क चौरासी में तो नहीं जाना पडेगा । तब भगवान के यथार्थ भक्त की महिमा तथा उसके सुख का वर्णन ही कैसे किया जा सकता है ।' अतः भगवान के भक्त को तो भगवान में ही दृढ प्रीति रखनी चाहिये ।'

इति वचनामृतम् ।। १९ ।। ।। २१९।।