संवत् १८८२ में माघ शुक्ल प्रतिपदा के दिन श्रीजी महाराज श्री वरताल में सन्ध्याकालीन आरती के पश्चात श्री लक्ष्मीनारायण मंडप मे गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे और उनके चारों तरफ मंडप के ऊपर नीचे समस्त परमहंसो तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'आप सब बडे बडे परमहंसो से हम प्रश्न पूछते हैं कि - 'सत्संगी हों उसे कौन कौन सी वार्ता अवश्य जाननी चाहिये । क्योंकि यदि उससे कोई पूछे अथवा अपने मन में कोई तर्क आये तब तो उस वार्ता के न जानने पर उसका समाधान कैसे हो सकेगा ?'
इस प्रकार से प्रश्न पूछकर स्वयं बोले कि इस प्रश्न का उत्तर हम ही देते हैं कि - 'पहली बात तो यह है कि अपना उद्धव सम्प्रदाय है उसकी रीति जान लेनी चाहिये । दूसरी बात यह है कि गुरु परम्परा का ज्ञान भी होना चाहिये । उद्धवजी स्वयं रामानन्द स्वामी रूप थे । श्री रंगक्षेत्र मे उन रामानन्द स्वामी के गुरु रामानुजाचार्य हैं । उन रामानन्द स्वामी के हम शिष्य हैं इस तरह से गुरु परम्परा जाननी चाहिये । हमने अपने धर्म कुल की स्थापना की है । उसकी रीति जाननी चाहिये । तीसरी बात यह है कि हमारे सम्प्रदाय में अति प्रमाण रूप जो शास्त्र हैं उन्हें जानना चाहिये । उन शास्त्रों के नाम है (१) वेद (२) व्याससूत्र (३) श्रीमद् भागवत पुराण (४) महाभारत का विष्णु सहस्त्रनाम, (५) भगवत गीता (६) विदूरनीति () स्कन्धपुराण का विष्णु खंड का वासुदेव महात्म्य तथा (८) याज्ञावल्क्य स्मृति इन आठों शास्त्रों को जानना चाहिये । चौथी बात समस्त संत्सगियों के लिये जो नियम हैं उन्हें जानना चाहिये ।
पांचवीं बात अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण भगवान को जानना चाहिये । स्थान, सेवक तथा कार्यभेद से श्रीकृष्ण की मूर्ति की जो विविधता है उसको भी जानना चाहिये । श्रीकृष्ण भगवान के परोक्ष रूप तथा प्रत्यक्ष रूप को भी जानना चाहिये । उसमें परोक्ष रूप किस प्रकार का है वह जैसे माया के तम से परे जो गोलोक हैं उसके मध्यभाग में स्थित अक्षरधाम में श्रीकृष्ण भगवान रहे हैं वे, द्विभुज हैं और कोटि कोटि सूर्य के समान प्रकाशमान हैं, श्यामसुन्दर हैं राधिकाजी और लक्ष्मीजी के सहित हैं, नन्द सुनन्द तथा श्रीकामादि पार्षदों ने उनकी सेवा की है । वे भगवान अनन्त कोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं और महाराजाधिराज भाव से विराजमान हैं । ऐसे जो भगवान चतुर्भुज रूप, अष्टभुज रूप और सहस्त्र भुजरूप को धारण करते हैं, वे वासुदेव संकर्षण, अनिरूद्ध एवं प्रद्युम्न नामक चतुर्व्यूहों तथा केशवादि चौबीस व्यूहों के रूपों और वाराह, नृसिंह, वामन, कपिल हयग्रीव आदि अनेक अवतारों को धारण करते हैं । वे स्वयं सदैव द्विभुज रहते हैं । उपनिषद, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र तथा पंच रात्र में उनके इसी स्वरूप का वर्णन किया गया है । इस तरह से परोक्षरूप से भगवान के स्वरूप का वर्णन किया गया हो, जो सभी आचार्य हुये हैं उनमें व्यासजी सबसे बडे आचार्य हैं । व्यासजी जैसे शंकराचार्य, रामाणुजाचार्य, मध्याचार्य, निर्म्बाक, विष्णु स्वामी, वल्लभाचार्य को नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये आचार्य जब व्यासजी के वचनों का अनुसरण करते हैं तभी लोक में उन आचार्यो के वचनों का प्रमाण मान्य होता है वर्ना नहीं होता । व्यासजी को तो किसी अन्य के वचनों की अपेक्षा नहीं रहती क्योंकि व्यासजी तो वेदों के आचार्य हैं तथा स्वयं भगवान हैं अतः हमें तो व्यासजी केवचनों का अनुसरण करना चाहिये । उन व्यासजी ने जीवों के कल्याण के लिये वेदों का विभाग किया है । उन्होंने सहस्त्र पुराणों तथा महाभारत की रचना की, फिर भी व्यासजी के मन में ऐसा हुआ कि - 'जीवों के कल्याण का जैसा उपाय है वह यर्थाथ नहीं है ।' इससे उनके मन में सन्तोष नहीं हुआ । तब बाद में उन्होंने समग्र वेद, पुराण, इतिहास, पंच रात्र, योगाशास्त्र, सांख्यशास्त्र तथा उनके सार रूप श्रीमद भागवत पुराण की रचना व्यासजीने की भागवत में समस्त अवतारों की अपेक्षा श्रीकृष्ण भगवान का अधिक वर्णन है क्योंकि समस्त अवतारों को धारण करनेवाले स्वयं श्रीकृष्ण भगवान ही हैं । उन श्रीकृष्ण भगवानने उद्धव के प्रति गुण विभाग के अध्याय में कहा है कि - 'मैं निर्गुण हूँ और मेरे सम्बन्ध को जो प्राप्त कर लेता है वह भी निर्गुण हो जाता है ।' अतः कामभाव, द्वेषभाव, सम्बन्धभाव तथा स्नेहभाव में से जिस-जिस भाव द्वारा जिन जीवों ने श्रीकृष्ण भगवान का आश्रय किया वे निर्गुण हो गये । अतः वे श्रीकृष्ण भगवान निर्गुण हैं । इस प्रकार से व्यासजी ने श्रीकृष्ण भगवान का वर्णन किया है । व्यासजीने यह सिद्धान्त किया है कि - 'समस्त अवतारों को धारण करनेवाले जो परमेश्वर हैं वे ही स्वयं श्रीकृष्ण भगवान हैं जो अन्य अवतार हैं वे उन्हीं के हैं ।' यदि श्रीकृष्ण भगवान को निर्गुण न कहकर शुद्धसत्वात्मक कहेंगे तो कहा जायगा कि उसे भगवान के पूर्वा पर सम्बन्ध की खबर नहीं है और काम भाव से उन्होंने श्रीकृष्ण भगवान का भजन किया । उसके द्वारा वे गोपियों निर्गुण हो गयीं तब उन श्रीकृष्ण भगवान को शुद्ध सत्वात्मक कैसे कहा जा सकता है ? अतः श्रीकृष्ण भगवान तो निर्गुण ही हैं । श्रीकृष्ण भगवान ने स्वयं अर्जुन से कहा है कि -
''जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यकत्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सो।र्जुन ।।''
उन श्रीकृष्ण भगवानने अपने जन्म के समय वासुदेव देवकी को परमेश्वर भाव की प्रतीति कराने के लिये चर्तुभुज रूप दिखाया तथा ब्रह्मा को अनेक चर्तुभुज रूप दिखाया, अक्रूर को शेषशापी रूप दिखाया । इन रूपों के भेद से श्रीकृष्ण भगवान की उपासना का जो भेद कहा गया है वह तो उचित है फिर भी वे श्रीकृष्ण व्रज में बाल मुकुन्द, मुरली मनोहर तथा राधाकृष्ण कहे गये । उन्होंने बछडा चराया, गायें चरायीं, गोवर्धन पर्वत को धारण किया, गोपियों के साथ रासक्रीडा की, मथुरापुरी मे आकर कंस को मारा और यादवो को सुखी किया । सान्पीपनी ब्राह्मण के घर विद्या पढी, कुब्जा के साथ विहार किया, द्वारिका पुरी में निवास किया, रूकिमणी आदि अष्ट पटरानियों से विवाह किया, सोलह हजार स्त्रियों से विवाह किया और हस्तिनापुर में निवास किया । पांडवो की समस्त कष्टों रक्षा की द्रौपदी की लाज रखी और वे अर्जुन के सारथी बने इत्यादि स्थान भेद से भगवान की अनेक लीलायें हैं । इसलिये श्रीकृष्ण भगवान के द्विभुज स्वरूप में उपासना का भेद नहीं करना चाहिये । यदि ऐसा कोई भेद करेगा तो वह वचनद्रोही और गुरुद्रोही है ।
श्रीकृष्ण भगवान ने ग्वालों का उच्छिष्ट खाकर रास क्रीडा आदि करके जो अनेक प्रकार के आचरण किये हैं उस आचरण के अनुसार श्रीकृष्ण भगवान के भक्तों को आचरण नहीं करना चाहिये श्रीकृष्ण भगवान ने श्रीमद् भागवत के एकादश स्कन्ध, भगवद् गीता तथा वासुदेव माहात्म्य में साधु के जैसे लक्षण कहे हैं, जैसा वर्णाश्रम धर्म बताया है तथा अपनी भक्ति करने का कहा है उस तरह से आचरण करना चाहिये । श्रीकृष्ण भगवान के आचरण के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिये वैसे ही आप सबके आचार्य गुरु तथा उपदेष्टा रूप जो मैं हूँ वैसे मेरे दैहिक आचरण के अनुसार भी आप लोगों को आचरण नहीं करना चाहिये । हमारे सम्प्रदाय में जिस प्रकार से जिसके धर्म बताये गये हैं उनका हमारे वचनों के अनुसार आप सबको रहना चाहिये परन्तु हमारे आचरण के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिये । हमने यह जो वार्ता कही है तो समस्त परमहंसो तथा सत्संगियों को सीख लेना चाहिये तथा उसी के अनुसार समझकर आचरण करना चाहिये और दूसरों के साथ भी ऐसी ही वार्ता करनी चाहिये ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज भोजन करने पधारे । इस प्रकार की वार्ता सुनकर सभी साधु तथा सत्संगी जन ऐसा समझे कि - 'परोक्षरूप में जिन्हें श्रीकृष्ण भगवान कहा गया है वे ही ये भक्ति धर्म के पुत्र श्रीजी महाराज हैं । परन्तु उनसे परे कोई नहीं है और वे ही हमारे इष्टदेव और गुरु भी हैं ।'
इति वचनामृतम् ।। १८ ।। ।। २१८।।