संवत् १८८२ में माघ शुक्ल तृतीया के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के दरबार में नीम वृक्ष के नीचे वेदी पर गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । कंठ में चमेली के पुष्पों का हार पहना था तथा मस्तक पर लाल अतलस का छत्र लगा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराजने परमहंसो से प्रश्न पूछा कि - 'रजोगुण में से काम की उत्पत्ति होती है और तमोगुण में से क्रोध और लोभ उत्पन्न होता है, अतः कामादि का बीज न रहे ऐसा कौन सा एक साधन है ?'
शुकमुनि ने कहा कि - 'जब निर्विकल्प समाधि होती है और आत्मदर्शन हो जाता है, तब उसके हृदय में से कामादि का बीज जल जाता है ।' तब श्रीजी महाराजने आशंका की कि - 'क्या शिव, ब्रह्मा, शृंगि ऋषि, पराशर, नारद को निर्विकल्प समाधि नहीं थी ? जो काम से उनलोगों को विक्षेप हुआ । वे सब निर्विकल्प समाधिवाले ही थे तब भी इन्द्रियों की वृत्ति के अनुलोभ होने, से उन्हें कामादि द्वारा विक्षेप हुआ । अतः आपने जैसा कहा वैसा उस प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ । जैसे ज्ञानी निर्विकल्प समाधि की ओर जाता है तब निर्विकार रहता है वैसे ही अज्ञानी सुषुप्ति अवस्था में निर्विकार रहता है । जब इन्द्रियों की वृत्ति अनुलोम हो जाती है तब ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही कामादि द्वारा विक्षेप को प्राप्त करते हैं । उसमें ज्ञानी अज्ञानी का कोई विशेष फर्क नहीं होता । अतः अन्य परमहंस इसका अब उत्तर करें ।'
तब गोपालानन्द स्वामी, देवानन्द स्वामी, नित्यानन्द स्वामी तथा मुक्तानन्द स्वामी ने मिलकर जिसको जैसा लगा उसने वैसा उत्तर किया परन्तु श्रीजी महाराज के प्रश्न का समाधान किसी से न हो सका ?
तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'जैसे जनक विदेही थे । वे प्रवृत्तिमार्ग में थे तब भी निर्विकार थे । एकबार जब जनक की सभा में सुलभा नाम की सन्यासिनी आयी तब जनक राजा सुलभा से बोले कि - 'तू मेरे चित को मोहित करने का प्रयास कर रही है परन्तु मेरे गुरु पंच शिख ऋषि की कृपा से मैं सांख्य और योग के मतों का अनुसरण करता हूँ, भले ही मेरे आधे शरीर को चन्दन चरचे या आधे शरीर को तलवार से काट दिया जाय तब भी मेरे लिये दोनों एक समान हैं भले ही यह मेरी मिथिलापुरी जल जाय तब भी मेरा कुछ भी नहीं जलेगा । इस तरह से मैं प्रवृत्ति में रहते हुये भी असंगी और निर्विकारी हूँ ।' इस तरह से राजा जनक ने सुलभा को कहा । राजा जनक शुकदेवजी के भी गुरु कहलाये । अतः इस प्रश्न का उत्तर यह है कि - 'जो इन्द्रियां अनुलोम भाव से रही हों और वह प्रवृत्ति मार्ग में रहा हो तो भी यदि उसके हृदय में राजा जनक के समान ज्ञान की दृढता हो जाय तो वह किसी भी प्रकार से विकार को नहीं प्राप्त होता ।' जिसको जैसा जानना चाहिये वैसा यथार्थ जान लिया हो तो यही सार है और यही असार है । भगवान की मूर्ति के सिवा जितने मायिक आकार है । वे सब अतिशय दुःखदायी हैं और नाशवन्त हैं ऐसा जानना चाहिये । स्वयं को देह, इन्द्रियों और अन्तःकरण से अलग आत्मारूप जाने तो ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो उसको मोहित करने में समर्थ हो सके । क्योंकि वह तो समस्त मायिक आकार को तुच्छ समझता है । इस तरह से जिसके अन्दर समझदारी बनी रहती है और उसकी इन्द्रियॉं प्रवृत्तिमार्ग में अनुलोम भाव से रहती हों तब भी वह कामादि द्वारा क्षोम को नहीं प्राप्त होता । ऐसे जो हरिभक्त हों वे त्यागी हों अथवा गृहस्थ हों परन्तु उनके हृदय में कामादि का बीज नष्ट हो जाता है । ऐसा जो होता है वही समस्त हरिभक्तों में श्रेष्ठ वैष्णव माना जाता है । अतः गृहस्थ और त्यागी का कोई मेल नहीं है । जिसकी समझ ज्यादा होती है वही बडा हरिभक्त होता है । शिव, ब्रह्मादि में जो दोष बताया जाता है, उसके समबन्ध में यही कहना चाहिये कि कितने लोगों में इस प्रकार के ज्ञान की कमी होती है । जबकि कितने लोगों में ऐसा ज्ञानी होने पर भी अशुभ देश, काल, संग, क्रियादि के योग से उन पर कामादि विकार रूपी दोष आ जाते हैं । अतः ऐसी समझदारी होने पर भी किसी भी प्रकार से कुसंग तो नहीं करना चाहिये । यह सिद्धान्त वार्ता है ।'
इति वचनामृतम् ।। २० ।। ।। २२०।।
।। श्री वरताल वचनामृतम् समाप्तम् ।।