वचनामृतम् १७

संवत् १८८२ में पौष कृष्ण अमावस्या के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर के सामनेवाली हवेली में गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के आग समस्त साधुओं तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
श्रीजी महाराजने प्रश्न पूछा कि - 'पंच ज्ञानेन्द्रियॉं तथा पंच कर्मेन्द्रियॉं हैं वे अपने विषयों को यर्थाथ रूप से जानती हैं । अतः ज्ञानी और अज्ञानी इन्द्रियों के साथ एक समान व्यवहार करते हैं परन्तु ज्ञानी की इन्द्रियां ज्ञानी की अपेक्षा पृथक रूप से आचरण नहीं करतीं तब ज्ञानी को किस तरह से जितेन्द्रिय कहा गया है । उसे कैसे जानना चाहिये ?' यह प्रश्न है ।
          
मुक्तानन्द स्वामीने कहा कि - 'निर्विकल्प समाधि होने पर जितेन्द्रिय हो सकता है ऐसा प्रतीत होता है श्रीजी महाराज बोले कि निर्विकल्प समाधिवाले के लिये भी पंचविषय सबके लिये इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य होते हैं । अतः जितेन्द्रिय कैसे है? मुक्तानन्द स्वामीने इसका कई प्रकार से उत्तर दिया लेकिन प्रश्न का समाधान नहीं हुआ । तब श्रीजी महाराजने कहा कि इसका उत्तर तो इस प्रकार से है कि - 'शब्दादि पंचविषयों में जो दोष रहे हैं उन्हें जानना चाहिये और भगवान की मूर्ति में जो कल्याणकारी गुण हैं, उन्हें भी जानना चाहिये और मायिक पंच विषयों को भोगने से जीव को नरककुंड की प्राप्ति होती है तथा महा दुःख भोगने पडते हैं उन्हें भी जानना चाहिये । ऐसा जब जान लेते हैं, तब उन्हें पंच विषयों से अभाव आता है और उनमें वैर बुद्धि होती है । अतः जिनके साथ जिसे वैर बुद्धि हो जाती है उसके साथ उसकी प्रीति कभी नहीं होती । ऐसा समझकर जिसका मन पंच विषयों से हट जाता है, उसे जितेन्द्रिय पुरुष कहते हैं । इसके बाद भगवान की श्रवण कीर्तनादि भक्ति द्वारा अपने जीवन को व्यतीत कर देना चाहिये, परन्तु विमुख जीव की तरह से पंच विषयों में आसक्त नहीं होना चाहिये ऐसा जो हो उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है ।'
          
श्रीजी महाराजने दूसरा प्रश्न पूछा कि - 'एक त्यागी सन्त है जो केवल निवृत्ति मार्ग वाला है और वह ऐसा जानता है कि हम आत्मा हैं । परन्तु देह को अपना रूप नहीं मानता उसकी दैहिक रीति तो जड और उन्मत्त जैसी होती है । उस पुरुष को जाति, वर्ण, आश्रम का अभिमान नहीं होता । उसका खाना-पीना और उठना-बैठना सब उन्मत्त जैसा होता है किन्तु संसार में ऐसा नहीं दिखता । ऐसे त्यागी को किसी का संग भी नहीं रहता वह तो वन के मृग के समान अकेला उन्मत्त होकर धूमता रहता है उसे किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता । दूसरा त्यागी संत निवृत्ति वाला है तब भी प्रवृत्ति मार्ग में लगा रहता है । जिस प्रवृत्ति के योग से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा तृष्णा आदि दोष हृदय में बने रहते हैं वैसी क्रिया में वह प्रवृत्त रहता है । तब उसके अन्तर में किसी प्रकार का विकार भी उत्पन्न हो जाता है । अतः उस त्यागी को प्रवृत्ति मार्ग में रहना चाहिये या नही ? वह प्रवृत्ति मार्ग में रहते हुये किस तरह से निर्विकार रह सकता है ? आप कहेंगे कि - यदि परमेश्वर की आज्ञा से वह प्रवृत्ति मार्ग में रहता है तो बन्धन नहीं होता ।' इस पर यह आशंका होती है कि - 'परमेश्वर की आज्ञा से यदि वह भांग पी ले तो क्या वह पागल नहीं होगा ? जरूर पागल होगा ।' अतः वह त्यागी किस तरह से प्रवृत्ति मार्ग में रहगा तो उसको बन्धन नहीं होगा ? यह प्रश्न है ।'
          
तत्पश्चात नित्यानन्द स्वामी और शुकमुनि इस प्रश्न का समाधान करने लगे लेकिन यर्थाथ उत्तर नहीं हुआ । तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो केवल निवृत्ति मार्ग वाले त्यागी हैं वे उन्मत्त के समान आचरण करते हैं उन्हें तो केवल आत्मनिष्ठा वाला जानना चाहिये । जो निवृत्ति धर्म वाले त्यागी भगवान की भक्ति युक्त हैं, उन्हें तो परमेश्वर के कहे हुये नियमों का पालन करते हुये भगवान तथा भगवान के भक्त सम्बन्धी प्रवृत्ति मार्ग में सावधान होकर लगे रहना चाहिये । भगवान तथा भगवान के भक्त से सम्बधित प्रवृत्ति मार्ग में जुटने का नाम ही भक्ति हैं । ऐसा जो प्रवृत्तिवाला त्यागी है उसके बराबर निवृत्तिमार्गवाला जो केवल आत्मनिष्ठा वाला त्यागी नहीं हो सकता । अतः यह जो त्यागी हैं वे निवृत्ति वाले हैं फिर भी भगवान तथा भगवान के भक्त की सेवा में लगे रहते हैं । भगवान के जो त्यागी भक्त हैं उन्हें तो परमेश्वर के नियम में रहकर प्रवृत्ति मार्ग में रहना चाहिये । किन्तु परमेश्वर के नियमों का पालन करने में अधिकता भी नहीं करना चाहिये और न्यूनता भी नहीं करना चाहिये । काम, क्रोध, लोभ, मोह, आशा, तृष्णा एवं स्वाद आदि विकारों का परित्याग करके भगवान तथा भगवान के भक्तों की सेवा में प्रवृत्त रहें तो उन्हें किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं रहता । जो केवल आत्मनिष्ठा वाले त्यागी हैं, उनसे ये त्यागी अतिशय श्रेष्ठ होते हैं और भगवान की कृपा के पात्र भी हैं।'

इति वचनामृतम् ।। १७ ।। ।। २१७।।