संवत् १८८२ में पौष कृष्ण त्रयोदशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के दरबार में नीम वृक्ष के नीचे मंच पर गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे और उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनिमंडल तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
उस सभा में बडौदा के शास्त्री बैठे थे । उन्होंने ऐसा कहा कि - 'हे महाराज ! यदि आप किसी बडे आदमी को चमत्कार दिखायें तो बहुत उपयोगी होगा ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'बडे आदमियों से हमारी बिल्कुल नहीं पटती, क्योंकि उनमें राज्य और धन का मद होता है और हमें तो त्याग और भक्ति का मद है । अतः कोई किसी को नमे ऐसा कम नहीं है । किसी बडे आदमी को समाधि लगवायेंगे तो वह हमें गॉंव की जमीदारी देगा ऐसी हमारे हृदय में लालच नहीं है । गॉंव की जागीरी तो सुख की इच्छा के लिये होती है हमें तो नेत्र बन्द करके भगवान की मूर्ति का चिन्तन करने में जो सुख है, वैसा तो चौदह लोक के राज्य में भी नहीं है । यदि भगवान के भजन जैसा राज्य में सुख हो तो स्वायंभुव मनु आदि बडे-बडे राजा अपने राज्य का त्याग करके वन में तप करने के लिये क्यों जाते ? यदि भगवान के भजन से प्राप्त सुख स्त्रियों से मिलता होता तो चित्रकेतु राजा करोडो स्त्रियों को क्यों छोडते ? भगवान के भजन के सुख के आगे चौदह लोक का जो सुख है वह नर्क के समान कहा गया है । अतः जो भगवान के भजन से सुखी हुआ है उसे तो ब्रह्मांड में विषय सुख नर्क तुल्य दिखता है । मुझे भी भगवान के भजन से प्राप्त होनेवाला सुख ही सुख प्रतीत होता है अन्य सभी दुःख रूप लगते हैं । अतः परमेश्वर का भजन-स्मरण करते हुये जिसे सहज भाव से सत्संग हो जाता है, उसके लिये हे हम ऐसा करते हैं परन्तु अन्तःकरण में किसी प्रकार का आग्रह नहीं रहता । आग्रह तो केवल भगवान भजन का और भगवान के भक्त का सत्संग करने का होता है । यह हमारे अन्तःकरण के रहस्य का अभिप्रया है जिसे आपके सामने कहा ।'
इति वचनामृतम् ।। १६ ।। ।। २१६।।