संवत् १८८२ में पौष कृष्ण एकादशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर के आगे नीम वृक्ष के नीचे मंच पर गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने किनखाब का पाजामा पहना था और बगलबंडी पहनी थी । मस्तक पर बडा सुनहरा पल्लेदार भारी कुसुम्भी शेला बांधा था । बडे-बडे सुनहरे पल्लेदार कुसुम्भी शेला को कन्धों पर डाला था तथा उनके मस्तक के ऊपर र्स्वण कलश वाला छत्र लगा हुआ था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि-मंडल तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
उस सभा में शोभाराम शास्त्री ने पूछा कि - 'हे महाराज ! दैवी और आसुरी ये दो प्रकार के जीव हैं । वे अनादि काल के हैं या किसी योग द्वारा होते हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - ''दैवी तथा आसुरी जो दो प्रकार के जीव हैं वे सर्वप्रथम माया में लीन हुये थे । बाद में जगत का सृजन होने पर ये दोनों प्रकार के जीव अपने अपने भावों से युक्त होकर उत्पन्न होते हैं । कितने साधारण जीव हैं जो दैवी और आसुरी जीवों के संग से दैवी तथा आसुरी हो जाते हैं । कितने दैवी और आसुरी जीव हैं वे तो जैसे-जैसे कर्म करते जाते हैं वैसे-वैसे भावों को प्राप्त करते हैं । उनमें असुर भाव के बारे में और दैवी भाव के बारे में मुख्य हेतु तो क्रमशः सत्पुरुषों का कोप तथा अनुग्रह है । जैसे जय विजय भगवान के पार्षद थे वे सनकादि जैसे सत्पुरुषों से द्रोह करने के कारण आसुर भाव को प्राप्त हो गये । प्रहलादजी दैत्य थे उन्होंने नारदजी का उपदेश ग्रहण किया तो वे परम भागवत सन्त कहलाये । अतः जिसके ऊपर सत्पुरुष का कोप होता है वह जीव आसुरी हो जाता है तथा जिस पर सत्पुरुष प्रसन्न होते हैं वह जीव दैवी हो जाता है । किन्तु दैवी और आसुरी होने का दूसरा कोई कारण नहीं है । अतः जिसे अपने कल्याण की इच्छा से उसे भगवान तथा भगवान के भक्त का किसी भी प्रकार से द्रोह नहीं करना चाहिये। उसे तो भगवान और भगवान के भक्त प्रसन्न हों वैसा ही करना चाहिये ।'
इति वचनामृतम् ।। १५ ।। ।। २१५।।