वचनामृतम् १४

संवत् १८८२ में पौष कृष्ण नवमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर के आगे  विराजमान थे । उन्होंने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
बडोदरा के वाघमोडिया रामचन्द्र ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज कुपात्र जीव को भी समाधि होने का क्या कारण है ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'धर्मशास्त्रों में जो वर्णाश्रम धर्म बताया गया है, उसके विपरीत आचरण करनेवाले को सब लोग ऐसा मानते हैं कि - 'यह कुपात्र व्यक्ति है ।' उस कुपात्र के हृदय में यदि भगवान या भगवान के सन्त का गुण आ जायें तो उसके लिये यह एक बडा पुण्य होता है । उसने जो वर्णाश्रम धर्म का लोप किया था उसका पाप नष्ट हो जाता है और वह जीव अत्यन्त पवित्र हो जाता है । अतः उसका चित्त भगवान के स्वरूप में लग जाता है और उसको समाधि लग जाती है । जो पुरुष धर्मशास्त्र के अनुसार वर्णाश्रम धर्म का पालन करता है उसको सब लोग धर्म वाला कहते हैं । परन्तु वह यदि भगवान तथा भगवान के साधुओं का द्रोह करता है तो उस सत्पुरुष को उस द्रोह का ऐसा पाप लगता है कि वर्णाश्रम धर्म का पालन करने से जो पुण्य मिला होता है उसे जलाकर भस्म कर डालता है । अतः सत्पुरुष का द्रोह करनेवाले को तो पंचमहापाप करने वाले से भी अधिक पाप होता है । क्योंकि जिसने पंच महापाप किये हों वह यदि सत्पुरुष के आश्रय में चला जाता है तो उसे पापों से छुटकारा मिल जाता है परन्तु सत्पुरुष का द्रोह करनेवाले को तो कहीं भी छूटने का स्थान नहीं होता । क्योंकि अन्य स्थान में किया पाप तीर्थ में जाकर छूटता है किन्तु तीर्थ में किया जाने वाला पाप तो वज्रलेप के समान होता है । अतः सत्पुरुष का आश्रय ग्रहण करने पर चाहे जैसा भी पापी हो तो भी वह अति पवित्र हो जाता है और उसे समाधि लग जाती है । यदि सत्पुरुष का द्रोही हो तो वह चाहे कितना भी धर्म वाला हो तब भी वह महा पापी है । उसके हृदय में तो किसी काल मे भगवान का दर्शन नहीं होता । जिसे विमुखजीव पापी जानते हैं वही पापी नहीं होता तथा जिसे विमुखजीव धर्मात्मा समझते हैं, वह धर्मात्मा नहीं होता ।'

इति वचनामृतम् ।। १४ ।। ।। २१४।।