वचनामृतम् १३

संवत् १८८२ में पौष कृष्ण सप्तमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के दरबार में नीम वृक्ष के नीचे चौकी पर गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । कंठ में श्वेत पुष्पों के हार पहने थे और कर कमलों से वे अनार फल को उछाल रहे थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । श्रीजी महाराज के ऊपर सोने के कलश सहित छत्र लगा था । ऐसी शोभा को धारण करते हुये श्रीजी महाराज विराजमान थे ।
          
उस समय भादरण गांव के पाटीदार भगुभाई श्रीजी महाराज के पास आये थे । उन्होंने पूछा कि - 'हे महाराज ! यह समाधि कैसे होती है ?'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जीवों के कल्याण के लिये इस भरतखंड में भगवान अवतार धारण करते हैं । वह भगवान जब राजा के रूप में होते हैं तब वे उन्तालीस लक्षणों से युक्त होते हैं और दत्त तथा कपिल जैसे साधु के रूप में हों तब तीस लक्षणों से युक्त होते हैं । वह भगवान की मूर्ति तो देखने में मनुष्य जैसी होती है परन्तु वह अत्यन्त अलौकिक मूर्ति होती है । जैसे पृथ्वी पर सब पत्थर हैं वैसे ही चुम्बक थी पत्थर है । परन्तु चुम्बक में सहज ही ऐसा चमत्कार रहा है कि यदि चुम्बक पर्वत के समीप जहाज आ जाय तो उसके सब खूंटे चुम्बक पत्थर की ओर खिंच जाते हैं ।' वैसे भगवान की मूर्ति जो राजा रूप में है तथा साधु रूप में है तो उन मूर्तियों का जीव जब श्रद्धापूर्वक दर्शन करता है तब उनकी इन्द्रियॉं भगवान के सामने खिंच जाती हैं तब समाधि होती है । जैसे श्रीकृष्ण भगवान का दर्शन करके गोकुल वासियों को समाधि हुयी थी और भगवान ने उस समाधि में अपना धाम दिखाया था । उसी तरह से जिस-जिस समय भगवान के अवतार हों उस-उस समय भगवान की मूर्ति में ऐसा चमत्कार अवश्य रहता है । जो उस समय श्रद्धा सहित भगवान का दर्शन कर ले तो उसकी इन्द्रियॉं भगवान के समाने खिंच जाती हैं और तत्काल समाधि हो जाती है । यदि किसी समय भगवान को अपने सम्मुख अनेक जीवों को करना हो तब अभक्त जीव हो या पशुओं को भी भगवान को देखकर समाधि लग जाती है तो यदि भगवान के भक्त को हो तो उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है ?
          
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'ब्रह्म तो सर्वत्र व्यापक है । ऐसा सब लोग कहते हैं, जो व्यापक हो उन्हें मूर्तिमान कैसे कहा जा सकता है और जो मूर्तिमान हों उन्हें व्यापक कैसे कहा जा सकता है ? यह प्रश्न है ।'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'ब्रह्म तो एकदेशस्थ है, परन्तु सर्वदेशीय नहीं है । वह ब्रह्म श्रीकृष्ण भगवान हैं । वे एकदेशस्थ होते हुये भी सर्व देशस्थ होते हुये भी सर्व देशस्थ हैं । जैसे किसी पुरुष ने सूर्य की उपासना की हो उसे सूर्य अपनी जैसे दृष्टि प्रदान करते हैं तब वह पुरुष जहां तक सूर्य की दृष्टि पहुंचती है वहॉं तक देखता है, जैसे कोई सिद्धदशावाला पुरुष हजारों लाखों कोस की दूरी पर की तरह सुन लेता है वैसे ही लाखों कोस दूर पडी हुयी किसी वस्तु को मनुष्य जैसे हाथ से उठा लेता है वैसे ही श्रीकृष्ण एक स्थान पर रहते हुये भी अपनी इच्छा से जहा दर्शन देना होता है वहॉं दर्शन देते हैं । जो सिद्ध होता है उसमें भी दूर श्रवण एवं दूरदर्शनरूपी चमत्कार रहता है तब परमेश्वर में वह चमत्कार रहे तो इसमें क्या आश्चर्य है ? भगवान को ग्रन्थ में व्यापक कहा गया है । वह तो मूर्तिमान है । वे अपनी सामर्थ्य से एक स्थान पर रहते हुये भी सबको दर्शन देते हैं ऐसा व्यापक कहा गया है, परन्तु आकाश की तरह से अरूप होकर व्यापक नहीं है, भगवान तो सदा मूर्तिमान हैं । मूर्तिमान भगवान अक्षरधाम में रहते हुये भी अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में प्रतीत होते हैं ।'

इति वचनामृतम् ।। १३ ।। ।। २१३।।