वचनामृतम् १२

संवत् १८८२ में पौष शुक्ल द्वितीया के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण के दरबार में नीम वृक्ष के नीचे चौकी पर गदृी-तकिया लगे हुये पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था और उसके अन्दर श्वेत पिछौरी युक्त गुलाबी रंग की शाल ओढी थी । मस्तक पर सफेद पाग बांधी थी तथा कंठ में गुलाब के पुष्पों का हार पहना था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनिमंडल तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
उस समय श्रीजी महाराज अर्न्तदृष्टि करके काफी समय तक विराजमान रहे । तत्पश्चात नेत्र कमलों को खोलकर समस्त हरिभक्तों की ओर करुणा-कटाक्ष द्वारा देखते हुये बोले कि - 'आज तो सबको निश्चय की बात करनी है । उसे सावधानीपूर्वक सुने कि - 'अनन्त कोटि सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि के समान प्रकाशमान जो अक्षरधाम है उसमें श्री पुरुषोत्तम भगवान सदैव दिव्यमूर्ति होकर विराजमान रहते हैं । वे ही भगवान जीवों के कल्याण के लिये पृथ्वी पर रामकृष्णादि अवतारों को धारण करते हैं । तब जिसको उन भगवान के स्वरूप का सत्समागम से दृढ निश्चय होता है उसका जीव द्वितीया के चन्द्रमां के समान दिनों दिन बढता है जैसे चन्द्रमा में जैसे जैसे सूर्य की कला आती रहती है वैसे-वैसे वह चन्द्रमा भी वृद्धि को प्राप्त करता है और जब पूर्णमासी आती है तब चन्द्रमा सम्पूर्ण हो जाता है । वैसे ही भगवान का परिपूर्ण निश्चय होने के पूर्व तक तो वह जीव अमावास्या के चन्द्रमा की तरह कलारहित खद्योत के समान होता है । बाद में जैसे-जैसे वह परमेश्वर की महिमा सहित निश्चय को प्राप्त करता है वैसे-वैसे वृद्धि को प्राप्त करके वह जीवात्मा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान हो जाता है । बाद में उसकी इन्द्रियॉं तथा अन्तःकरण उस निश्चय को डिगाने में समर्थ नहीं होते, तब परमेश्वर चाहे कैसा भी चरित्र करें तब भी उसे किसी भी तरह से भगवान में दोष नहीं दिखता । ऐसा जिसको महिमा सहित भगवान का निश्चय हो जाता है तब वह भक्त निर्भय हो जाता है । उसी भक्त को कभी असत् संग तथा असत् शास्त्रादि के योग द्वारा अथवा देहाभिमान द्वारा भगवान के चरित्र में सन्देह हो जाता है तथा भगवान में दोष दिखने लगता है तभी वह जीव पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान था तब वह पुनः अमावस्या के चन्द्रमा के समान हो जाता है । यदि अपने में कुछ कम अधिक दोष हों तो भी वह इस जीव के लिये बाधा नहीं डाल सकता परन्तु परमेश्वर के चरित्र में किसी प्रकार का सन्देह हो अथवा परमेश्वर का किसी भी प्रकार का अवगुण दिखायी दे तो वह जीव कल्याण के मार्ग से तत्काल गिर जाता है । जैसे वृक्ष की जड कट जाने पर वह वृक्ष अपने आप सूख जाता है उसी तरह से जिसे भगवान के बारे में दोष बुद्धि आ जाय तो वह जीव किसी भी तरह से विमुख हुये बिना नहीं रहता । जिसे निश्चय का अंग दुर्बल होता है उसको सत्संग रहने पर भी ऐसा संकल्प विकल्प होता रहता है कि - क्या पता मेरा कल्याण होगा या नहीं होगा और जब मैं मरुगा तब देवता बनूंगा या राजा बनूंगा या भूत बनूंगा ?' जिसे भगवान के स्वरूप का परिपूर्ण निश्चय न हो उसे ऐसे संकल्प होते है । जिसे परिपूर्ण निश्चय होता है वह तो यह समझता है कि - जब से मुझे भगवान मिले हैं उस दिन से मेरा कल्याण हो चुका है और जो कोई मेरा दर्शन करेगा या मेरी वार्ता सुनेगा वह जीव भी समस्त पापों से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त करेगा ।' अतः इस तरह से महिमा सहित निश्चय रखकर अपने में कृतार्थभाव रखना चाहिये यह बात सबको सावधान होकर ध्यान में रखनी चाहिये । तत्पश्चात श्रीजी महाराजने कहा कि - 'धन्य वृन्दावनवासी वटनी छाया रे ज्यां हरि बेसता ।' इस महात्म्य का कीर्तन गाईये । इस प्रकार के कीर्तन गान के बाद श्रीजी महाराज बोले कि श्रीकृष्ण भगवान ने भागवत में कहा है कि -

''अहो अमी देववरामरार्चितं पादाम्बुजं ते सुमनः फलार्हणम् ।
नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम् ।।''
          
इस तरह से परमेश्वर का योग प्राप्त करके वृक्ष का जन्म भी कृतार्थ हो जाता है । अतः जिस वृक्ष के नीचे भगवान बैठे हों उस वृक्ष को भी परमपद का अधिकारी जानना चाहिये । जिसके हृदय में भगवान की महिमा सहित दृढ निश्चय न हो उसको तो नपुंसक जैसा जानना चाहिये । उसके वचनों से तो किसी जीव का उद्धार नहीं हो सकता । जैसे कोई राजा नपुंसक हो और उसका राज्य तथा वंश चला जाय किन्तु उससे उसकी स्त्री को पुत्र उत्पन्न न हो सके तथा वह सभी मुल्कों से अपने समान नपुंसकों को बुलवाकर उन्हें उस स्त्री के संग रखे तब भी वह स्त्री को पुत्र नहीं हो सकता । वैसे ही जिसे भगवान का महिमा सहित निश्चय न हो तो उसके मुख से गीता, भागवत जैसे सद्ग्रन्थों को सुनने से किसी का कल्याण नहीं होता । जैसे शक्कर मिला दूध हो उसमें सर्प की लार गिरी हो तो उसे जो भी पीता है उसका प्राण नाश हो जाता है । वैसे ही माहात्म्य सहित जो भगवान का निश्चय है, उससे रहित जो जीव हैं उनके मुख से गीता, भागवत सुनकर किसी का कल्याण नहीं होता उससे तो उसका सर्वनाश होता है ।'

इति वचनामृतम् ।। १२ ।। ।। २१२।।