वचनामृतम् ११

संवत् १८८२ में पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री वरताल स्थित श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर के दरबार में नीम वृक्ष के नीचे चौकी पर गदृी-तकिया डलवाकर विराजमान थे । उन्होंने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे और कंठ में श्वेत पुष्पों के हार पहने थे । कर्ण के ऊपर पुष्प के हार खोंसे थे तथा पाग में पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष समस्त मुनिमंडल तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'हमारा तो ऐसा स्वभाव है कि एक तो भगवान दूसरे भगवान के भक्तों, तीसरे ब्राह्मण तथा चौथे गरीब मनुष्यों से हम बहुत ज्यादा डरते हैं कि कभी उनका द्रोह न हो जाय ।' ऐसा और किसी अन्य से हम नहीं डरते, क्योंकि इन चारों के सिवा यदि अन्य किसी से द्रोह करेंगे तो उसकी देह का नाश हो जाता है परन्तु जीव का नाश नहीं होता । यदि इन चारों में से किसी एक का भी द्रोह किया जायगा तो उसका जीव भी नाश हो जाता है ।
          
इस बात को सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! जीव को तो अविनाशी कहा गया है उसका नाश कैसे जानना चाहिये ?'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'पर्वत या ऐसी कोई अन्य जड देह मिले तो उसमें जीव का किसी भी तरह से कल्याण नहीं होता । उसके जीव का नाश हो गया समझना चाहिये । अतः जिसे अपने कल्याण की इच्छा हो उसे इन चार में से किसी भी प्रकार का मान नहीं रखना चाहिये, क्योंकि मान तो क्रोध, मत्सर, ईर्ष्या तथा द्रोह का आधार है, अभिमानी की भक्ति भी आसुरी कहलाती है । जो भगवान के भक्त को डराता हो वह प्रभु का भक्त हो तब भी उसे असुर जानना चाहिये । हमारा तो यह स्वभाव है कि जो ब्राह्मणों, गरीबों और भगवान के भक्तों से द्रोह करता है उसे हम देखना भी पसन्द नहीं करते । इस लोक तथा परलोक में भी उसके साथ हमारा संग नहीं रहेगा ।' इतनी वार्ता करने के पश्चात श्रीजी महाराजने दो पदों का गान कराया प्रथम यह था - 'मारा हरिजी शुं हेत न दीसे रे तेने घेर शीद जइये ।' दूसरा यह था - ''मारा वाला जी शुं वहालप दीसे रे तेनो संग केम तजिये ।'' इसके बाद श्रीजी महाराजने सत्संगी मात्र को इन दोनों पदों को सीखने की आज्ञा की और यह कहा कि इन दो पदों मे जो वार्ता है उसका नित्य गान करके उसका स्मरण करते रहना चाहिये । यह कह कर श्रीजी महाराज श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर के आगे मंच पर विराजमान हुये । इसके पश्चात गोपालानन्द स्वामीने पूछा कि - 'इस संसार में जो पंडित हैं वे शास्त्र पुराण को तो पढते हैं किन्तु उन्हें भगवान और सन्तों की यथार्थ महिमा समझ में क्यूं नहीं आती ?'
          
श्रीजी महाराज बोले कि - 'शास्त्र, पुराण पढते तो हैं, लेकिन उन्हें भगवान का आश्रय नहीं है अतः काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मत्सरने उनके जीव को पराजित कर दिया है तथा कामादिक शत्रु उन्हें कभी भी सिर नहीं उठाने देते । ऐसा पंडित अपने समान ही भगवान तथा भगवान के सन्त को समझता है कि - 'जैसे हमारे कामादि शत्रु कभी भी निवृत्त नहीं होते वैसे ही इनके कामादि शत्रुओं की निवृत्ति नहीं होती ।' इस तरह से वह भगवान तथा भगवान के सन्त में दोष समझता है । अतः शास्त्र, पुराण पढने पर भी भगवान तथा भगवान के सन्त का यर्थाथ माहात्म्य समझ में नहीं आता ।'
          
श्रीजी महाराजने दीनानाथ भट्ट तथा समस्त मुनिमंडल से यह प्रश्न पूछा कि - 'ब्रह्मरूप ऐसे सत्पुरुष तो तीनों शरीरों और तीनों अवस्थाओं से परे रहते हैं तथा वे अपने में चौदह इन्द्रियों की क्रियाओं में से एक को भी नहीं मानते । उन्हें अज्ञानी जीव नहीं पहचान पाते । जब उसकी महान पुरुष जैसी स्थिति होती है तब उसका आचरण महान पुरुष जैसा हो जाता है । उसे सत्य मानने लगता है । जब तक उसे सत्पुरुष की महिमा समझ में नहीं आती तब तक ब्रह्मस्वरूप में उसकी स्थिति भी नहीं होती । आत्मा में स्थिति हुये बिना उसको सत्पुरुष की महिमा भी ज्ञात नहीं होता । अतः परस्पर विरोधाभास हुआ इस विरोध को टालने का उपाय बताये ?'
          
जिसकी जैसी दृष्टि पहुंची उसने वैसा उत्तर दिया परन्तु प्रश्न का समाधान नहीं हुआ । तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'लीजिये, हम उत्तर करते हैं कि पृथ्वी पर भगवान के जो अवतार हुये हैं उनको मिले जो सन्त हैं उनके साथ जब अतिशय प्रीति होती है तब उस सत्पुरुष के सम्बन्ध में किसी प्रकार का दोष नहीं दिखता । जिसे जिसके साथ दृढ हेत होता है उसको उसका कोई अवगुण नहीं दिखता । उसके वचन भी सत्य प्रतीत होते हैं । इस तरह से लौकिक मार्ग तथा कल्याण मार्ग में भी ऐसी रीति है । अतः सत्पुरुष की महिमा जानने का भी यही साधन है । परमेश्वर के साक्षात दर्शन प्राप्त होने का भी यही साधन है ।'

इति वचनामृतम् ।। ११ ।। ।। २११।।