संवत् १८ की श्रावण कृष्ण त्रयोदशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्द जी महाराज अपने भक्तों को सुख देने के लिये सारंगपुर से चलकर श्री कुंडल गाम में पधारे । वहाँ वे कुंडल में अमरापटगर के पश्चिमी कमरे के बरामदे में पलंग पर उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । वे मस्तक पर सफेद पाग बाँधे थे । सफेद पछेडी ओढी थी और श्वेत चूडीदार पाजामा पहना था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! जीव के हृदय में युग के धर्म दिखायी देते हैं । उसका क्या कारण है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'युग धर्मों के दिखायी देने का कारण तो गुण है । जब शुद्ध सत्वगुण दिखता हो उसके हृदय में सतयुग की प्रवृत्ति रहती है । जब रजोगुण दिखता हो तो उसके हृदय में त्रेता युग की प्रवृत्ति रहती है। जब उसके हृदय में रजोगुण और तमोगुण साथ में रहते हैं तब उसके हृदय में द्वापर युग की प्रवृत्ति होती है । जब अकेले तमो गुण ही हृदय में दिखता हो तब उसके हृदय में कलियुग की प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार गुणों द्वारा युगों की प्रवृत्ति रहती है ।'
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'गुणों की प्रवृत्ति होने का क्या कारण है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'गुण की प्रवृत्ति का कारण तो कर्म है । जैसे पूर्व कर्म होते हैं । वैसे गुणों की भी प्रवृत्ति होती है । अतः जिसके अन्दर रजो गुणी और तमोगुणी स्वभाव हो वह यदि एकाग्र होकर भगवान का ध्यान करे तो भी वह ध्यान नहीं कर सकता है । अतः ऐसे लोगों को आत्मनिष्ठा तथा भगवान की महिमा का बल रखना चाहिये । उन्हें ऐसा समझना चाहिये कि 'मैं गुणातीत हूँ ।' भगवान की महिमा का इस प्रकार विचार करना चाहिए कि 'अजामिल महापापी था फिर भी उसने अपने पुत्र नारायण का नाम लिया और वह समस्त पापों से मुक्त हो गया और उसे परम पद की प्राप्ति हुई । परन्तु मुझे तो भगवान प्रत्यक्ष रुप से मिले हैं और रातदिन उस भगवान का नाम लेता हूँ । इसलिये मैं कृतार्थ हुआ हूँ । इस प्रकार का विचार करके आनन्द में रहना चाहिये । परन्तु जिसका स्वभाव तमोगुणी और रजोगुणी हो उसे ध्यान-धारणा के लिये आग्रह नहीं करना चाहिये । अतः ऐसे भक्तों को जितना हो सके भजन-स्मरण करना चाहिये । शरीर द्वारा भगवान और सन्त की परिचर्या श्रद्धा सहित करनी चाहिये तथा अपने अपने धर्म में रहकर स्वयं को पूर्णकाम समझना चाहिये ।'
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'उनके तामसी कर्म के कारण जिसके हृदय में कलियुग दिखायी दे तो वह किसी उपाय द्वारा टल सकती है, या नहीं?
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यदि उसमें सन्त और परमेश्वर के वचनों में अतिशय श्रद्धा तथा दृढ विश्वास हो तो भी उसके तामसिक कर्म क्यों न हों उनका नाश हो जाता है और कलियुग का धर्म दिखने लगता है । इसलिये अत्यन्त सच्चे भाव से यदि सत्संग करता है तो उसके हृदय में किसी भी प्रकार का दोष नहीं रहता है और वह अपने जीवन काल में ही ब्रह्म रुप हो जाता है ।'
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'स्थान किसे कहते हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'चार वर्णो तथा चार आश्रमों का जो अपना अपना धर्म है उसे स्थान जानना चाहिये । आप त्यागी है यदि आप त्याग का पक्ष छोडकर गृहस्थ मार्ग पर चलने लगें तो आप पथभ्रष्ट हो गये ऐसा समझना चाहिये । अतः कैसा भी आपत्तिकाल क्यों न आये अथवा हम आज्ञा करें तो भी आपको अपने धर्म से नहीं हटना चाहिये । यदि गृहस्थ वस्त्रों और अलंकारों द्वारा हमारी पूजा करने की इच्छा करे वैसी इच्छा आपको नहीं करनी चाहिये। आपको तो पत्र, पुष्प, फल और जल द्वारा ही पूजा करनी चाहिये और ऐसी पूजा में ही आनन्द मानना चाहिये । परन्तु अपने धर्म से चलायमान होकर परमेश्वर की पूजा करना उचित नहीं है । अतः सबको अपने धर्म का पालन करते हुए जितनी पूजा सम्भव हो उतनी करनी चाहिये । यह हमारी आज्ञा है । सबको दृढता के साथ इसका पालन करना चाहिये ।'
इति वचनामृतम् ।। ९ ।। ८७ ।।