वचनामृतम् १०

संवत् १८ की श्रावण कृष्ण चौदश के दिन श्रीजी महाराज समस्त साधु मंडल के साथ कुंडल ग्राम से प्रस्थान करके मार्ग में खांभडा ग्राम में आए। वहाँ पीपल के वृक्ष के नीचे ठहरे । तत्पश्चात गाँव के लोग पलंग लाये और उस पर श्रीजी महाराज को विराजमान किया । उस समय श्रीजी महाराज ने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके चारों तरफ साधु तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
साधु कीर्तन कर रहे थे । उस कीर्तन को बंद करवा कर श्रीजी  महाराज ने गाँव के लोगों से यह बात कही कि - 'इस संसार में धर्मी और अधर्मी दो प्रकार के मनुष्य हैं । धार्मिक मनुष्य चोरी, परस्त्री संग और चुगली आदि समस्त पापों का त्याग करके परमेश्वर से डरकर धर्म मर्यादा के अनुसार रहते हैं । उसका संसार में सब विश्वास करते हैं । वे अपने कुटुंबी हो या अन्य कोई । वह पुरुष जो कुछ बोलता है वह सबको सत्य की प्रतीत होता है । ऐसे धार्मिक पुरुष को सच्चे सन्त का समागम ही अच्छा लगता है ।'
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जो अधर्मी पुरुष होते हैं, उन्हें तो चोरी परस्त्री संग मद्य मांस का भक्षण, धर्म भ्रष्ट होना और दूसरे को धर्म भ्रष्ट करना आदि सभी कुकर्मों को करने में ही आनंद आता है । संसार में उसका कोई विश्वास नहीं करता । स्वयं उसके सगे सम्बन्धी भी उसका विश्वास नहीं करते । ऐसे अधर्मी व्यक्ति को सच्चे संतों का समागम भी अच्छा नहीं लगता है और यदि कोई अन्य भी उस सन्त के समागम करते हैं तो भी वह उसका द्रोह करता है । अतः जिसे कल्याण की इच्छा हो उसे अधर्मी के मार्ग पर नहीं चलना चाहिये और धर्म के मार्ग पर चलकर सच्चे सन्त का समागम करना चाहिये । तो निश्चय रुप से उस जीव का कल्याण होता है । इसमें कोई संशय नहीं है ।' इतनी वार्ता सुनकर गाँव के अनेक मनुष्यों ने श्रीजी महाराज का आश्रय ग्रहण किया ।
         
बाद में वहाँ से श्रीजी महाराज सारंगपुर पधारे । इसके पश्चात् श्रीजी  महाराज जीवा खाचर के दरबार में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान हुए । उस समय वे श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'गोलोक, बैकुंठ, श्वेतद्वीप, ब्रह्मपुर आदि जो समस्त भगवान के धाम हैं, उन्हें बाह्य दृष्टि से देखा जाय तो बहुत दूर हैं। परन्तु आत्मदृष्टि द्वारा देखा जाय तो एक अणु जितने भी दूर नहीं है । अतः बाह्य दृष्टि वाले की समझ मिथ्या है और आत्मदृष्टि वाले की समझ सत्य है। जो साधु यह समझते हैं कि 'मेरे चैतन्य में प्रभु सदैव विराजमान रहते हैं, जिस प्रकार देह में जीव रहता है वैसे ही मेरे जीव में भगवान रहते हैं । मेरा जीव तो शरीर है तथा भगवान मेरे जीव के शरीरी है । जो अपनी जीवात्मा को स्थूल और कारण नामक शरीरों से पृथक मानता हो और उसमें अखंड रुप से विराजमान देखता हो तो उस सन्त द्वारा भगवान और उनके धाम के बीच अणुमात्र भी दूरी नहीं दिखती । ऐसे जो सन्त हों वे श्वेतद्वीप के मुक्त जनों के सदृश हैं । ऐसे सन्त का यदि दर्शन हो जाय तो ऐसा समझना चाहिये कि 'मुझे साक्षात् भगवान का दर्शन हुआ ऐसा ज्ञानी सन्त तो कृतार्थ हुआ है । जिसको ऐसा ज्ञान न हो सके किन्तु वह सन्त के समागम में पडा रहे और सन्त यदि उसे नित्य पांच जूते भी मारे तो भी वह सन्त के इस अपमान को सहन कर लेता है किन्तु सन्त समागम का त्याग नहीं करता । जैसे अफीम का व्यसनी हो वह उसका त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह से वह किसी प्रकार सन्त समागम का त्याग नहीं कर सकता । तब प्रथम सन्त के समान उसे भी मानना चाहिये । ऐसे सन्त को जो कुछ प्राप्त होता है, वैसी प्राप्ति सन्त समागम करते रहने वाले पुरुष को भी होती है ।''  

इति वचनामृतम् ।। १० ।। ८८ ।।