वचनामृतम् ५

संवत् १८ की श्रावण कृष्ण नवमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । वे समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'वासना की निवृत्ति होने का कौन-सा श्रेष्ठ उपाय है जिसमें एक उपाय से सभी साधना आ जायें ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसके हृदय में श्रद्धा तथा हरि एवं उनके भक्तों के वचनों में विश्वास, भगवान में प्रीति तथा भगवान के स्वरुप का माहात्म्य ज्ञान ये चारों बातें हों, उसकी वासना निवृत्त हो जाती है । उसमें भी यदि माहात्म्य ज्ञान सुदृढ हो तो श्रद्धा, विश्वास और प्रीति दुर्बल होने पर भी ये सब महाबलवान होते हैं । यदि माहात्म्य बिना की भक्ति अधिक दिखायी पडती हो तो भी अन्त में उसका नाश हो जाता है । जैसे दस-बारह वर्ष की कन्या हो उसे क्षय रोग हुआ हो तो वह कन्या युवावस्था होने से पूर्व ही मर जाय परन्तु युवावस्था को प्राप्त नहीं हो सकती वैसे ही जिसकी महात्म्य रहित भक्ति हो वह भी परिपक्व नहीं होती और उसका नाश हो जाता है । जिसके हृदय में माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति हो किन्तु अन्य कल्याणकारी गुण न हो तो भी उसके हृदय में ये सब आ जाते हैं । यदि माहात्म्य सहित भक्ति जिसके हृदय में नहीं है तथा शमदमादिक कल्याणकारी उत्तम गुण उसमें हैं तो भी वे नगण्य जैसे हैं और अन्त में नष्ट हो जाते हैं । अतः एकमात्र माहात्म्य सहित भक्ति ही हो तो उसकी वासना की निवृत्ति हो  जाती है और हृदय में कल्याणकारी गुण आकर निवास करने लगते हैं । इसलिए माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति ही वासना को टालने का बहुत बडा अचल साधन है ।'
         
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'जीव ईश्वर तथा अक्षरब्रह्म अन्वय और व्यतिरेकभाव से कैसे हैं ?' पुरुषोत्तम भगवान को अन्वय और व्यतिरेक भाव से किस प्रकार जानना चाहिए ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जन्म-मरण के भोक्ता जीव का जो स्वरुप है वह अन्वयरुप है और अछेध, अभेद्य, अविनाशी जीव के स्वरुप को व्यतिरेक समझना चाहिए । विराट, सूत्रात्मा तथा अव्याकृत शरीरों में एकरस होकर निवास करनेवाले ईश्वर का अन्वय स्वरुप है तथा पिड-ब्रह्मांड से परे सच्चिादानन्द भाव द्वारा जो निरुपण किया गया है उसे ईश्वर का व्यतिरेक स्वरुप समझना चाहिए। प्रकृति-पुरुष तथा सूर्यचन्द्रादिक सर्व देवताओं के प्रेरक को अक्षर का अन्वयरुप जानना चाहिए और जिस स्वरुप में पुरुष प्रकृति आदि का कोई भाव नहीं होता है और एकमात्र पुरुषोत्तम भगवान ही रहते हैं वह अक्षर का व्यतिरेक स्वरुप है । वह जीव तथा मुक्तजीव के हृदय में साक्षी रुप से रहनेवाले बन्धन और मुक्ति से अलग है तथा ईश्वर और अक्षर के हृदय में साक्षीरुप से निवास करनेवाले है । और उपाधि रहित है ऐसा पुरुषोत्तम का स्वरुप अन्वय स्वरुप है । जीव, ईश्वर और अक्षर से परे अक्षरातीत स्वरुप को पुरुषोत्तम का व्यतिरेक स्वरुप जानना चाहिए । इस तरह से अन्वय व्यतिरेक भाव रहता है ।'
         
मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान के दर्शन नामस्मरण और स्पर्श की जो महिमा है वह भगवद्भक्त के लिए है या समस्त जीवों के लिये है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'दर्शनादि भेद तो अलग है । उसे कहते हैं सुनिए । जब जीव भगवान का दर्शन करता है तब यदि उसका मन दृष्टि द्वार में आकर उसमे दृष्टि द्वारा जो दर्शन किया जाता है वह दर्शन ऐसा होता है कि अगर उसे भुलाने का प्रयास किया जाय तो भी वह नहीं भूलता । जैसे भागवत में भगवान के प्रति गोपांगनाओं का यह वचन है कि 'हे भगवान ! जिस दिन से आपके चरणों का स्पर्श किया है, उस दिन से हमें आपके बिना संसार के अन्य सुख विष जैसे लगते हैं ।' इस प्रकार से समस्त ज्ञानेन्द्रियों द्वारा मन के साथ जो दर्शन, स्पर्श श्रवणादि किये जाते है । जैसे अज्ञानी जीव ने मन से जिन पांच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो जो विषय भोगे हों उन्हें भुलाने पर भी उसका विस्मरण नहीं होता है । वैसे ही जो पुरुष मनोयोग पूर्वक भगवान का दर्शन करते हैं उन्हे ही दर्शनादि समझना चाहिए । क्योंकि जिस समय उसने दर्शन किया उस समय तो उसका मन दूसरी जगह भटक रहा था । अतः वह दर्शन उसे एक दिन में या पांच दिन में या पचास दिनों में अथवा छह महिनों में या एक वर्ष में अथवा पांच वर्षों में अवश्य भूल जायेगा । परन्तु अन्त तक नहीं रहेगा ।  अतः माहात्म्य समझकर अत्यन्त प्रीतिपूर्वक मन से दृष्टि आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो पुरुष दर्शन स्पर्श आदि करता है उसीको उनका फल मिलता है । और दूसरे को जो परमेश्वर का दर्शन होता है उसका संस्कार फल होता है । यथार्थ महिमा तो उनके लिये है जो मन के साथ दर्शन करते हैं ।'   
                     
इति वचनामृतम् ।। ५ ।। ८३ ।।