वचनामृतम् १

।। श्री स्वामिनारायणो विजयतेतराम् ।।

।। श्री सारंगपुर वचनामृतम् ।।

संवत् १८ में श्रावण कृष्ण पंचमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम में जीवा खाचर के दरबार में, उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'जितं जगत् केन, मनो हि येन' इस श्लोक में ऐसा कहा गया है कि जिसने अपने मन को जीत लिया है उसने समस्त जगत पर विजय प्राप्त कर ली है । मन को जीत लिया है यह कैसे जाना जा सकता है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध नामक पंच विषयों में से जब इन्द्रियाँ निवृत्त हों और किसी भी विषय को प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखती हों तब समस्त इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं । जब इन्द्रियाँ विषयों का स्पर्श ही नहीं करती हैं तब मन भी इन्द्रियों तक नहीं पहुँचता है और हृदय में ही रहता है । इस तरह से जिसने पंच विषयों का त्याग अति दृढता के साथ किया हो, तब उसके द्वारा मन जीता हुआ मानना चाहिए । यदि विषयों पर प्रीति थोडी भी हो तो जीते हुए मन को भी जीता हुआ नहीं समझना चाहिए।
         
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'विषयों की निवृत्ति होने का कारण वैराग्य है या परमेश्वर में प्रीति है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'एक कारण विषयों की निवृत्ति और आत्मनिष्ठा है, और दूसरा कारण माहात्म्य सहित भगवान सम्बन्धी ज्ञान है । उनमें आत्मनिष्ठा तो इस प्रकार की होनी चाहिए कि 'मैं चैतन्य हूँ, देह जड है मैं शुद्ध हूँ, देह नर्क रुप हैं । मैं अविनाशी हूँ, देह नाशवंत है, मैं आनन्दरुप हूँ और देह दुःख रुप है ।' इस तरह से जब देह से अपनी आत्मा को सर्व प्रकार से अतिशय विलक्षण समझ लेता है तब देह को अपना रुप मानकर विषयों से प्रीति नहीं करता है । इस तरह से आत्मज्ञान द्वारा विषयों की निवृत्ति होती है। भगवान की महिमा तो इस प्रकार समझनी चाहिए कि 'मैं आत्मा हूँ और जो प्रत्यक्ष भगवान मिले हैं वे तो परमात्मा हैं । गोलोक, बैकुंठ, श्वेतद्वीप, ब्रह्मपुर तथा अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के अधिपति जो ब्रह्मादि देव हैं उन सबके स्वामी श्री पुरुषोत्तम भगवान मुझे प्रत्यक्ष रुप से प्राप्त हुए हैं । वे मेरी आत्मा में भी अखंड रुप से विराजमान हैं । उन भगवान के निमेष मात्र के दर्शन पर अनन्त कोटि ब्रह्मांडों के विषय सुखों को मोडतोड कर फेंक देना चाहिए । भगवान के एक रोम में जितना सुख समाया है उतना सुख अनन्त कोटि ब्रह्मांडों के विषय सुखों को इकट्वा करने पर भी उनकी कोटि के एक भाग के बराबर भी नहीं होता। भगवान का जो अक्षर धाम है उसकी तुलना में अन्य देवताओं के लोकों का मोक्ष धर्म में नर्क तुल्य कहा गया है । ऐसे भगवान प्रत्यक्ष मुझे मिले हैं, तो उन्हें छोडकर नरक कुंड जैसे विषय सुख की इच्छा क्यों करुँ ? विषय सुख तो केवल दुःख रुप ही है ।
         
इस प्रकार से भगवान के माहात्म्य को जानकर विषयों में निवृत्ति होती है । ऐसे आत्मज्ञान तथा परमात्मा के ज्ञान से जो वैराग्य प्रकट होता है उसके द्वारा समस्त विषयसुखों की वासना निवृत्त हो जाती है । जिसने इस प्रकार से समझकर विषय सुख का त्याग कर दिया है उसे पुनः विषयों में प्रीति होती ही नहीं है । ऐसे भक्त का मन ही जीत लिया गया कहलाता है । इस प्रकार के ज्ञान के बिना यदि अधिक स्नेह दिखता हो तो ऐसा मनुष्य किसी अच्छे विषय की प्राप्ति होने पर भगवान को त्याग कर विषय में प्रीति करने लगता है, अथवा पुत्र फल आदि से प्रेम करता है या रोगादि सम्बन्धी पीडा होती है अथवा पंचविषयों का सुख मिट जाता है तब भगवान में प्रीति नहीं रहती और व्याकुल हो जाता है । जैसे कुत्ते का बच्चा जब छोटा रहता है तब सुन्दर दिखता है वैसे ही ऐसे व्यक्ति की भक्ति भी पहले तो अच्छी दिखती है, परन्तु अन्त में शोभा नहीं देती।
                                   
इति वचनामृतम् ।। १ ।। ९।।