वचनामृतम् १७

संवत् १८ के भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के दिन सन्ध्या के समय श्रीजी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम जीवा खाचर के कमरे के बरामदे में पलंग के ऊपर विराजमान थे । वे सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये हुये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान के भजन करने वाले जीव की दृष्टि जैसे जैसे सूक्ष्म होती जाती है वैसे वैसे उसे परमेश्वर का भाव होता जाता है और भगवान की महिमा भी अधिकाधिक मालूम होती जाती है । वह भक्त स्वयं को देह रुप मानता हो तब वह भगवान के जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति से परे मान तब भगवान उसे उससे परे दिखते हैं । परन्तु जैसे जैसे उसकी सूक्ष्म दृष्टि होती जाती है वैसे-वैसे भगवान को अपने से परे जानता है और महिमा को भी अधिक समझने लगता है । बाद में जैसे जैसे अपनी वृत्ति प्रेमपूर्वक भगवान के साथ होती जाती है । यहाँ एक दृष्टान्त है जैसे समुद्र है उसमें चीटीं, चिडियाँ, मनुष्य, पशु, घोडा, हाथी, और बडे बडे मगर-मच्छ सभी समुद्र का जल पीकर बलवान बनते हैं परन्तु समुद्र लेशमात्र कम नहीं होता । जिस जिस जीव की जैसी जैसी बडी शक्ति होती है वैसे वह जीव उसके अनुसार समुद्र की महिमा अधिक जानता है ।
         
अन्य दृष्टान्त यह है कि जैसे आकाश में मच्छर, चिडियाँ, चील, बाज, अनलपक्षी तथा गरुड सभी उडते हैं । परन्तु इन सबके लिये आकाश अपार का अपार ही रहता है और जिसके पंख में ज्यादा बल होता है वह आकाश की महिमा अधिक जानता है और अपने विषय में न्यूनता समझता है । वैसे ही मरी इत्यादि प्रजापतियों के समान अल्प उपासनावाला भक्त तो मच्छके समान है और ब्रह्मादि की तरह उससे अधिक उपासना वाला भक्त तो चिडिया के समान है और विराट पुरुष आदि की तरह उससे अधिक उपासना वाले भक्त चील जैसे हैं और प्रधान पुरुष की तरह उससे अधिक उपासना वाले भक्त बाज जैसे  हैं । उससे अधिक उपासना वाले भक्त अक्षर मुक्त के समान गरुड जैसे हैं । ये सभी भक्त जैसे-जैसे विशेष सामर्थ्य को प्राप्त करते हैं वैसे-वैसे भगवान में स्वामी-सेवक का भाव भी दृढ होता जाता है ।
         
जब भजन करनेवाला जीवरुप था तब उस जीव में खद्योत जितना प्रकाश था । इसके पश्चात् जैसे-जैसे भगवद् भजन करते करते आवरण हरता गया वैसे-वैसे वह दीप, मशाल, अग्नि की ज्वाला, दावानल, बिजली, चन्द्रमा, सूर्य, प्रलय काल की अग्नि और बाद में महातेज जैसा हुआ । इस प्रकार प्रकाश में भी वृद्धि हुयी और सामर्थ्य भी बढता गया इसके साथ-साथ स्त्राव भी बढता गया। इस प्रकार खद्योत से लेकर महातेज पर्यन्त आद्य, मध्य और अन्त के जो भेद बताये गये हैं वे सब भक्तों के भेद हैं । जैसे-जैसे वे उच्च स्थिति को प्राप्त करते गये तथा भगवान की महिमा को अधिक जानते गये वैसे-वैसे उनके भक्त भाव में विशेषता आती गयी ।' इतना कहकर श्रीजी महाराज 'जय सच्चिदानन्द' बोलते हुए उठकर खडे हो गये । बाद में इमली की टहनी को पकडकर पूर्व की ओर मुखारविन्द करके खडे हो गये और बोले कि  'जैसे पूर्णिमा का चन्द्र होता है वह यहाँ से छोटी थाली जैसा दिखायी देता है । परन्तु जैसे जैसे उसके समीप जाते हैं वैसे वैसे वह बडा दिखायी देता है । परन्तु जब उसके अत्यन्त निकट जाते हैं तब वह इतना विशाल दिखायी देता है कि दृष्टि भी नहीं पहुँच सकती । वैसे ही माया रुप अन्तराय के मिटने के बाद जैसे जैसे भगवान के निकट जाना होता है वैसे वैसे भगवान की भी अत्यन्त अपार महिमा विदित होती जाती है और भगवान के प्रति दासभाव भी अत्यन्त दृढ होता जाता है ।'
                              
इति वचनामृतम् ।।१७।। ।। ९५ ।।