संवत् १८ के भाद्र मास शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन स्वामी सहजानन्दजी महाराज ग्राम श्री सारंगपुर में जीवाखाचर के दरबार में विराजमान थे । उन्होंने सफेद दुपट्टा ओढा था । श्वेत चादर ओढी थी और मस्तक पर श्वेत पाग बांधी थी । वे उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के आगे मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो श्रद्धावान पुरुष हो, उन्हें सच्चे सन्त का संग मिल जाय तथा वह उनके वचनों में श्रद्धा रखने लग जाय तो उसके हृदय में स्वधर्म, वैराग्य, विवेक, ज्ञान और भक्ति आदि कल्याणकारी गुण प्रकट हो जाते हैं, और कामक्रोधादि विकार भस्म हो जाते हैं । यदि उसे कुसंग मिले और कुसंगी के वचनों में श्रद्धा रखने लगे तो वैराग्य विवेकादि गुणों का नाश हो जाता है । जैसी खारी भूमि हो उस पर चाहे कितनी भी भारी वर्षा क्यों न हो, किन्तु उसमें तृण आदि नहीं उगते । उस खारी भूमि में भारी वर्षा के कारण बाढ आ जाय तो वहाँ का खार धुल जाता है । जिस तरह खार था वहाँ नयी मिट्टी बहकर आती है और उस मिट्टी के साथ यदि बड, पीपल आदि के बीज आ गये हों तो उनके बीज उगकर बडे-बडे वृक्ष हो जाते हैं । उसी तरह से जिसे हृदय में पहले कहे गये जो स्वधर्मादि गुणों की दृढता रही हो तो संसार सम्बन्धी विषयों का अंकुर नहीं उग पाता । यदि उसे कुसंग मिल गया तो उसके हृदय में कुसंग रुपी पानी के वेग से सांसारिक वार्तारुप नयी मिट्टी आकर जम जाती है । बाद में उस मिट्टी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि के बीज सब उगकर विशाल वृक्ष हो जाते हैं । अतः भगवान के भक्त को कभी भी कुसंग नहीं करना चाहिये ।
यदि अपने में कोई ऐसा स्वभाव हो तो उसे सन्त समागम द्वारा समझ विचार कर टाल देना चाहिये । इस तरह से उसे स्वभाव का नाश हो जाता है। परन्तु मूर्खतापूर्वक कितने भी उपाय करें तो उसका खराब स्वभाव नहीं मिट पाता। जो मूर्ख होते हैं वह जब उद्विग्न होते हैं तब वे या तो सो जाते हैं या रोते हैं या किसी से झगडा करते हैं या उपवास करते हैं । इस तरह से चार प्रकार से उद्विग्नता को टालने का प्रयास करते हैं । ऐसा करने पर भी यदि भारी उद्विग्नता बनी रहती है तो अन्त में वे मर भी जाते हैं । इस तरह से मूर्ख व्यक्ति अपनी बेचैनी दूर करने का प्रयास करता है । परन्तु ऐसा करने से दुःख भी नहीं मिटता और स्वभाव भी नहीं टलता । यदि समझ कर टाले तो दुःख और स्वभान दोनों टल जायें । अतः जो समझदार होते हैं वे ही सुखी होते हैं । जैसे अग्नि की बडी ज्वाला पर वर्षा का पानी पड जाय तो वह तुरन्त बुझ जाती है । परन्तु बिजली से उत्पन्न होने वाली अग्नि का प्रकाश भले ही थोडा दिखायी देता हो फिरभी वह मेघमंडल में रहते हुये भी बुझती नहीं है । वैसे ही बिना विवेक के चाहे कितना ही वैराग्य रहे और प्रीति हो भगवान में तो भी अग्नि की ज्वाला के समान कुसंग रुपी जल से उसका नाश हो जाता है । यदि विवेक युक्त वैराग्य और प्रीति हो तो बिजली की अग्नि के समान थोडी रहने पर भी उसका नाश नहीं होता ।
निर्विकारानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! यदि किसी पुरुष में क्रोधादि खराब स्वभाव हों तो वह टलते हैं या नहीं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जैसे बनिया व्यवहार करता है उसका हिसाब लिखकर रख लेता है । वैसे ही जिस पुरुष ने संग वाले दिन से अपना हिसाब लिख रख्खा हो उसका खराब स्वभाव मिट जाता है । फिर उसे यह विचार करना चाहिये कि 'जब मैंने सत्संग नहीं किया था तब मेरा इतना मलिन स्वभाव था । किन्तु सत्संग करने के बाद इतना स्वभाव उत्तम हुआ है ।' इस तरह उसे प्रतिवर्ष अपनी प्रगति या उसमें रहने वाले फर्क का अन्दाज लगाते रहना चाहिये । परन्तु मूर्ख बनिये जैसा आचरण नहीं करना चाहिये जो अपना हिसाब नहीं लिखता ।
इस प्रकार सत्संग करके जो पुरुष अपनी जाँच करता रहता है तो उसका खराब स्वभाव नष्ट हो जाता है ।
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'कुसंग होने पर तो खराब स्वभाव हो ही जाता है किन्तु सन्त समागम करने के बाद भी अगर मलिन स्वभाव हो जाता है तो उसका क्या कारण है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब बाल्यावस्था होती है तब काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु नहीं रहते हैं और भगवान से भी विशेष प्रीति बनी रहती है । जब युवावस्था आती है तब कामादिक शत्रु बढ जाते हैं तथा देहाभिमान भी बढ जाता है । बाद में यदि वह कामादिक शत्रुओं तथा देहाभिमान से रहित सन्त का समागम करता है तब युवावस्था रुपी समुद्र को पार कर लेता है । यदि वह ऐसा नहीं करता तो कामादि शत्रुओं द्वारा पराजित होने पर भ्रष्ट हो जाता है । जिसकी प्रौढावस्था हो और सत्संग करने पर भी यदि पथभ्रष्ट होता हो तो उसका कारण यह है कि ऐसा मनुष्य महापुरुषों में जिस-जिस तरह के दोषों की कल्पना करता है उस-उस प्रकार के दोष हृदय में आकर समा जाते हैं । यदि वह महापुरुषों के गुणों को ग्रहण कर ले और ऐसा माने कि 'महापुरुषों का जैसा स्वभाव है वह तो जीवों के कल्याण के लिये है, महापुरुष तो निर्दोष हैं और उनमें जो दोष दिखायी दें तो वह मेरी कुमति का दोष है ।' ऐसा विचार करके सत्पुरुषों के गुणों को ग्रहण करना चाहिये और अपने अपराध के लिये क्षमा मांगनी चाहिये तो उस पुरुष की मलिनता मिट जाती है ।'
महानुभावानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'राजसी, तामसी और सात्विक इन तीनों गुणों में स्वभाव साधना करने पर टल जाते हैं या नहीं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'ये समस्त स्वभाव टल जाते हैं ।'
महानुभावानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'यद्यपि दुर्वासा आदि मुक्त पुरुष हुए हैं फिर भी उनकी तामासिक वृत्ति क्यों रही है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'दुर्वासा आदि में जो तमो गुण आदि हैं। वे इसलिये हैं कि इन्हें वे स्वेच्छा से रखना चाहते हैं । वे ऐसा मानते हैं कि किसी भी कुसंगी व्यक्ति को शिक्षा देने के लिये हममें तमो गुण का रहना अच्छा है । इसलिये उन्होंने ऐसा समझकर ही यह गुण रख्खा है । यदि स्वयं में जो कुस्वभाव हो और उस पर अभाव आवे कि मैं भगवान का भक्त हूँ इसलिये मुझे ऐसा खराब स्वभाव नहीं चाहिये, तो उसे दोषरुप जानकर यदि उसका परित्याग करने की इच्छा करे तो भगवान के प्रताप से उस स्वभाव की निवृत्ति हो जाती है ।
इति वचनामृतम् ।।१८।। ।। ९६ ।।
।। श्री सारंगपुर प्रकरणम् समाप्तम् ।।