संवत् १८ के भाद्रपक्ष शुक्ल प्रतिपदा के दिन स्वामी श्री सहजानंद जी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम में जीवा खाचर के दरबार में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । वे समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
निर्विकारानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'साधु में कौन से गुण अखंड रहते हैं और कौन से गुण आते हैं जाते रहते है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'साधु में तो एक आत्मनिष्ठा, दूसरा स्वधर्म तथा तीसरा भगवान के स्वरुप का निश्चय, ये तीन गुण तो अखंड रहते हैं । अन्य गुण तो आ भी सकते हैं, और जा भी सकते हैं । दूसरे गुण तो आते-जाते रहते हैं । परन्तु ये तीन गुण अखंड रहते हैं ।'
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'यदि देह और आत्मा की भिन्नता को समझ लिया हो तब भी उसे भूलकर जीव पुनः देहाभिमानी कैसे होता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'देह और आत्मा की भिन्नता को एक बार यदि अच्छी तरह से समझ जाय तो वह पुनः विस्मृत नहीं होती । यदि वह यह माने कि 'मैं देह हूँ, तो भी उसे अपना रुप नहीं माना जा सकता । और भगवान का निश्चय भी एक बार दृढता से हो जाय तो पुनः टालने पर भी नहीं टलता। ऐसा लगता है कि आत्मबुद्धि मिटकर देहबुद्धि आ जाती है । यह तो मन में मिथ्या भ्रम रहता है । परन्तु देहबुद्धि नहीं आती । ऐसे परिपक्व ज्ञानी को तो आत्मा का ही अभिमान दृढ रहता है । वह अपनी आत्मा को ब्रह्मरुप मानता है । उस ब्रह्म में परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान अखंड विराजमान रहते हैं । उसे उस भगवान के स्वरुप का निश्चय भी अखंड ही रहता है ।
स्वयं प्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'अपनी आत्मा का विचार किस प्रकार करना चाहिये ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब अन्तकरण के सामने दृष्टा जीवात्मा सामने देखता रहता है तब बाह्य स्थूल शरीर सम्बन्धी विषय विस्मृत हो जाते हैं । तब अन्तःकरण तथा दृष्टा के बीच जो विचार बना रहता है उससे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि समस्त रुपों को जान लेना चाहिये । बाद में विचार की दृष्टि से उसे अन्तःकरण के संकल्पों का बल हो तब तक उनके सामने दृष्टि रखनी चाहिये । परन्तु ध्यान नहीं करना चाहिये । जब बाह्य स्थूल देह में पंचज्ञानेन्द्रियाँ अपने अपने विचारों की ओर होती है तब दो प्रकार से विचार करना चाहिए । इनमें से एक प्रकार तो यह है कि इन्द्रियाँ जिन विषयों के आकार में रही हों उन विषयों की दृष्टि से ही विचार करना चाहिये । दूसरा प्रकार यह है कि इन्द्रियों के गोलोक में जो दृष्टा है उसके आकार से ही विचार करना चाहिये । तब विषय के आकार और दृष्टा के आकार रुपी दो विचारों का एक विचार हो जाता है । तब जीव की वृत्ति उन विषयों से बिलकुल हट जाती है। यदि वह विचार किए बिना ही वृत्ति को जबरदस्ती से विषयों से हटाया गया तो विषयों में से उस वृत्ति की आसक्ति मिटती नहीं । यदि विचार पूर्वक वृत्ति को विषयों में से लौटा दिया जाय तो विषयों में पुनः उसकी आसक्ति नहीं रहती।
अतः जब तक इन्द्रियों की वृत्ति विषय सुख में प्रीति रखती हो तब तक भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिये । जब बाह्य स्थूल देह में दृष्टा हो तब इस बात का स्पष्ट विभाग कर देना चाहिये कि स्थूल देह से वर्ताव करते समय सूक्ष्म देह के संकल्पों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये । जब अन्तःकरण के सम्मुख देखना हो तो स्थूल देह को भुला देना चाहिये । तब दृष्टा और दृष्य के मध्य में विचार द्वारा यह समझना चाहिए कि 'दृष्टा चैतन्य के भावों का चैतन्य में लय कर दें । बाल्यावस्था, यौवन, वृद्धावस्था, स्थूलता, कृशता, जीवन, मरण देह के भाव हैं । इन्हें आत्मा में नहीं मानना चाहिये । अछेद्य, अभेद्य, अजर, अमर, ज्ञानरुप, सुखरुप और सत्तारुप आत्मा के भाव हैं । इन्हें कभी भी देह से सम्बन्धित नहीं समझना चाहिये । ये गुण आत्मा है ऐसा समझना चाहिये । ऐसे संकल्प का बल जब तक रहे तब तक इस विचार का त्याग नहीं करना चाहिये । जैसे कोई राजा हो तो वह बलशाली शत्रु के रहते हुये राजगद्दी पर बैठ कर सुख नहीं भोग सकता । परन्तु शत्रु का नाश होने पर ही वह अपने राज्य के वैभव का उपभोग करता है । वैसे ही भगवान के भक्त को मन तथा इन्द्रिय रुपी शत्रुओं द्वारा पीडित किये जाने तक उपरोक्त विचारों को दृढता पूर्वक रखना चाहिये । जब मन और इन्द्रियों के संकल्पों का शमन हो जाय तब परमेश्वर के स्वरुप का ध्यान करना चाहिये ।
इति वचनामृतम् ।। १२ ।। ९० ।।