संवत् १८ की श्रावण कृष्ण अमावस्या को स्वामी श्री सहजानन्द जी महाराज श्री सारंगपुर ग्राम में जीवा खाचर के दरबार में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे और सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखार विन्द के आगे मुनियों तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी।
मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'शास्त्रों में पुरुषार्थ का उल्लेख है । पुरुष प्रयत्न द्वारा कितना काम होता है और परमेश्वर की कृपा द्वारा कितना काम होता है ?
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे सदगुरु तथा सत् शास्त्रों के वचनों द्वारा दृढ वैराग्य प्राप्त हुआ हो और जो दृढ श्रद्धावान हो, और जिसने आठ प्रकार के ब्रह्मचर्य का अत्यन्त दृढता के साथ पालन किया हो, जो अहिंसा के साथ पालन किया हो जो अहिंसा धर्म में दृढ प्रीति रखता हो और जिसकी आत्मनिष्ठा भी अत्यन्त परिपक्व हो तो उसको जन्म-मरण से निवृत्ति हो जाती है । जैसे धान के ऊपर का छिलका उतर जाने पर फिर से धान नहीं उगता वैसे ही उपर्युक्त गुणों से व्यक्ति अनादि अज्ञानरुप माया से मुक्त हो जाता है तथा जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है और आत्म सत्ता को प्राप्त करता है । इतना तो पुरुष प्रयत्न द्वारा होता है । जो व्यक्ति ऐसे लक्षण से युक्त होता है उस पर परमेश्वर की कृपा भी होती है । जो व्यक्ति ऐसे लक्षण से युक्त होता है उस पर परमेश्वर की कृपा भी होती है । परमेश्वर की कृपा होने पर वह भगवान का एकान्तिक भक्त भी हो जाता है । यह श्रुति में भी कहा गया है 'निरंजनः परमं साम्यमुपैति' इस श्रुति का अर्थ है कि अंजन रुप माया से रहित व्यक्ति भगवान की तुल्यता को प्राप्त करते हैं । जिस प्रकार से भगवान शुभ-अशुभ कर्मो के बन्धन में नहीं रहते हैं उसी तरह से मुक्त भी शुभ-अशुभ कर्मो के बन्धन में नहीं फसते हैं। जैसे लक्ष्मीजी कभी तो अत्यन्त स्नेहपूर्वक भगवान में लीन हो जाती है, और कभी तो अलग रहकर भगवान की सेवा में रहती है । इसी तरह से भक्त भी अतिशय स्नेहपूर्वक भगवान में लीन हो जाता है, और कभी तो मूर्तिमान रुप से भगवान की सेवा में रहता है । जैसे भगवान स्वतन्त्र हैं वैसे ही वह भगवान का भक्त भी स्वतन्त्र होता है । इस प्रकार का सामर्थ्य तो भगवान की कृपा से ही प्राप्त होती है ।'
नित्यानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - ''जिसमें ये समस्त अंग सम्पूर्ण हो उस पर तो भगवान की कृपा होती है । यदि किसी अंग में न्यूनता हो तो उसकी कौन सी गति होती है ?''
श्रीजी महाराज बोले कि - 'वैराग्य, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा अहिंसा-धर्म तथा आत्मनिष्ठा में से किसी अंग की न्यूनता हो तो व्यक्ति भगवान के आत्यन्तिक मोक्षदाता अक्षरधाम को नहीं प्राप्त कर सकता है । इसके अलावा जो भगवान के धाम हैं, उसकी प्राप्ति करता हो । यदि वह अधिक सवासनिक हुआ तो देवलोक को पाता है । मोक्ष धर्म में देवलोक को भगवान के धाम की तुलना में नरक तुल्य कहा गया है । वह व्यक्ति पहले देवताओं में से मनुष्य होता है और मनुष्यों में से फिर देवता हो जाता है । 'अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्' इस श्लोक का भी यही अर्थ है कि जो भगवान का सवासनिक भक्त हो तो नर्क चौरासी लाख योनियों में तो न जाय परन्तु देवलोक तथा मनुष्यलोक में उसे अनेक जन्म धारण करने पडते हैं । उसके बाद पूर्वोक्त कहे वैराग्य आदि लक्षणों से युक्त हो जाता है । तब भगवान की कृपा का पात्र होता है और बाद में भगवान का एकान्तिक भक्त होकर भगवान के गुणातीत अक्षरधाम को प्राप्त कर लेता है । अतः एक जन्म में अथवा अनेक जन्मों में जिस दिन प्रथम कहे ऐसे लक्षणों में युक्त होकर अत्यन्त निर्वासनिक होगा तभी भगवान की कृपा का पात्र होगा । तथा आत्यंतिक मोक्ष को प्राप्त होगा । परन्तु उसके बिना तो नहीं प्राप्त कर सकता है ।''
नृसिंहानंद स्वामी ने पूछा कि - 'इस शरीर द्वारा ही सभी कमियों से मुक्त हो जाय ऐसा कौन सा उपाय है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यदि जीव सावधान होकर अपनी साधना में जुट जाय तो इस देह के द्वारा ही सब कसर मिट सकती है । यदि देह पर्यन्त कसर न मिटी हो तो भी वह अन्त समय में निर्वासनिक हो जाय या भगवान से अत्यन्त प्रीतिवान हो जाय तो अन्तकाल में भी भगवान की कृपा हो जाती है और वह भगवान के धाम को प्राप्त कर लेता है । अतः एक देह में अथवा अनन्त देह में अथवा अन्त समय में मृत्यु के बीच एक घडी बाकी रही हो उस समय भी भगवान में उसकी दृढ वृत्ति हो जाय तो उस भक्त में किसी प्रकार की कमी नहीं रहती ।'
इति वचनामृतम् ।। ११ ।। ८९ ।।