।। श्री स्वामिनारायणो विजयतेतराम् ।।
।। श्री पंचाला वचनामृतम् ।।
संवत् १८ के फाल्गुन महीने की शुक्ल चतुर्थी के दिन श्रीजी महाराज ग्राम श्री पंचाला में झीणाभाई के दरबार में चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था तथा श्वेत अंगरखा पहना था और श्वेत दुपट्टा धारण किया था और सफेद पिछौरी ओढी थी तथा मस्तक पर फेंटे की किनारी दाहिनी ओर लटक रही थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंस तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
उस समय संध्या आरती होने के पश्चात् श्रीजी महाराज तकिये पर विराजमान होकर बोले कि - 'मैं आप समस्त बडे परमहंसों तथा बडे हरिभक्तों से प्रश्न पूछता हूँ कि - 'भगवान में हेत हो और धर्म में दृढता हो तो भी यदि कोई भक्त विचारवाला न हो तो अत्यंत अच्छे शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध ये पाँच विषय बहुत बुरे शब्दादिक पंच विषय समान नहीं होते अथवा उनसे निम्न भी नहीं होते । अतः किस विचार को प्राप्त करने पर अति श्रेष्ठ पंचविषय अत्यंत कुत्सित पंचविषय के समान हो जाते हैं, अथवा उनसे भी बुरे हो जाते हैं ?' यह प्रश्न हम समस्त बडे परमहंसों से तथा हरिभक्तों से पूछते हैं । जिसने जिस विचार द्वारा इन अच्छे पंचविषयों को खराब पंचविषयों के समान जाना हो अथवा अत्यन्त बुरा जाना हो तो जो आप लोगों के अपने विचार हैं उन्हें कहें ।' तब समस्त परमहंसों ने तथा हरिभक्तों ने अपने अपने विचार प्रगट किये।
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'आप सब लोगों के विचार को हमने सुना, अब हम अपने विचार कहते हैं । जब परदेश से किसीका कोई पत्र आता है तो उसे पढकर पत्र लिखनेवाले की जैसे बुद्धि होती है वह पता चल जाता है । जैसे पांच पांडव द्रौपदी, कुन्ताजी, रुकमणी, सत्यभामा, जांबवती आदि भगवान की पटरानियों तथा साबं नामक पुत्र आदि भक्तों के रुपों एवं वचनों का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है । उन शास्त्रों को सुनकर उनके रुप का प्रमाणदर्शन जैसा ही होता है और उनके वचनों से उनकी बुद्धि का प्रमाण मिलता है । वैसे ही पुराणों भारतादि ग्रंथों द्वारा यह सुनने में आता है कि - 'भगवान ही इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं । सदा साकार हैं । यदि वह साकार न हों तो उन्हें कर्ता नहीं कहा जा सकता । जो अक्षर ब्रह्म है वह तो भगवान के रहने का धाम है, ऐसी दिव्यमूर्ति, प्रकाशमय, सुखरुप भगवान प्रलयकाल में कारण शरीर सहित माया में लीन रहते हुए जीव की उत्पतिकाल में बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण अर्पित करते हैं । तो किस कारण से अर्पित करते हैं? वह उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ विषयों के भोग तथा मोक्ष के लिए अर्पण करते हैं । उन जीवों के लिए ऐसे भोगों तथा भोग के स्थानों की भगवान ने रचना की है । उसमें जो उत्तम पंचविषय किये हैं वे बुरे पंचविषय के दुःखों से निवृत्ति के लिए किये हैं । जैसे कोई बडा साहूकार हो वह रास्ते के दोनों किनारों पर छायादार वृक्ष लगवाता है तथा पानी के लिए जगह जगह प्याऊ की व्यवस्था रखता है तथा अन्नक्षेत्र खुलवाता और धर्मशाला बनवाता है यह सब वह गरीबों की भलाई के लिए करता है । वैसे ही ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्रादि देव तो उस भगवान के आगे संवत १८४ में पडे अकाल के समय के उन गरीबों जैसे हैं जो पीपल के फल को उबालकर खाते थे । ब्रह्मादिक देवों तथा मनुष्यों के सुख के लिए भगवान ने ऐसे उत्तम पंचविषयों की रचना की है । जैसे साहूकार ने गरीबों की सुविधा के लिए भोजनालय तथा धर्मशाला आदि की व्यवस्था कर रखी है । उसकी अपेक्षा उनके घर में अति उत्तम व्यवस्था होगी वैसे ही भगवान ने ब्रह्मादिक देवों के लिए जैसे सुख की व्यवस्था की है । उससे उत्तम उनके धाम में सुख उपलब्ध होगा । जो बुद्धिमान होते हैं वे इस बात को जानते हैं । अतः उन्हें अच्छे विषय भी बुरे लगते हैं ।'
'संसार में पशुओं, मनुष्यों, देवताओं तथा भूतों आदि में जहाँ-जहाँ भी पंचविषय सम्बन्धी सुख दिखाई देता है वह सुख धर्म सहित भगवान के साथ सम्बन्ध द्वारा होता है । परन्तु भगवान में जैसा सुख है वह कहीं नहीं है । जैसे यह मशाल जलती है और उसके समीप जैसा प्रकाश रहता है वैसा प्रकाश उससे थोडी दूर जाने पर नहीं रहता, और उससे थोडा अधिक दूर जाने पर बिलकुल नहीं रहता । वैसे ही अन्य स्थल पर किंचित सुख मिलता है, परन्तु संपूर्ण सुख भगवान के समीप में मिलता है । परन्तु भगवान से जितना दूर रहा जाता है सुख में उतनी न्यूनता रहती है । अतः मुमुक्षु जनको अपने हृदय में ऐसा विचार करना चाहिए कि - 'मैं भगवान से जितना दूर रहूँगा उतना ही दुःख मुझे होगा और मैं महा दुःखी हो जाऊँगा और भगवान के साथ थोडा सम्बन्ध होने से ऐसा सुख मिलता है । अतः भगवान के साथ अधिक सम्बन्ध बनाये रखेंगे तो मुझे उत्कृष्ट सुख की प्राप्ति होगी ।' ऐसा विचार करके और भगवान के सुख का लोभ रखकर जो भक्त भगवान के साथ अतिशय सम्बन्ध रखने का उपाय करता है उसे बुद्धिमान कहा जाता है ।'
'पशु से ज्यादा सुख के मनुष्य में सुख है, उससे अधिक राजा का सुख, उससे अधिक देवता का सुख, उससे अधिक इन्द्र का सुख, उससे अधिक बृहस्पति का सुख, उससे अधिक ब्रह्मा का सुख, उससे अधिक बैकुंठ का सुख, उससे अधिक गौलोक का सुख और भगवान के अक्षरधाम का सुख अत्यंत अधिक है । इस तरह से भगवान के सुख को जानकर बुद्धिमान पुरुष को पंचविषय के सुखमें तुच्छता प्रतीत होती है । भगवान के सुख के समक्ष ब्रह्मादिक का सुख तो वैसा है जैसा कि सम्पन्न गृहस्थ के घर पर कोई रंक ठीकरा लेकर भीख माँगने आया हो । ऐसे भगवान के धाम में सुख का जब विचार करते हैं तब अन्य सुखों से उदासीनता आ जाती है और मन में ऐसा विचार आता है कि - 'इस देह का परित्याग करके उस सुख को कब प्राप्त करेंगे ?' स्वाभाविक रुप से पंचविषयों को ग्रहण करते हुए उन पर कोई विशेष विचार नहीं होता। परन्तु उन विषयों में कुछ सार होता है तब तुरन्त ही भगवान के सुख की ओर दृष्टि पहुँच जाती है, और मन अत्यंत उदास हो जाता है । यह समस्त बात बुद्धिमान पुरुष ही समझ पाता है । अतः बुद्धिमान के साथ मुझे हेत है क्योंकि हम बुद्धिमान हैं इसलिए मेरी दृष्टि ऐसे पहुँचती है । अतः बुद्धिमान की दृष्टि वहाँ जरुर पहुँचती है । इस प्रकार का जो मेरा विचार है वह आप सबके विचारों की अपेक्षा हमें अधिक ज्ञात होता है । इसलिए आप सब मेरे इस विचार को अत्यन्त दृढता से हृदय में रक्खें । इस विचार के अतिरिक्त यदि रमणीय पंचविषयों में वृत्ति लगी हो तो अपनी मनोवृत्ति को बलपूर्वक हटाया जाये तब वह बडी मुश्किल से हट पाती है । यदि यह इस प्रकार से प्राप्त किया हो तो उसकी मनोवृत्ति को खींचने में लेशमात्र भी प्रयास नहीं करना पडता । सहसरुप से विषयों की तुच्छता दिखने लगती है । यह जो वार्ता है वह जिसमें अधिक बुद्धि है और अधिक सुख की इच्छा है उसे वह समझ सकता है । जैसे कौडी की अपेक्षा पैसा उससे ज्यादा रुपया, उससे ज्यादा स्वर्णमुद्रा और उससे अधिक चिन्तामणि का महत्व अधिक है । उसी तरह से जो पंचविषयों का सुख है उससे विशेष भगवान के धाम में भगवान का सुख अधिक है । अतः जो बुद्धिमान हो और जिसकी दृष्टि भगवान के सुख में पहुँचती है उसीके हृदय में यह विचार ठहर सकता है । जिसके हृदय में यह विचार दृढ रुप से स्थिर हो गया हो वह वन में बैठा हो तो यह समझता है कि - 'मैं असंख्य मनुष्यों तथा राज्य समृद्धि से घिरा हुआ हूँ । ऐसा समझकर स्वयं को दुःखी नहीं पाता है । यदि वह इन्द्रलोक में हो तो उसे वह समझना चाहिए कि - 'मैं वन में बैठा हूँ ।' परन्तु इन्द्रलोक के सुखों से सुख नहीं मानना चाहिए, उस सुख को तुच्छ समझना चाहिए । अतः इस विचार को रखकर ऐसा निश्चय करना चाहिए कि - अब तो हमें सीधे भगवान के धाम में पहुँचना है। परन्तु बीच में किसी स्थान पर तुच्छ पंचविषय सम्बन्धी सुख में नहीं फँसना है । इस तरह से सबको दृढ निश्चय रखना चाहिए । यह जो हमारा सिद्धांत है उसे हमने आप सबको बताया है अतः दृढतापूर्वक इसे रखिएगा ।'
इति वचनामृतम् ।।१।। ।। १२७ ।।