वचनामृतम् २

संवत् १८ के फाल्गुन शुक्ल की सप्तमी के दिन ग्राम श्री पंचाला में झीणाभाई के दरबार में चबूतरे पर पलंग बिछा था । उस पर श्रीजी महाराज विराजमान थे । उन्होंने सफेद फेंटा मस्तक पर बाँधा था तथा सफेद दुपट्टा धारण किया था तथा सफेद पिछौरी ओढी थी । श्रीजी महाराज के मुखारविन्द के आगे परमहंसों की तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । 
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'मोक्षधर्म की पुस्तक मंगवाइये तो सांख्य के अध्याय की तथा योग के अध्याय की कथा करवाएँ ।' यह वचन सुनकर पुस्तक मंगवाई गई । नित्यानंद स्वामी ने कथा करना प्रारम्भ किया । श्रीजी महाराज बोले कि - 'योग मत वाले जीव और ईश्वर तत्व को पच्चीसवाँ कहते हैं और परमात्मा को छब्बीसवाँ कहते हैं । सांख्य मत वाले चौबीस तत्वों में जीव और ईश्वर की गणना करते हैं और पच्चीसवाँ परमात्मा को कहते हैं । उसमें जो योग मत वाले हैं वे आत्मा अनात्मा के सम्बन्ध में चाहे कैसा विचार करें साधना करें, परन्तु प्रत्यक्ष भगवान का आश्रय किये बिना मोक्ष नहीं होता । सांख्य मत वाले मानते हैं कि जो व्यक्ति समस्त देव, मनुष्य आदि की गतियों को जानकर और विषयों में वैराग्य प्राप्त करके तीनों देहों से परे आत्मा को जानता है तब वह मुक्त हो जाता है । ये दो प्रकार के जो मत हैं उनमें जो दूषण हैं, उनका निवारण करने के लिए युक्ति ग्रहण करनी चाहिए । योग मत में यह दूषण है कि उसमें जीव और ईश्वर को पच्चीसवाँ बताया गया है और जीव एवम् ईश्वर का भी चौबीस तत्वों का शरीर कहा गया है । अतः इन दोनों में तुल्यात्मक भाव आ जाये कि स्थूल और विराट, सूक्ष्म एवम सूत्रात्मा, कारण तथा अव्याकृत, जागृत और स्थिति अवस्था, स्वप्न एवं उत्पत्ति अवस्था, सुषुप्ति और प्रलय अवस्था, विश्व तेजस और प्राज्ञा तथा विष्णु, ब्रह्मा, शिव तुल्य हैं । ऐसा समझकर वे छब्बीसवें भगवान को भजते हैं । इस प्रकार से जीव और ईश्वर में तुल्यभाव रुप से दोष है उसे टालने के लिए किसी तत्वज्ञानी के पास युक्ति सीखनी चाहिए ।' ईश्वर की देह में जो पंचभूत रहे हैं उनकी महाभूत संज्ञा है । वे भूत समस्त जीवों के शरीरों को धारण करके रहे हैं । जीवकी देह में जो पंचभूत हैं वे अल्प हैं तथा दूसरे को धारण करने में समर्थ नहीं है । जीव अल्पज्ञा है, ईश्वर सर्वज्ञा  है । इस प्रकार की युक्ति सीखकर जीव और ईश्वर में समता नहीं समझनी चाहिए। यदि ऐसी युक्ति न सीखी हो और कोई प्रतिवादी प्रश्न पूछे तो उसे उत्तर देने में कठिनाई होती है तथा बुद्धि भ्रमित हो जाती है । यदि और कोई प्रश्न करे तो उसमें जीव और ईश्वर में समानता नहीं रहने देनी चाहिए । अतः ऐसी युक्ति सीखनी चाहिए कि जीव और ईश्वर में समानता न आये और इसी प्रकार का वचन भी सुनना चाहिए । सांख्य मत में यह दोष है कि उसमें चौबीस तत्त्व कहे गये हैं और पच्चीसवाँ परमात्मा कहा है । तो उन चौबीस तत्वों को मिथ्या कहा गया है और परमात्मा को सत्य कहा गया है । तब उन परमात्मा को कौन प्राप्त करता है ? क्योंकि प्राप्त करनेवाले जीव को तत्वों से भिन्न नहीं कहा गया है । अतः यह जो दूषण है उसे समाप्त करने के लिए तत्वज्ञानी से युक्ति सीखनी चाहिए - 'यह चौबीस तत्व कहे गये हैं वे जीवविहीन नहीं हो सकते । अतः तत्व के साथ जीव और ईश्वर को कहा गया है । वह जीव और ईश्वर उन तत्वों से पृथक हैं और परमात्मा को पाते हैं ।' यदि यह युक्ति न सीखी हो और कोई प्रतिपक्षी प्रश्न पूछे तो संशय होता है कि - 'तत्व तो मिथ्या है तब परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य आदि धर्म कहे गये हैं श्रवण, मनन, निधिध्यासन आदि साधन कहे गये हैं, वह किस प्रयोजन से कहे गये हैं ?' अतः तत्त्वों के तदात्मक-भाव को प्राप्त जीव और ईश्वर को तत्वरुप में बताया गया है परन्तु वे तत्वों से अतिविलक्षण हैं और वे परमात्मा को प्राप्त करते हैं । इत्यादि जो युक्तियाँ हैं उन्हें बडे संत द्वारा सांख्य मतवालों को सीखनी चाहिए । योग मतवाले जो हैं वे भगवान के प्रत्यक्ष मूर्तिवाले मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, राम, कृष्ण आदि जो अवतार हैं उनका ध्यान करने से मोक्ष होता है ऐसा मानते हैं । सांख्य मत वाले मानते हैं कि - 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' इत्यादि श्रुति शास्त्र द्वारा भगवान का जो स्वरुप बताया गया है उसके अनुभव से यथार्थ ज्ञान होने पर मोक्ष होता है । ऐसी युक्ति को ग्रहण करते हैं । ये जो दो मत हैं वे अच्छे हैं और तत्वज्ञानियों द्वारा मान्य हैं । अतः इन दोनों मतों का जो यथार्थ रुप से पालन करता है उसे परमगति प्राप्ति होती  है । इन दोनों मतों में समान साधन बताये गये हैं । परन्तु उपासना की रीति समान नहीं हैं । अत्यन्त पृथक है ।'
         
इस प्रकार की वार्ता करके श्रीजी महाराज परमहंसों से बोले - 'अब कीर्तन गाइये ।' इसके पश्चात मुक्तानन्द आदि परमहंस वाद्य यंत्र लेकर कीर्तन गाने लगे तब श्रीजी महाराज पुनः बोले कि - 'अब कीर्तन बंद करिए, आप जब तक कीर्तन गा रहे थे तब तक मैं सांख्य और योग दोनों के सिद्धांत पर विचार किया है उसे कहते हैं, सुनिये । योगवालों का मत है कि आत्यन्तिक प्रलय के समय अक्षरधाम में भगवान की जो तेजोमय दिव्य मूर्ति रही है वह ध्यान करने के योग्य है और उससे बढकर प्रकृत पुरुष भगवान का ध्यान करने योग्य है। और उससे भी विशेष प्रकृत पुरुष के कार्य चौबीस तत्वरुपी भगवान ध्यान करने योग्य है । हिरण्य, गर्भ और उसके समीप चौबीस तत्वों से उत्पन्न विराट ध्यान करने योग्य है । ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा पृथ्वी पर जो मत्स्य कूर्म, नृसिंह, वराहादिक भगवान के अवतार तथा शालिग्राम आदि प्रतिमाएँ सभी ध्यान करने योग्य हैं। ऐसा योग मत वालों का तात्पर्य है । सांख्यमत में यह विचार आया कि आकार मात्र का खण्डन कर दिया है और ऐसा प्रतीत हुआ कि - इन सबका विचार करनेवाला जो जीव है उसके समान कोई शुद्ध नहीं है । अतः जीव का ध्यान करना ठीक है, इस प्रकार सांख्य मत को टालने के लिये योग मत का विचार आया कि ऐसे परात्पर पुरुषोत्तम भगवान उनका यह प्रकृति पुरुष आदि में अन्वय भाव हैं अतः वे सभी भगवान ही हैं, दिव्यरुप हैं, सत्य हैं, एवम् ध्येय हैं । इस बात को दृढ करने के लिए श्रुति है जिसमें - सर्व, खलिवदं ब्रह्म 'नेह नानास्ति किंचन' तथा इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो यतो जगत्स्थाननिरोधसंभवाः कहा है इस प्रकार से जो योगमार्ग है इस में प्रवृत मुमुक्षु को कोई बाधा नहीं आती क्योंकि वह मार्ग स्थूल है और उसमें प्रत्यक्ष मूर्ति भगवान का आलंबन है । अतः वह जैसा तैसा होते हुए भी उस मार्ग द्वारा निर्विघ्न होकर मोक्ष को प्राप्त करता है । परन्तु उस मार्ग में यह दोष है कि उन सबसे परे जो पुरुषोत्तम भगवान हैं, उन्हें प्रकृति पुरुष आदि को अंश-अंशीभाव आ जाता है । जो भगवान के अंश प्रकृतिपुरुष हैं उनके अंश हिरण्य, गर्भ और विराट आदि हैं । इस प्रकार से समझा जाय तो बडा दोष होता है क्योंकि भगवान अच्युत, निरंश, निर्विकार, अक्षर और अखण्ड हैं । अतः उनके विषय में च्युतभाव तथा अंश-अंशीभाव का दोष नहीं आने देना चाहिए, और ऐसा समझना चाहिए कि - 'भगवान के समान तो भगवान ही हैं अन्य प्रकृति पुरुष आदि उनके भक्त हैं और उनका ध्यान करते हैं । अतः वे भी भगवानरुप हैं । जैसे कोई बडे सन्त हों और भगवान का ध्यान करते हों उन्हें भगवानरुप माना जाता है । उसी तरह से प्रकृति पुरुष आदि भी भगवानरुप हैं और उन सबसे परे पुरुषोत्तम, श्रीकृष्ण, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धरुप होते हैं तथा राम, कृष्ण आदि अवतारों को ग्रहण करते हैं, वे ध्यान करने योग्य है ।' ऐसा समझें तो योगमार्ग अत्यन्त निर्विघ्न और श्रेष्ठ है । सांख्यमत में यह दोष है कि वह कहते हैं कि - 'अंतःकरण तथा इन्द्रियों द्वारा जो-जो ग्रहण किए जाते हैं वे सब मिथ्या हैं और जो अनुभव द्वारा ग्रहण किया जाता है वह सत्य है ।' इस तरह से आकार मात्र को मिथ्या कर डालता है तथा उसके साथ जीव के कल्याण के लिए प्रकट हुए भगवान के रुप को भी मिथ्या करते हैं तथा अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण के रुपों को भी मिथ्या करते हैं और केवल वासुदेव को ही ग्रहण करते हैं ऐसा यह बडा दोष है अतः वह सांख्य मत वाले ऐसा समझें तो ठीक रहेगा कि - 'सांख्या विचारको ग्रहण करके प्रकृतिपुरुष जो जो उत्पन्न हुआ उसे मिथ्या करके अपनी आत्मा को सबसे पृथक शुद्ध ब्रह्मरुप मानकर उसके बाद जीव के कल्याण के लिए प्रकट हुए भगवान के रुप को सत्य जानकर उनका ध्यान करना चाहिए ।' इस प्रकार से जो दो प्रकार के विचार हैं उन्हें कोई यदि हमारे जैसे बुद्धिमान के पास सीखे, तब उसे समझ में आये नहीं तो शास्त्र को पढने और सुनने में भी वह समझ में नहीं आता । ऐसा है कि 'प्रथम सांख्य विचार द्वारा जो ब्रह्मरुप हुआ हो उसके लिए योग का यह उपदेश है जिसमें कहा गया है कि -

'ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु भद्भक्तिं लभते पराम् ।।''
          तथा
'आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरु क्रमे ।
कुर्वन्त्यहेतुकीं भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः ।।
परिनिष्ठतो।पि नैगुण्ये उत्तमश्लोकलीलया ।
गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान ।।'
         
इस प्रकार से सांख्यमत को योग की अपेक्षा रहती है, क्योंकि ये सांख्य मतवाले विचार करे अपनी आत्मा से व्यतिरिक्त पंच इन्द्रियों तथा चार अन्तःकरणों द्वारा भोग्य विषयभोगों को अत्यन्त तुच्छ जानते हैं । अतः वे किसी पदार्थ से बंधते नहीं हैं और उन्हें न किसी पदार्थ से आश्चर्य होता है । उनके पास आकर यदि कोई कहता है कि - 'यह पदार्थ तो बहुत अच्छा है ।' तब वे ऐसा विचार करते हैं कि - 'चाहे पदार्थ कितना ही अच्छा होगा परन्तु इन्द्रियों तथा अन्तःकरण द्वारा ग्रहण करने में आये ऐसा होगा और अन्तःकरण द्वारा जो ग्रहण करने में आता है वह असत्य है, नाशवंत है ।' ऐसी दृढ समझदारी सांख्यमत में होती है और वे अपनी आत्मा को शुद्ध मानते हैं । ऐसे सांख्य मतवाले को योग मार्ग द्वारा भगवान की उपासना, ध्यान, भक्ति करनी चाहिए यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनमें न्यूनता आती है ।'
         
'इस प्रकार से सांख्यशास्त्र तथा योगशास्त्र के जो सनातन सिद्धान्त हैं, उनका यथार्थ विचार करके हमने बताया है । जो आधुनिक योगवाले तथा सांख्य योगवाले हैं, उन्होंने इन दोनों मार्गो को दूषित कर दिया है । जो योगमतानुयायी हैं वे जब भगवान को साकार समझते हैं तब अन्य जीवों तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा राम, कृष्ण आदि अवतारों के समान भगवान के आकार को मानते हैं । सांख्य मतवाले उस आकार का खण्डन करते हैं उसके साथ तीर्थ, व्रत, प्रतिमा, यम, नियम, ब्रह्मचर्य आदि धर्म तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा रामकृष्ण आदि समस्त अवतारों का भी खण्डन करते हैं । अतः आधुनिक सांख्य मतवाले तथा योग मत वाले दोनों ही मार्ग को छोडकर कुमार्ग पर चले जाते हैं । अतः वे नाट्कीय होते हैं ।

इति वचनामृतम् ।।२।। ।। १२८ ।।