संवत् १८ के कार्तिक कृष्णपक्ष स्री त्रयोदशी के दिन श्रीजी महाराज श्री लोया ग्राम स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में रात्रि के समय पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सफेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और रुई से भरा सफेद चूडीदार पायजामा धारण किया था । मस्तक पर सफेद फेंटा बांधा था। श्वेत दुपट्टा ओढा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देशान्तर के सत्संगियों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज से भगवदानन्द स्वामी तथा शिवानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'जिसे माहात्म्य ज्ञान सहित भगवान और सन्त का निश्चय हो गया हो उसके क्या लक्षण हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे माहात्म्य ज्ञान सहित भगवान एवं सन्त सम्बन्धी निश्चय हो गया हो वह भगवान तथा सन्त के लिए क्या नहीं कर सकता ? उनके लिए वह कुटुंब लोकलज्जा, राज्य, सुख, धन, तथा स्त्री का त्याग कर सकता है और यदि स्त्री है तो पुरुष का त्याग कर सकती है ।' इतना कहकर उन्होंने समस्त हरिभक्तों की बातें एक-दूसरे से कहीं ।
डडुसर ग्रामवासी राजपूत गलुजी, धर्मपुरवाली, कुशलकुंवरबाई, पर्वतभाई, राजबाई, जीवुबा, लाडुबा, बडी रामबाई, दादाखाचर, मायाभक्त, मूलजी ब्रह्मचारी, भुजवाली लाधीबाई और माताजी, मुक्तानण्द स्वामी, वालाक प्रान्त के अहिर पटेल सामंत, मानकुंआ ग्राम के मूलजी, कृष्णजी तथा बालाक प्रान्त के गुन्दाली ग्राम के दो काठी हरिभक्त आदि जिन सत्संगियों ने भगवान और सन्त के लिए जो जो कार्य किया उसे विस्तृत रुप से वर्णन करते हुए कहने लगे कि जिसको माहात्म्य ज्ञान सहित भगवान सम्बन्धी निश्चय हो जाता है वह भगवान के वचन में किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं आने देता है और उनके कहने के अनुसार ही कार्यरत रहता है । इस सम्बन्ध में उन्होंने अपनी बात भी कही कि हमारा स्वभाव तो ऐसा था कि एक स्थान पर गौदोहन मात्र तक ही रुक पाते थे इससे ज्यादा नहीं रुक पाते थे । हम ऐसे त्यागी थे और हममें वैराग्य भी अत्यन्त था और रामानन्द स्वामी पर हमारा असाधारण स्नेह था । तब भी स्वामी ने भुजनगर से यह कहलवा कर भेजा कि 'यदि सत्संग में रहने की गर्ज हो तो आज्ञा होने पर खम्भे को बांहों में पकडकर रहना पडेगा ।' ऐसा मयाराम भट्ट ने आकर कहा । तब हमने खंभे को बांहों में पकड लिया । इसके बाद उन्होंने कहा कि 'मुक्तानन्द स्वामी की आज्ञा में रहिये ।' तब हम स्वामी जी के दर्शन होने से पहले ९ महिने तक मुक्तानन्द स्वामी की आज्ञा में रहे । जिसे भगवान तथा सन्त सम्बन्धी निश्चय हो गया हो, उसकी जानकारी ऐसे लक्षणों से हो सकती है ।
इसके बाद श्रीजी महाराज ने सुन्दरजी बढई और डोसा बनिये की बात कही । जिसको भगवान तथा सन्त सम्बन्धी निश्चय हो जाय उसको भगवान की प्राप्ति के आनन्द का नशा रहता है । इतना कहकर उन्होंने राणा राजगुर तथा प्रहलादजी की बात कही । प्रहलादजी ने नृसिंहजी से कहा कि - हे महाराज! मैं आपके इस विकराल रुप से नहीं डरता हूँ आपने जो मेरी रक्षा की है उसे मैं रक्षा नहीं मानता । आप जब इन्द्रियरुपी शत्रुओं से मेरी रक्षा करेंगे तब मैं समझूँगा कि आपने रक्षा की है ।
अतः भगवान के भक्त दैहिक रुप से भगवान द्वारा रक्षा किये जाने पर प्रसन्न नहीं होते और न ही शोक करते हैं और अलमस्त होकर भगवान का भजन ही करते रहते हैं और भगवान तथा संत का माहात्म्य भी अधिकाधिक जानते हैं । इस सम्बन्ध में श्रीजी महाराज ने कठलालवासी वृद्धा की बात कही । इस प्रकार के हरिभक्त की देह पैर की ठोकर लगने से गिर पडे, उसे बाघ खा जाय, सांप काट ले, शस्त्र से चोट लगे, जल समाधि हो जाय या चाहे किसी भी तरह से अपमृत्यु द्वारा शरीर त्याग हो जाय तो भी वह यही समझता है कि - 'भगवान के भक्त की दुर्गति होती ही नहीं है । वह तो भगवान के धाम को ही प्राप्त होता है ।' परन्तु भगवान से विमुख रहने वाले व्यक्ति का शरीर त्याग अच्छी तरह से हो जाय और उसे चन्दन की लकडियाँ द्वारा संस्कारपूर्वक दाह संस्कार किया जाय तो भी वह निश्चय ही यमपुरी में जाता है । इन दोनों बातों को अच्छी तरह से समझना चाहिए । इस तरह से जिसके हृदय में पक्की गाँठ लग जाती है, उसे भगवान तथा सन्त के सम्बन्ध में माहात्म्य सहित निश्चय हो गया है ऐसा मानना चाहिए । ऐसा निश्चयवाला व्यक्ति निश्चित रुप से ब्रह्मधाम में ही पहुँचता है । किसी भी अन्य धाम में नहीं रहता है ।
इति वचनामृतम् ।।३।। ।। १११ ।।