संवत् १८ के कार्तिक कृष्णपक्ष की एकादशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम लोया में सुराभक्त के दरबार में दक्षिण की ओर मुखारविन्द करके पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने लाल किनखाब का चूडीदार पायाजामा पहना था । नरनारायण नामांकित काले रंग की किनखाब की बगलबंडी पहनी थी । सिर पर बुरानपुरी आसमानी रंग का फेटा जो सुनहरे तार के पल्ले से बाँधा गया था तथा कसुंबल रंग का फेटा कमर पर धारण किया था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । मुक्तानन्द स्वामी आदि परमहंस मृदंग, सरोद, सितार और मंजीरा आदि वाद्ययंत्रों को बजाते हुए कीर्तन कर रहे थे ।
जब कीर्तन समाप्त हो गया तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'समस्त परमहंसों सुनिये मैं आप से एक प्रश्न पूछता हूँ, तब मुनि बोले कि पूछिए महाराज! तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'इस सत्संग में हरिभक्त को मृत्यु का भय कब मिट जाता है और यह बात कैसे मानी जाय कि जीवित रहते हुए ही अपना कल्याण हो गया ?'
मुक्तानन्द स्वामी ने अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया । परन्तु श्रीजी महाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ । तब अन्य परमहंस बोले कि - 'इस प्रश्न का उत्तर तो आप ही करें ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'आप लोग जब कीर्तन कर रहे थे । तब तक मैंने इस प्रश्न पर विचार किया और हमारी दृष्टि में तो यह आया कि चार प्रकार के हरिभक्त हैं जिनको मृत्यु का भय नाश हो जाता है और कृतार्थ भाव प्रकट हो जाता है । चार प्रकार के इन हरिभक्तों में प्रथम विश्वासी, द्वितीय ज्ञानी, तृतीय शूरवीर और चतुर्थ प्रीतिवाला होता है । इन चार प्रकार के भक्तों को मृत्यु का भय नहीं रहता है तथा जीवनकाल में ही कृतार्थ भाव उत्पन्न हो जाता है।
अब इन चार प्रकार के भक्तों का लक्षण कहते हैं कि इनमें जो विश्वासी भक्त हैं वह तो प्रत्यक्ष भगवान तथा उनके साधु के वचनों में अत्यन्त विश्वास रखते हैं । अतः उन्हें भगवान के निश्चय के बल द्वारा मृत्यु का भय नहीं रहता है । वे तो यह मानते हैं कि हमें तो प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान मिले हैं अतः हम कृतार्थ हो गये हैं ।
ज्ञानी में तो आत्मज्ञान का बल रहता है । वह ऐसा समझता है कि मैं तो ब्रह्मस्वरुप भगवान का भक्त हूँ । अतः उसे भी मृत्यु का भय नहीं रहता ।
शूरवीर भक्त से इन्द्रियाँ और अन्तःकरण सभी थर-थर कांपते रहते हैं और वह किसी अन्य व्यक्ति से भी नहीं डरता । अतः उसके द्वारा परमेश्वर की आज्ञा का किसी भी प्रकार भंग नहीं होता है । वह स्वयं को कृतार्थ मानता है और उसके द्वारा मन में मृत्यु का भय लेशमात्र भी नहीं रहता हैं ।
चौथा जो प्रीतिवान भक्त है वह तो पतिव्रता के अंगवाला है । जैसे पतिव्रता स्त्री का अपने पति के सिवा अन्य किसी भी स्थान पर मन नहीं लगता और वह केवल अपने पति से ही प्रीति रखती है वैसे ही भगवान का भक्त पतिव्रता के समान अपने पति से ही प्रीति रखता है और स्वयं को कृतार्थ मानता है उसे मृत्यु का लेशमात्र भी भय नहीं रहता है ।
यदि इन चारों अंगों में से एक प्रधान हो और तीन गौण हों तो भी वह मनुष्य जन्म-मरण के भय से मुक्त हो जाता है । यदि इन चारों अंगों में से कोई अंग भी न हो तो मृत्यु का भय नहीं टलता इतनी वार्ता करके श्रीजी महाराज ने समस्त परमहंसों तथा हरिभक्तों से बोले कि - 'इन चारों अंगों में से जो अंग जिसमें प्रधान रुप से रहता हो वह बताइये ?'
परमहंसों में से जिसका जो जो अंग था वह बताया और हरिभक्तों ने भी जिसे जो अंग था बताया । यह सुनकर श्रीजी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए। बाद में श्रीजी महाराज ने कहा कि इन चार अंगों में से जिसे जिसे शूरवीर का अंग हो वे सब आकर मेरा चरण-स्पर्श करें । जिन्हें जिन्हें शूरवीर का अंग था उन सबने श्रीजी महाराज के चरणारविन्द को छाती से लगाकर वन्दन किया ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे प्रश्न पूछना होवे पूछे ।' तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि 'जो कारण हो उसे तो कार्य से बडा होना चाहिए । यदि बड का बीज छोटा होता है तब भी वटवृक्ष उससे बडा कैसे होता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यद्यपि कारण छोटा और सूक्ष्म होता है तो भी वह महान कार्य की उत्पत्ति करने में समर्थ है यही कारण की महत्ता है । जैसे मूल प्रकृति के कार्यरुपी अनन्त प्रधानों का बडा विस्तार होता है परन्तु कारणरुपी मूल प्रकृति तो स्त्री के आकार वाली है । जो कि पृथ्वी का कारण गन्ध है तथा वह सूक्ष्म है और उसका पृथ्वीरुप कार्य बडा है । वैसे ही आकाश आदि चार भूतों का बडा विस्तार है और उसके कारण शब्दादि सूक्ष्म हैं । कारण छोटा होने पर भी बडे कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाता है । उसमें ऐसी कला रही है । जैसे अग्नि देव तो मनुष्य में समान मूर्तिमान तथा मानव के समान हैं, उनका कार्यरुप अग्नि की ज्वालायें बहुत बडी हैं । वरुण की मूर्ति मानवसदश है और उनका कार्यरुप जल अत्याधिक हैं । जैसे सूर्य की मूर्ति तो मनुष्याकार की भांति रथ में बैठी है और उनका कार्य रुप प्रकाश समग्र ब्रह्मांड में व्याप्त है । वैसे ही सबके कारण श्री पुरुषोत्तम नारायण श्रीकृष्ण मनुष्य के समान हैं फिर भी अनन्त कोटि ब्रह्मांड के कारण हैं । जो मूर्ख होते हैं वे तो ऐसा समझते हैं कि 'जिसका कार्य इतना बडा है उसका कारण कितना बडा होगा ?' यह तो मूर्ख की समझ है । यद्यपि सबके कारण रुप भगवान मनुष्य के समान है फिर भी वे अपने अंग में से योग कला द्वारा अनन्त कोटि ब्रह्मांडों को उत्पन्न करने में समर्थ हैं तथा उन्हें अपने में विलीन करने की क्षमता भी है । जैसे अग्नि, वरुण तथा सूर्य अपने कार्यरुप में बडे दिखायी पडते हैं और कार्य को अपने में लीन करके स्वयं अकेले रहते हैं । वैसे ही भगवान के एक एक रोम में अनन्त कोटि ब्रह्मांड अणु के समान रहे हैं वे अष्ट आवरण तथा चौदह लोकों के साथ रहते हैं । इस तरह कारण में अलौकिकता और महत्ता रहती है । उन्हें विवेकशील व्यक्ति ही समझते हैं कि 'भगवान मनुष्य के समान प्रतीत होते हैं फिर भी सबके कारण हैं, कर्ता तथा सामर्थ्यवान हैं ।' ऐसा कह कर श्रीजी महाराज शयन करने के लिए पधारे ।
इति वचनामृतम् ।।२।। ।। ११० ।।