वचनामृतम् १

।। श्री स्वामिनारायणो विजयतेतराम् ।।

।। श्री लोया - वचनामृतम् ।।
         
संवत् १८ के कार्तिक कृष्णपक्ष की दशमी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री लोया ग्राम स्थित भक्त सुराखाचर के दरबार में परमहंसों के निवासस्थान में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने रुई-भरा सफेद चूडीदार पाजामा पहना था । सफेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और श्वेत फेटा बांधा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज मुनियों से बोले कि - 'शंकर शब्द का क्या अर्थ है?' मुनियों ने कहा कि सुख देने वाले को शंकर कहते हैं । यह सुनकर श्रीजी महाराज बोले कि आज जब चार घडी रात्रि बाकी थी तब शिवजी ने हमें दर्शन दिया। वे बडे नन्दीश्वर पर बैठे थे । उनका शरीर हृष्टपुष्ट था और चालीस वर्ष की अवस्था थी । सिर पर बडी जटा थी और साथ में पार्वतीजी थीं । उन्होंने श्वेत वस्त्र पहना था । शिवजी का मुझ पर अधिक स्नेह नहीं हुआ क्योंकि मैं ऐसा समझता हूँ कि शिवजी तमो गुणी देवता हैं और हम तो शान्तमूर्ति श्रीकृष्ण नारायण के उपासक हैं अतः ब्रह्मा शिव तथा इन्द्रादित जैसे रजोगुणी - तमोगुणी देवताओं के प्रति हमारी भावना उत्पन्न नहीं हो सकती और उसमें भी क्रोधी स्वभाव वाले मनुष्य तो मुझे बिलकुल पसन्द नहीं हैं । फिर भी हम शिवजी का आदर करते हैं, इसका कारण यह है कि शिवजी त्यागी और योगी हैं तथा भगवान के महान भक्त हैं। अतः शिवजी को मानते हैं ।'
         
क्रोध तो पागल कुत्ते के समान है । जैसे पागल कुत्ते की लार यदि जानवर अथवा मनुष्यों के शरीर से छू जाती है तो वह पागल कुत्ते के समान चीखते-चिल्लाते मर जाते हैं । वैसे ही क्रोध की लार जिस पर गिर जाती है वह भी पागल कुत्ते की भांति चीखते-चीखते सन्त के मार्ग से गिर जाता है। जैसे कसाई, अरब, भावर, बाघ, चीता, काला सर्प दूसरों को डराते हैं और दूसरे के प्राण हर लेते हैं वैसे ही क्रोध भी दूसरों को भयभीत करता है और उनके प्राण हर लेता है । यदि ऐसा क्रोध साधु में आवे तो अत्यन्त अनुचित लगता है क्योंकि साधु की आकृति बदल जाती है । किन्तु जब वह क्रोधावेश में होता है तो वह क्रूरतापूर्ण लगता है । क्रोध का नाम विरुप है अतः यह क्रोध जिसके शरीर में आता है उसे वह विरुप कर डालता है ।'
         
शुकमुनि ने पूछा कि - 'हे महाराज ! यदि थोडा सा भी क्रोध उत्पन्न हो जाय और बाद में उसे मिटा दिया जाय तो वह क्या कुछ बाधा उत्पन्न करता है या नहीं ?''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जैसे यह सभा बैठी है तथा इसमें यदि अभी कोई सांप निकल आये और वह भले ही किसी को न काटे तो भी सब लोगों को उठकर भागना पडेगा और सबके हृदय में भय समाया रहेगा । जैसे गाँव के फाटक पर आकर कोई बाघ गर्जना करे किन्तु किसी को भी नहिं मारे तो भी सबलोग अन्दर से डर जायेंगे और अपने अपने घरों से बाहर नहीं निकलेंगे। वैसे ही अगर थोडा-सा भी क्रोध उत्पन्न हो जाय तो वह अत्यन्त दुखदायी हो जाता है ।'
         
छोटे निर्मानानंद स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'काम का जड से नाश करने का कौन सा साधन है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - यदि आत्मनिष्ठा अत्यन्त दृढ हो और अष्ट प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत रखने आदि एवं पंचव्रतों का दृढता के साथ पालन किया जाय तथा भगवान की महिमा को अधिकाधिक समझा जाय तो इन उपायों द्वारा काम की जड उखड जाती है । यदि काम का मूलोच्छेद हो जाय तो भी ब्रह्मचर्यादि नियमों का पालन करने से डिगना नहीं, और अतिशय काम के मूल को  उखाडने का उपाय तो यह है कि भगवान की महिमा को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए ।
         
भजनानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - ''हे महाराज ! कनिष्ठ, मध्यम तथा उत्तम ये तीन प्रकार के वैराग्य हैं । उनका कैसा स्वरुप है ?''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'कनिष्ठ वैराग्य बाला पुरुष धर्मशास्त्र में बताये गये स्त्री त्याग असम्बन्धी नियमों का पालन जब तक करता रहता है तब तक उसकी भलाई होती रहती है । यदि उसने किसी स्त्री का अंग देख लिया और उसमें उसका चित्त लग गया तो वह स्थान भ्रष्ट हो जाता है । ऐसे पुरुष को कनिष्ट वैराग्य वाला कहते हैं । जो मध्यम वैराग्य वाला होता है वह जब स्त्री को निर्वस्त्र देख लेता है तो जैसे नग्न पशु को देखने से उसके मन में कोई विकार नहीं होता वैसे ही स्त्री के अंग में चित्त नहीं रखता है । उसे मध्यम वैराग्य वाला कहा जाता है । जो उत्तम वैराग्य वाला होता है उसे तो एकान्त में स्त्री आदि पदार्थों का योग होने पर भी वह नहीं डिगता है उसे उत्तम वैराग्यवाला  कहते हैं ।'
         
भजनानन्द स्वामी ने पुनः प्रश्न किया कि - 'कनिष्ठ, मध्यम तथा उत्तम कोटि के तीन प्रकार का भगवान सम्बन्धी जो ज्ञान है उसका कैसा स्वरुप है?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'कनिष्ठ ज्ञान वाला तो प्रथम भगवान के प्रताप को देखकर भगवान का निश्चय कर लेता है । बाद में वैसा प्रताप न दिखने पर किसी दुष्ट जीवों द्वारा भगवान का द्रोह करने पर भी जब द्रोह करने वाले का कोई अनिष्ट नहीं होता है तब उसकी भगवान के स्वरुप में भ्रान्ति हो जाती है । उसे कनिष्ठ ज्ञान वाला कहते हैं ।'
         
मध्यम ज्ञान वाला जो होता है वह भगवान के शुभाशुभ मनुष्य चरित्रों को देखकर उससे मोहित हो जाता है और उसका निश्चय भी नहीं रखता उसे मध्यम ज्ञान वाला कहते हैं ।
         
उत्तम ज्ञान वाला पुरुष तो भगवान की शुभाशुभ क्रिया को देखकर मोहित नहीं होता तथा उसका निश्चय अटल रहता है और जिसके द्वारा स्वयं को निश्चय कराया गया हो यदि वही यह कहता है कि 'यह भगवान नहीं है ।' तब वह उसके बारे में ऐसा सोचे कि 'इसका दिमाग खराब हो गया है' उसे उत्तम ज्ञान वाला कहते हैं । इसमें जो कनिष्ठ ज्ञान वाला है वह अनेक जन्मों में मध्यम ज्ञान वाला दो तीन जन्मों में तथा उत्तम ज्ञान वाला इसी जन्म में सिद्ध हो जाता है ।' उन्होंने ऐसी वार्ता कही ।
         
बडे शिवानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - भगवान सम्बन्धी निश्चय सम्पूर्ण होने पर भी कृतार्थ भावना नहीं रहती इसका क्या कारण है ?
         
श्रीजी महाराज बोले कि - काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, स्नेह तथा मान आदि शत्रुओं द्वारा जिसका अन्तःकरण दग्ध रहता है उसे निश्चय होने पर भी वह स्वयं को कृतार्थ नहीं मानता ।
         
पुनः नित्यानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'इन कामादि शत्रुओं को नष्ट करने का कौन सा उपाय है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - यदि व्यक्ति कामादिक शत्रुओं को निर्दयतापूर्वक दंड देने के लिये तत्पर रहता है तो इन्हें नष्ट किया जा सकता है । जैसे धर्मराज पापियों को मारने के लिए दंड लेकर रात-दिन तैयार रहते हैं । वैसे ही इन्द्रियों के कुमार्गगामी होने पर दंड देना चाहिए । यदि अन्तःकरण कुमार्ग पर चले तो उसे दंडित करना चाहिए । यदि इन्द्रियों को कृच्छ चान्द्रायण व्रत द्वारा तथा अन्तःकरण को विचार द्वारा दंड दिया जाय तो इन कामादिक शत्रुओं का नाश हो जाता है तथा वह व्यक्ति स्वयं भगवान सम्बन्धी निश्चय द्वारा सम्पूर्ण रुप से कृतार्थ मानने लगता है ।
         
इसके बाद मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'सम्पूर्ण सत्संग हो गया है यह कैसे समझा जाय ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'एक तो अत्यन्त दृढ आत्मनिष्ठा हो और वह अपनी आत्मा को इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से बिलकुल असंगी मानता हो और वह इन देह इन्द्रियों आदि की क्रियाओं को अपने में न मानने पर भी पंचव्रतों में लेश मात्र भी अन्तर नहीं आने देना चाहिए । स्वयं को ब्रह्म रुप मानने पर भी परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान का दास होने की भावना का परित्याग नहीं करना चाहिए और प्रत्यक्ष मूर्ति भगवान को आकाशवत असंगी समझते रहना चाहिए। जैसे आकाश चार भूतों में अनुस्यूत भाव से व्याप्त होकर रहता है और आकाश में ही चार भूतों की क्रियाएँ होने पर पृथ्वी आदि चार भूतों के विकार आकाश को नहीं छू पाते हैं । उसी तरह से प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण नारायण शुभाशुभ क्रिया करते हुए भी आकाश की भांति निर्लेप है ऐसा समझना चाहिए । उन भगवान के जो असंख्य ऐश्वर्य हैं, उन्हें ऐसा समझे कि यद्यापि वे भगवान जीवों के कल्याण के लिए मनुष्य सदृश दिखायी पडते हैं, तो भी वे अनन्त कोटि ब्रह्मांड के कर्ता-हर्ता हैं और गोलोक, बैकुंठ श्वेतद्वीप तथा ब्रह्मपुर आदि धामों के स्वामी हैं । तथा अनन्त कोटि अक्षर मुक्तों के स्वामी हैं । इस प्रकार से भगवान की महिमा जानकर भगवान में श्रवणादि भक्ति को दृढ पूर्वक रखना चाहिए तथा उनके भक्तों की सेवा चाकरी करनी चाहिए । ऐसा आचरण करने पर ही उसे सम्पूर्ण सत्संग हो गया है ऐसा कहा जा सकता है ।
         
छोटे शिवानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'कभी तो भगवान के भक्त की महिमा अत्यन्त समझ में आती है और कभी तो इस प्रकार नहीं होता  है । इसका क्या कारण है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'संत तो धर्मवान है । वह यदि किसी को अधर्म मार्ग पर चलते देखता है तब उसे टोकता है । तब जो देहाभिमानी होता है वह सद्विचार पूर्वक शिक्षा ग्रहण नहीं करता है । वह तो सन्त का ही अवगुण मानता है । जब सन्त उससे उसके स्वभाव के अनुसार उपदेश करते हैं तब उसे भगवान की महिमा रहती है और जब हितकारी बात कठोरता से कहते हैं तब वह पुरुष उनमें दोष देखता है और माहात्म्य भी नहीं जानता । जो व्यक्ति सन्त में अवगुण देखता है वह किसी प्रकार के प्रायश्चित द्वारा भी शुद्ध नहीं हो पाता। जैसे कामादि दोषों का निवारण हो जाता है वैसे सन्त के प्रति किये द्रोह के पाप का निवारण नहीं होता है । जैसे किसी को क्षय रोग हुआ हो उसे मिटाने की दवा नहीं है वह तो निश्चय मर जायेगा वैसे ही जिसने सन्त में अवगुण देखा हो उसे तो क्षय रोग हुआ है ऐसा जानना चाहिए । वह तो पांच दिन पहले या पांच दिन के बाद निश्चय ही विमुख हो जाएगा । जिस प्रकार मनुष्य के हाथ, पैर, नाक, आँख और उंगलियों आदि अंग के कट जाने पर भी वह मरा नहीं कहलाता किन्तु धड से सिर के कट जाने पर ही वह मरा कहलाता है । वैसे ही जिसके हृदय में हरिभक्त के प्रति दोष की भावना उत्पन्न हो गयी हो उसका तो सिर कट गया ऐसा समझना चाहिए । यदि पंचव्रतों में से किसी में फर्क पडा हो तो उसके लिए उसका अंग कटा हुआ कहा जा सकता है परन्तु वह जीवित रह सकता है अर्थात सत्संग में टिक जाता है । परन्तु जिसे सन्त का अवगुण आया हो वह तो निश्चित रुप से सत्संग में से विमुख हो जाता है । तब ऐसा समझना चाहिए कि उसका सिर कट गया है ।'
         
पुनः भगवदानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - ''यदि भगवद् भक्त का अवगुण आया हो तो उसे टालने का कोई उपाय है या नहीं ?''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'उपाय तो है किन्तु वह अत्यन्त कठिन है। जो अत्यन्त श्रद्धावान है वह ही कर सकता है । जब किसी सन्त का अवगुण आ जाय तो उसे ऐसा विचार करना चाहिए कि 'मैंने भगवान के ब्रह्म स्वरुप वाले भक्त का अवगुण किया यह घोर पाप किया है इस प्रकार के विचारों के कारण उसके हृदय में अत्यधिक दाह होता रहता है । इस तरह के अर्न्तदाह के कारण उसे भोजन करते समय उसे पता नहीं चलता कि भोजन स्वादिष्ट है या अस्वादिष्ट है । रात में उसे नींद भी नहीं आती । जब तक उसके हृदय में से सन्त विरोधी अवगुण नहीं मिट जाता तब तक वह अपने हृदय में उसी प्रकार से व्याकुल रहता है जैसे पानी के बिना मछली तडपती रहती है । जब उसके  हृदय में सन्त के गुण उत्पन्न हो जाते हैं और जिस बात से सन्त दुःखी हुए हो उसे दूर करके जब वह अत्यन्त दीनतापूर्वक उन्हें प्रसन्न कर लेता है इस प्रकार का जिसका विचार रहता है तो उसे जो सन्त का अवगुण आया रहता है, वह समाप्त हो जाता है और वह सत्संग से भी विमुख नहीं होता इसके सिवा दूसरा कोई भी उपाय नहीं है । केवल यही एक उपाय है ।'
                           
इति वचनामृतम् ।।१।।  ।। १०९ ।।