वचनामृतम् १७

संवत् १८ के मार्गशीर्ष की कृष्ण अमावस्या को श्रीजी महाराज श्री लोया में भक्त सुराखाचर के दरबार में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था । दूसरे श्वेत फेंटे को सिर से गले तक लपेटा था । गर्म पोस की लाल बगल बंडी पहनी थी और उसके नीचे श्वेत अंगरखा पहना था। उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था और सूती शाल ओढकर उसके ऊपर पीली रजाई ओढी थी । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी । इस तरह से प्रसन्नतापूर्वक रात्रि के समय श्रीजी महाराज विराजमान थे ।
         
श्रीजी महाराज स्वेच्छा से बोले कि - ''देखिए, भगवान की माया का बल कैसा है जिसके द्वारा अत्यन्त विपरीत परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है । क्योंकि जो व्यक्ति पहले अच्छा दिखायी देता है, बाद में वह बुरा हो जाता है ।'' ऐसा कहकर परमहंसों से पुनः बोले कि - ''आज प्रश्न पूछिये तो वार्ता करें ।''
         
नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! पहले जो व्यक्ति अच्छा प्रतीत होता है और स्तुति करता रहता है किन्तु बाद में वही निन्दा करने लगता है । अतः कैसा भी देश, काल, क्रिया, संग खराब हो तो भी वह अच्छा ही रहे, किसी भी तरह से विपरीत न हो, यह किस तरह से हो सकता है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे देह के प्रति अनादर हो, दृढ आत्मनिष्ठा हो, पंच विषयों में वैराग्य हो तथा भगवान के माहात्म्य सहित उनके सम्बन्ध में यथार्थ निश्चय हो तो देशकाल की विषमता होने पर भी ऐसे व्यक्ति की मति विपरीत नहीं होती । जो देहाभिमानी हो और जिनकी पंचविषयों में अरुचि न उत्पन्न हुई हो तब जब सन्त उन विषयों का खंडन करते हैं तो उनके मन में बडे सन्त का तथा भगवान का भी अभाव आ जाता है । यदि ऐसे व्यक्ति को भगवान का यथार्थ निश्चय हो परन्तु पंचविषयों का अत्यन्त अभाव न हो और उनमें आसक्ति हो तब मुक्तानन्द स्वामी जैसे सन्त उनका खंडन करें तो सन्त का शस्त्र द्वारा शिरच्छेदन करने जैसा द्रोह कर डालेगें ।'
         
नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'किसी को देहाभिमान और पंचविषयों में आसक्ति हो तब भी वह सत्संग में निभता जाता है उसे कैसे समझना चाहिए?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब तक उसे कोई टोकता नहीं है तब तक वह निभता जाता है । परन्तु जब कोई बडे सन्त या भगवान द्वारा उसके मान, स्वाद, देहाभिमान, लोभ, काम तथा क्रोध का खंडन करेंगे तब सन्त का उसे अभाव अवश्य आयेगा । तब वह सन्त का द्रोह करेगा और सत्संग से विमुख हो जाएगा । जैसे सर्प द्वारा डाली गयी लार से दूध को जिसने पिया हो वह जीवित तो रहता है, लेकिन शाम-सबेरे, एक-दो दिन के अन्दर या घडी दो घडी के अन्दर जरुर मृत्यु को प्राप्त करेगा । उसी प्रकार से देहाभिमानी व्यक्ति महीने, दो महीने, वर्ष, दो वर्ष, दश वर्ष में देहावसान के समय जब देह का त्याग करेगा तब वह जरुर सन्त का अभाव लेने के कारण पतन के गर्त में जाएगा । जिसे देहाभिमान न हो तो वह ऐसा समझता है कि - 'अन्तःकरण इन्द्रियों का प्रकाशक है जिससे देह चलता फिरता है ऐसी सत्तारुप आत्मा मैं हूँ । अतः मैं धन, स्त्री आदि किसी पदार्थ के द्वारा सुखी होऊँ ऐसा नहीं हूँ । यदि यह पदार्थ न मिले तो उससे मैं दुःखी रहूँ ऐसा भी नहीं है । इस प्रकार की दृढ समझ जिसमें हो उससे आगे सन्त किसी भी तरह से पंचविषयों का खंडन करे या देहाभिमानी का खंडन करे तो भी वह किसी प्रकार से सन्त का अभाव अपने अन्दर नहीं लाता है और तुच्छ पदार्थ के लिए सन्त के साथ विवाद नहीं करता है और न ही द्वेष रखता है ।'
         
नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'जिसे पंचविषय में अरुचि होती है, उसे कैसे जाना जा सकता है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे विषयों का अभाव हो तो उसे जानने का उपाय यह है कि जब कोई स्वादिष्ट भोजन मिले तब वह उसे खा लेता है, परन्तु उसके प्रति किसी प्रकार की विशेष रुचि नहीं होती और उससे कोईविशेष आनन्द नहीं मिलता और वह उदासीन रहता है । मोटे कपडे पहनने से उसे जो आनन्द मिलता है वह आनन्द उसे पतले कपडे पहनने से नहीं मिलता है, बल्कि उसका मन दुःखी हो जाता है । इसी प्रकार से अच्छा बिस्तर मिले या किसी के द्वारा सन्मान मिले, यदि अच्छे पदार्थों का योग हो तब उसमें उसका मन व्यथित हो जाता है । परन्तु उसे उसमें किसी प्रकार का आनन्द नहीं प्राप्त होता है, तब उसे ऐसा जानना चाहिए कि - उसमें विषयों का अभाव है ।'
         
मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! इन पंच विषयों का अभाव कैसा होता है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'विषयों में अरुचि होने का मुख्य साधन तो परमेश्वर का माहात्म्य है । इसके बाद आत्मनिष्ठा और वैराग्य है । तो वह माहात्म्य क्या है ? वह यह है कि भगवान के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं । सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा प्रकाश करते हैं । पृथ्वी सबको धारण किये है । समुद्र मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है । औषधियाँ ऋतुओं को प्राप्त करके फलरुप होती हैं । और जो भगवान जगत की उत्पत्ति, स्थिति प्रलय करते हैं, जिनकी शक्ति काल, माया, पुरुष, अक्षर हैं । इस तरह से जो भगवान की महिमा को समझता है उसके लिए संसार में कौन-सा ऐसा पदार्थ है जो बन्धनकारी हो जाय ? काम, क्रोध, लोभ, मान, ईर्ष्या, स्वाद, अच्छे वस्त्र, धन, स्त्री तथा पंचविषय सम्बन्धी जो अन्य पदार्थ हैं वे उसके लिए बन्धनकारी नहीं बनते हैं । क्योंकि उसने तो पहले से ही उन सबका प्रमाण कर रख्खा है । भगवान ऐसे है तथा ऐसे भगवान के भजन, स्मरण एवं कथा-वार्ता में सार है । अक्षर ऐसा है उस अक्षर का ऐसा सुख है । गोलोक, बैकुंठ और श्वेतद्वीप सम्बन्धी सुख ऐसा है । प्रकृति-पुरुष सम्बन्धी सुख ऐसा है । ब्रह्मलोक सम्बन्धी सुख ऐसा है । स्वर्ग का सुख ऐसा है तथा राज्यादि का सुख ऐसा है ।'
         
'इस तरह से वह सभी सुखों का अनुमान करके भगवान सम्बन्धी सुख को सर्वाधिक मान कर भगवान की सेवा में लगा हो, तो उसके लिए कौन-सा ऐसा पदार्थ है जो भगवान के चरणारविन्द से उसे विमुख कर सके ? अर्थात कोई भी पदार्थ उसे विमुख नहीं कर सकता है ।'
         
'जैसे पारसमणि किसी लोहे को अपने स्पर्श से सोना बना देता है । परन्तु पुनः वह उसे लोहा नहीं बना सकता वैसे ही जिसने भगवान का महात्म्य समझ लिया है वह भगवान द्वारा गिराये जाने पर भी भगवान के चरणारविन्द से नहीं हट सकता है । तो क्या किसी अन्य पदार्थ से उसका पतन हो सकता है ? अर्थात नहीं गिर सकता है । वह भगवान का भजन करनेवाले संत को भी बहुत महात्म्य समझता है कि यह भगवान के साक्षात उपासक संत है । अतः यह बहुत महान है ।'   जैसे उद्धवजी स्वयं अति महान थे । उन्होंने भगवान के महात्म्य को समझ लिया था । इस लिए उनके अन्दर चतुराई का कोई घमण्ड नहीं था । उन्होंने गोपियों की चरणरज प्राप्त करने की इच्छा की और अगले जन्म में वृक्ष-लता बनने की कामना की । क्योंकि ऐसे भगवान के प्रति जिनके मार्ग को वेद और श्रुतियाँ खोजती हैं उन गोपियों की प्रीति को बहुत ज्यादा देखा तो भगवान के जो महान संत हो उनके आगे मान कैसे रह सकता है ? और उन्हें नम्र क्यों नहीं कर सकते हैं ? उनके आगे तो दासानुदास होकर रहना चाहिए । यदि वह पाँच पाँच जूते मारे तो भी वह सहन करे और यह समझे कि - 'मेरे बडे भाग्य हैं कि ऐसे संत का तिरस्कार सहन करता हूँ नहीं तो प्रारब्ध वश स्त्री, बच्चों, माँ-बाप का तथा राजा का तिरस्कार सहना पडता और प्रारब्धवश होकर डोडी की भाजी खानी पडती तथा घास खोदकर खाना पडता । उससे अच्छा संत के साथ रहकर निःस्वादी होकर पालन करता हूँ । यह मेरा सौभाग्य है । प्रारब्ध वश होकर जैसे-तैसे साधारण वस्त्र तथा चिथडा पहनना पडता उसकी अपेक्षा इस संत के साथ रहकर मैं गुदडी ओढता हूँ यह मेरा बडा भाग्य है ।' व्यक्ति जब संत की सभा में जाता है और वहाँ उसका मान-सम्मान नहीं होता तब वह संत का अवगुण लेता है । अतः वह संत की महानता को नहीं समझ सका है, नहीं तो वह अवगुण न लेता । जैसे बम्बई के गवर्नर साहब कुर्सी डालकर बैठे हों और उनकी सभा में कोई गरीब आदमी आ जाए तो उसे कुर्सी पर नहीं बैठाते हैं । और न ही कोई उसका आदर करता है । तो क्या उसे उस अंग्रेज के ऊपर क्रोध होता है ? क्या उसके मन में उसे गाली देने की इच्छा होगी ? लेशमात्र भी नहीं होगी । क्योंकि वह उस अंग्रेज के गौरव को समझता है कि - वह तो मुल्क का बादशाह है और मैं कंगाल हूँ । ऐसा समझकर उसे क्रोध नहीं आता है । उसी तरह से यदि संत की महानता को जिसने जान लिया हो तो संत कितना भी तिरस्कार करें तो भी उसे क्रोध नहीं आता है । जितना लेना हो, उतना अपना ही अवगुण ले । परन्तु संत का अवगुण किसी प्रकार से भी नहीं ले । अतः जिसने भगवान का और संत का माहात्म्य समझ लिया है उसकी स्थिति सत्संग में अचल रहती है और जिसे माहात्म्य नहीं समझ में आया है उसका विश्वास नहीं करना चाहिए ।'  

इति वचनामृतम् ।।१।।  ।। १२५ ।।