वचनामृतम् १६

संवत् १८ के मार्गशीर्ष कृष्ण चर्तुदर्शी के दिन संध्या आरती के  पश्चात श्रीजी महाराज ग्राम श्री लोया में सुराभक्त के दरबार में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा (खेस) धारण किया था तथा गर्म पोस की लाल बगलबंडी पहनी थी और मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था और दूसरे सफेद फेंटे को सिर से गले तक लपेटा था । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंस तथा देश देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - ''समस्त परमहंस परस्पर प्रश्नोत्तर   करिये ।'' ऐसा कहकर उन्होंने स्वयं प्रश्न पूछा कि जिसकी वासना कुंठित न हुई हो और जिसकी वासना निर्मूल हो चुकी हो उसके क्या लक्षण हैं ?' मुक्तानंद स्वामी ने इस प्रश्न का उत्तर दिया किन्तु वह यथार्थ उत्तर न दे सके । श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसकी वासना कुंठित नहीं होती उसकी इन्द्रियों की वृत्तियाँ विषयों में लगी रहती हैं वह विचार करने पर भी नहीं हटती जिसकी वासना कुंठित हो गयी हो उसकी वृत्ति विषयों में तत्काल प्रवेश नहीं करती । यदि वृत्ति विषय में प्रवेश भी कर जाती है तो जब उसे वापस लाने का प्रयास किया जाता है तब तुरन्त लौट आती है, परन्तु वह विषयों में आसक्त नहीं रहता जिसकी वासना निर्मूल हो गयी हो उसे तो जाग्रत अवस्था में सुषुप्ति की तरह विषयों में अरुचि रहती है और अच्छे-बुरे विषयों में उसकी समान वृत्ति रहती है ।
         
गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि - वासना कुंठित तो हो जाती है परन्तु वह मूल में से नष्ट नहीं होती उसका क्या कारण है ?
         
श्रीजी महाराज बोले कि - इसका उत्तर इस प्रकार है कि - ''आत्मनिष्ठा रुपी ज्ञान तथा प्रकृति के कार्यरुपी पदार्थ मात्र में अनासक्ति रुप वैराग्य ब्रह्मचर्यादि रुप धर्म तथा माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति ये चार गुण जिसमें सम्पूर्ण रुप से रहते हैं उसकी वासना निर्मूल हो जाती है, इन चारों गुणों में जितनी न्यूनता रहती है उतनी वासना निर्मूल नहीं होती ।''
         
श्रीजी महाराज बोले कि हम प्रश्न पूछते हैं कि - ''मुमुक्षु को भगवान की प्राप्ति के लिए जो साधन बताए गए हैं उनमें एक ऐसा महान साधन कौन सा है जिसके द्वारा सभी दोष टल जाते हैं और उसमें सभी गुण आते हैं ?'' इस प्रश्न का उत्तर परमहंसों द्वारा न हो सका तब श्रीजी महाराज ने इसका उत्तर किया कि - भगवान का माहात्म्य कपिलदेवजी ने देवहुति से इस प्रकार कहा - ''मद् भयद्वाति वातो।यम्  सूर्यस्तपति मद्भयात् ।''
       
इस तरह से जो अनन्त प्रकार की माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति करता है उसका समस्त दोष टल जाता है, जिसमें ज्ञान, वैराग्य, धर्म न हों तो भी ये सब गुण आ जाते हैं, अतः वह साधन समस्त साधनों में बडा माना जाता है ।
         
पुनः श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'जो व्यक्ति कपटी होता है वह बुद्धिमान भी होता है इससे उसके कपट को नहीं जाना जा सकता उससे कपट का पता कैसे चल सकता है, यह बताइये ?' इसका उत्तर ब्रह्मानन्द स्वामी ने दिया कि - जिसका बैठना-उठना सत्संग द्वेषी हो और सन्त तथा भगवान के विरुद्ध बोलने वाले का संग हो उससे उसके स्वभाव का पता चलता है किन्तु अन्य तरह से उसका स्वभाव नहीं मालूम होता ।
         
श्रीजी महाराज ने इस उत्तर को माना फिर भी स्वयं बोले - 'ऐसे व्यक्ति की संगत करता हो तो कैसे पहचाना जा सकता है ?' ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा कि - 'देशकाल की कोई विषमता आ जाय तब उसका कपट प्रगट हो जाता है ।' श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'यह उत्तर ठीक है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'ऐसा कौन सा अवगुण है जिसके द्वारा समस्त गुण दोषरुप हो जाता है, इसे बताइये ?'
         
श्रीपातदेवानन्द स्वामी बोले कि - 'जो पुरुष भगवान के भक्त का द्रोह करता है उसका सभी गुण दोषरुप हो जाते है ?' श्रीजी महाराज बोले कि 'यह उत्तर भी ठीक है परन्तु इसका उत्तर हमने दूसरे प्रकार से सोचा है कि यदि कोई सर्वगुण सम्पन्न हो लेकिन भगवान को अलिंग समझता हो लेकिन मूर्तिमान न मानता हो तो यह एक बडा दोष है जिसके कारण उसका समस्त गुण दोष रुप हो जाता है ।'
         
श्रीजी महाराज ने प्रश्न पूछा कि - 'सन्त का अभाव किस कारण से होता है यह कहें ?' परमहंस इसका उत्तर करने लगे लेकिन उचित उत्तर न दे सके ।
         
श्रीजी महाराज ने इसका उत्तर इस प्रकार से दिया कि - 'जिसमें मान की भावना होती है उसे सन्त के प्रति अभाव आता है, क्योंकि मानी पुरुष का स्वभाव ऐसा होता है कि - जो उसकी प्रशंसा करता है तो उसमें सौ अवगुणों की अपेक्षा करके वह उसमें के एक गुण को भी अत्यधिक महत्व देता है, परन्तु जो व्यक्ति उसकी प्रशंसा नहीं करता उसमें यदि एक सौ गुण भी हो तो भी वह उसको महत्व नहीं देता और उसके साधारण दोष को भी बडा दोष मान लेता है । इस तरह से वह मन और वचन से उसके बाद देह से भी उसके विरुद्ध द्रोह करता है । अतः यह मानरुपी बडा दोष है, यह मान समझदार व्यक्ति में ही होता है, भोले आदमी में नहीं होता ऐसा नहीं समझना चाहिए, भोले आदमियों में समझदार से ज्यादा मान होता है ।'
         
बाद में मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'हे   महाराज ! यह मान कैसे टल सकता है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो व्यक्ति भगवान का माहात्म्य अत्यन्त समझता हो तो उसमें मान नहीं आता क्योंकि देखिए उद्धवजी कितने चतुर तथा नीतिशास्त्र में कुशल थे, शारीरिक रुप से भी वे राजा जैसे थे परन्तु भगवान के माहात्म्य को समझते थे जब उन्होंने भगवान के प्रति गोपियों का स्नेह देखा तब उनके समक्ष मन की भावना नहीं रखी और व बोले कि - 'इन गोपियों की चरणरज जिसे छूती हो उन वृक्षों, तृणों, गुच्छों में से मैं भी कोई एक बनूँ' तुलसीदास ने कहा है कि -

''तुलसी जाके मुखन से भूले निकसे राम ।
ताके पग की पहेनियां मेरे तन की चाम ।।''
         
इस तरह से जिसके मुख से भगवान का नामोच्चार भूल से भी हो जाय तो उसके लिए वे अपने शरीर की चमडी का जूता बनवाने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो जो भगवान के भक्त हैं जो निरन्तर भगवान के नाम का स्मरण, भजन, कीर्तन, वंदन करते हों और भगवान का माहात्म्य समझते हों तो उसके सामने क्या मान रहता है ? नहीं रहता । माहात्म्य को समझ लेने पर मान समाप्त हो जाता है, परन्तु माहात्म्य समझे बिना मान तो नहीं जाता । अतः अपने मान को समाप्त करने के लिए व्यक्ति को भगवान तथा सन्त का माहात्म्य समझना चाहिए ।'         

इति वचनामृतम् ।।१६ ।। १२४ ।।