संवत् १८ में पोष मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन रात्रि के समय स्वामी श्री सहजानंद जी महाराज ग्राम श्री लोया में सुरा भक्त के दरबार में पलंग पर विराजमान थे । मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था और दूसरे सफेद फेंटे को सिर से गले तक लपेटा था । वे गर्म पोस की लाल बगलबंडी पहने थे तथा सूती शाल के साथ रजाई ओढी थी और श्वेत दुपट्टा पहना था । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंस तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । उस समय सभी परमहंस संध्या आरती तथा स्तुति कर रहे थे । तत् पश्चात् श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'कीर्तन गाइये ।' तब मुक्तानंद स्वामी आदिने वाद्य बजाकर कीर्तन शुरु किया ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'अब कीर्तन बंध करिए । अब हम वार्ता करेंगे । हम जो बात करते हैं उसमें जिसे आशंका उत्पन्न हो तो वह पूछ लें ।' ऐसा कहकर बोले कि - 'भगवान के स्वरुप का निश्चय की बात अत्यन्त अटपटी है । अतः कहते हुए डर लगता है कि - क्या पता जो बात करें उसमें से कोई उल्टा अर्थग्रहण करे तो जिसने भगवान के स्वरुप में अपनी बुद्धि से दृढता की हो वह दृढता इस बात से टूट जाये तो वह समूल नष्ट हो जाये, परन्तु यह बात किये बिना भी नहीं चल सकता । यह बाद यदि समझ में न आये तो दूषण भी बहुत रहेगा, यदि यह बात नहीं समझता तब तक भगवान के निश्चय में अपरिपक्वता रहती है । इसलिए यह बात करते हैं कि भगवान ने जब वराह अवतार धारण किया, तब उस सूवर का रुप अत्यन्त कुरुप था । उन्होंने जब महत्स्यावतार धारण किया तब मत्स्य के समान रुप था । कच्छपावतार के समय कछुए के समान रुप था । नृसिंहावतार के समय उनका रुप सिंह के समान भयंकर था । वामन अवतार के समय उनका रुप बौने के समान था । इनके हाथ पैर छोटे तथा कमल, तोद और शरीर मोटा था । जब उन्होंने व्यासावतार धारण किया तब व्यास काले थे, शरीर में रोएँ बहुत थे और शरीर से दुर्गन्ध आती थी । इस प्रकार से भगवान ने जैसे-जैसे रुपों को धारण किया था तब उस समय जो जो मिला उसने वैसे वैसे रुपों को ध्यान किया है उस ध्यान द्वारा वह भगवान के रुप को प्राप्त किये हैं ।'
उसमें जिन्होंने वराह को देखा तो क्या उस धाम में भगवान को वराह रुप में देखते हैं ? मत्स्यरुप में देखवनेवाले क्या मत्स्यरुप में ही भगवान को देखते हैं ? जिसने कच्छपरुप देखा क्या वह धाम में कच्छपरुप ही देखता है? जिसने नृसिंहजी को देखा तो क्या वह धाम में नृसिंहरुप ही देखता है ? हयग्रीव को मिलनेवाला क्या धाममें घोडे का रुप ही देखता है ? जिसने वराह को भजन पतिभाव से किया तो क्या वह सूअरी हुई ? और सखाभाव से भजनेवाला सूअर हुआ ? मत्स्य को पतिभाव से भजनेवाली क्या मछली हुई और सखाभाव से भजनेवाला मत्स्य हुआ ? कछुए को पतिभाव से भजनेवाली क्या कच्छपी हुई और मित्रभाव से भजनेवाला क्या कछुआ हुआ ? नृसिंह को पतिभाव से भजनेवाली क्या सिंहनी हुई और सखाभाव से भजनेवाला सिंह हुआ ? हयग्रीव के पतिभाव से भजनेवाली क्या घोडी हुई और सखाभाव से भजनेवाला क्या घोडा हुआ ? अतः भगवान के मूल स्वरुप वराह आदि के समान हो तो तब उन उन अवतार के भक्तोंने उनका ध्यान करके तादात्म्य भाव प्राप्त हो जाये । यह कहा है वैसा ही होना चाहिए परन्तु यह बात ऐसी नहीं है ।'
आप कहेंगे कि - 'उन भगवान का कैसा रुप है ?' यह कहते हैं कि - भगवान तो सच्चिदानंद रुप हैं तथा तेजोमय मूर्ति में सूर्यो जैसा प्रकाश रहता है वह करोडों कामदेवों को लज्जित करनेवाला भगवान का रुप है और वे अनन्त कोटि ब्रह्मांड के पति हैं, राजाधिराज सबके नियन्ता सबके अन्तर्यामी और अत्यन्त सुख के स्वरुप हैं । उनके सुख के आगे अनन्त रुपवती स्त्रीयों को देखने का सुख भी तुच्छ हो जाता है । इस लोक और परलोक सम्बन्धी पंचविषयों के सुख भगवान की मूर्ति के सुख के आगे सब तुच्छ हो जाते हैं ऐसा भगवान का स्वरुप है । वह स्वरुप सदैव द्विभुज ही रहता है परन्तु वह स्वेच्छा से कभी चतुर्भुज कभी अष्टभुज कभी सहस्त्रभुज दिखाई पडता है । वे भगवान किसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए मत्स्य, कच्छप, वराह आदि रुपों तथा रामकृष्ण आदि अवतारों को धारण करते हैं । परन्तु वह अपने मूल स्वरुप का त्याग करके अवतार धारण नहीं करते । वह भगवान स्वयं अनन्त ऐश्वर्य अनन्त शक्ति के सहित मत्स्य कच्छपादि रुपों को धारण करते हैं । और जिस कार्य के लिए जिस शरीर को धारण करते हैं उसके पूर्ण हो जाने पर उस शरीर का त्याग भी करते हैं । भागवत में कहा है -
'भूभारः क्षपितो येन, तां तनूं विजहावजः ।
कंटकं कंटकेनैव, द्वयं चापीशितुः समम् ।।'
जिस-जिस देह द्वारा भगवान ने पृथ्वी का भार उतारा तथा जीवों के देहाभिमान रुपी चैतन्य में गडे हुए काँटे को निकालकर और निकाले जानेवाले काटे रुपी स्व शरीर का भी परित्याग कर दिया तथा राक्षस को मारने के लिए नृसिंह रुप धारण किया । बाद में उस कार्य को करने के पश्चात उस देह का त्याग करने की इच्छा की, परन्तु सिंह को कौन मारे ? अतः बाद में अपनी इच्छा से काल रुप शिव उस शरभ का रुप धारण करके आये और नृसिंह तथा शरभ का युद्ध हुआ । बाद में दोनों ने देह त्याग कर दिया । इससे शिव शरभेश्वर महादेव हुए और जहाँ नृसिंहजी ने देह त्याग किया था वहा नारसिंही शिला हुई। इसलिए चित्रों में जहाँ-जहाँ भगवान के मत्स्य, कच्छपादि भगवान के अवतार का चित्रण किया जाता है वहाँ वहाँ मत्स्य कच्छपादि के आकार के बाद उन पर शंख, चक्र, गदा, पद्म, वैजयन्तीमाला, पीताम्बर, वस्त्र, किरीट मुकुट श्रीवत्स चिन्ह आदि चिन्हों सहित भगवान की मूर्ति को चित्रांकित किया जाता है क्योंकि भगवान का अनादि रुप ऐसा ही है । श्रीकृष्ण भगवान ने अपने प्रथम जन्म के समय वासुदेव देवकी को चतुर्भुज रुप से दर्शन दिया । अक्रूर को चर्तुभुज रुप का दर्शन जल में दिया । रुकिमणी को मूर्छा अवस्था में भी चर्तुभुज रुप का दर्शन दिया तथा अर्जुन ने भी ऐसा कहा है कि -
'ते नैव रुपेण चर्तुभुजेन
सहस्रवाहो भव विश्वमूर्ते ।'
इस तरह से अर्जुन भी चर्तुभुज रुप को देखा करते थे और यादवों के संहार के बाद जब श्रीकृष्ण भगवान पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे थे, उस समय उद्धवजी तथा मैत्रेय ऋषि ने शंख, चक्र, गदा, पद्म सहित पीताम्बरधारी भगवान का चर्तुभुज रुप देखा था । श्रीकृष्ण भगवान तो श्यामवर्ण थे परन्तु उनका रुप तो करोडों कामदेवों को लज्जित करनेवाला है । अतः वे मनुष्य सहश दिखायी देते हैं । फिर भी उनमें ही पूर्वोक्त प्रकाश एवं दिव्य सुख है, जिसे ध्यान धारणा आदि अष्ट अंगो से समाधि सिद्ध हो उसको भगवान की मनुष्यमूर्ति कोटि-कोटि सूर्यों के प्रकाश से परिपूर्ण दिखायी देती है । परन्तु मशाल या दीपक का काम नहीं पडता है । ऐसा प्रकाश उस भगवान में है तो भी वह दिखायी नहीं पडता। यह तो भगवान की ऐसी इच्छा है । यदि भगवान की इच्छा हो जाय कि मैं इस भक्त को ऐसा प्रकाशवान दिखायी दूँ तभी वह ऐसी प्रकाशयुक्त मूर्ति को देख पाता है । जिसे भगवान के स्वरुप में ऐसा निश्चय हो जाता है और वह यह मानता है कि ये भगवान गोलोक, बैकुंठ, श्वेतद्वीप, ब्रह्मपुर धामों के ऐश्वर्यो समृद्धि तथा पार्षदों के सहित रहते हैं तथा राधिका लक्ष्मी आदि इनकी सेवा करती हैं । भक्त भगवान को ऐसे परम भाव से देखते हैं और जो मूर्ख हैं उन्हें मनुष्य भाव से देखते हैं । गीता में श्रीकृष्णने कहा है कि -
'अवजानन्ति मां मूढाः, मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परम्भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।'
अतः जो मूर्ख हैं वे भगवान के परम भाव को जाने बिना भगवान में अपने समान मनुष्यभाव को देखते हैं । वह मनुष्य भाव क्या है ? काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा, तृष्णा आदि अन्तःकरण के भाव हैं तथा हाड, चाम, मलमूत्र तथा जन्म, मरण, बाल, यौवन, वृद्धावस्था यह सभी देह के भाव हैं । उनकी कल्पना ऐसे पुरुष भगवान में करते हैं । अतः ऐसे भावों की कल्पना करनेवालों को भगवान के स्वरुप का निश्चय प्रतीत रहता है तो भी उनका निश्चय अपरिपक्व रहता है और सत्संग में से अवश्य उसका पतन हो जाएगा ।
भगवान तो परम दिव्य मूर्ति हैं । उनमें लेशमात्र भी मनुष्य भाव नहीं है । अतः भगवान में मनुष्य भाव को टालकर देवभाव, ब्रह्मादिक भाव, प्रधानपुरुष का भाव, प्रकृतिपुरुष का भाव, अक्षर का भाव उसके पश्चात अक्षरातीत ऐसे पुरुषोत्तम का भाव आता है । जैसे व्रज के ग्वालों को आश्चर्यरुप श्रीकृष्ण भगवान के चरित्रों को देखकर पहले तो देहभाव आया उसके बाद गर्गाचार्य के वचनों को सुनकर नारायण का भाव आया । उन्होंने यह कहा कि 'आप तो नारायण हैं । अतः आप अपना धाम हमें दिखाइये ।' तब अक्षरधाम दिखाया । इस तरह से भगवान में जिसे दिव्यभाव रहता है उसे पूर्ण निश्चयवाला जानना चाहिए । ऐसा कहते हैं कि - 'जिसे प्रथम भगवान का निश्चय नहीं था अब हुआ है तो क्या वह भगवान को पहले नहीं देखता था ?' देखता तो था । परन्तु मनुष्य भाव से देखता था । बाद में जब उसे निश्चय हो गया तब उसने भगवान का दिव्य भाव से दर्शन किया । तब यह समझना चाहिए कि उसे भगवान का निश्चय हो गया है ।
जब वह भगवान में दिव्यभाव की अनुभूति नहीं कर लेता तब उसे बात बात में बुरा लगता है और वह भगवान के गुण अवगुण लेता रहता है, और वह समझता है कि - 'भगवान इसका पक्ष लेता है और मेरा पक्ष नहीं लेते । इसको अधिक बुलाते हैं और हमें नहीं बुलाते, इसके ऊपर अधिक हेत है किन्तु मुझ पर प्रेम नहीं है । इस प्रकार से अन्तःकरण दिन-प्रतिदिन पीछे हटता जाता है । मनुष्य भाव नहीं देखना चाहिए और न ही भगवान के भक्तों में मनुष्य भाव की कल्पना करनी चाहिए । भगवान के भक्तों में शरीर द्वारा कोई अंधा, कोई लंगडा, कोई कोढी, कोई बहरा, कोई वृद्ध और कोई कुरुप होता है और ये सभी जब देहत्याग करते हैं तो क्या ऐसे भगवान के धाम में अंधे लंगडे हो रहते हैं? नहीं रहते हैं । वे तो सब मनुष्य भाव हैं । इनका परित्याग करके मनुष्य दिव्यरुप हो जाता है, ब्रह्मरुप हो जाता है । अतः हरिभक्त में मनुष्यभाव की कल्पना न की जाय तो परमेश्वर में उसकी कल्पना किस तरह की जा सकती है ? इस बात को भले ही आज समझ लीजिए चाहे सौ वर्षो में समझिए तब भी उसे ऐसी समझनी है । इस बात को दृढतापूर्वक समझकर गाँठ बाँधनी ही पडेगी । अतः मेरी इस बात को समस्त हरिभक्तों को याद रखकर परस्पर एक दूसरे से कहनी चाहिए । यदि किसीको अज्ञातवश धोखा हो जाये तो यह बात करके सावधान कर देना चाहिए । यह मेरी वार्ता नित्य प्रतिदिन एक बार करते रहना चाहिए ऐसी मेरी आज्ञा है । इसे भूलियेगा नहीं । अवश्य भूलियेगा नहीं ।' इतना कहकर श्रीजी महाराज समस्त हरिभक्तों को 'जय स्वामिनारायण' कहकर अपने निवासस्थान पधारे । श्रीजी महाराज की वार्ता को सुनकर समस्त साधु तथा समस्त हरिभक्त श्रीजी महाराज को समस्त अवतारों का कारण अर्थात अवतारी जानकर उनके स्वरुप में दिव्यभाव की अत्यंत दृढता का अनुभव करने लगे ।
इति वचनामृतम् ।।१८।। ।। १२६ ।।
।। श्री लोया प्रकरणम् समाप्तम् ।।