संवत् १८ के कार्तिक शुक्लपक्ष की पंचमी को स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री कारियाणी ग्राम स्थित वस्ताखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज ने नित्यानन्द स्वामी तथा ब्रह्मानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा कि - 'जिसमें ऐसा मलिनतापूर्ण क्रोध हो कि जिसके साथ सम्बन्ध बिगड जाय उसके साथ कभी भी समाधान न करें । जड की तरह क्रोध ही किया करे ऐसा जो हो उसे साधु कहा जाय या नही ?' दोनों मुनि बोले कि - 'उसे साधु नहीं कहा जा सकता ।'
मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'हे महाराज ! भगवान के जिस भक्त के हृदय में किसी भगवदीय का अवगुण आता हो तथा उससे उस भगवान के भक्त पर गुस्सा आता हो तो उस अवगुण को टालने के लिए कौन सा उपाय है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसके हृदय में भगवान की भक्ति हो और भगवान की महिमा जानता हो उसे भगवान के भक्त का अवगुण नहीं आता है और उस भक्त के प्रति क्रोध की गांठ भी नहीं बंधती । उद्धवजी भगवान की महिमा जानते थे तो उन्होंने ऐसा वरदान मांगा कि - 'इन गोपियों के चरणरज के अधिकारी इस वृन्दावन में लता, तृणों और गुच्छों में से मैं कोई भी होऊँ' श्रीकृष्ण भगवान ने बलदेवजी से यह कहा कि वृन्दावन में स्थित वृक्ष, पक्षी तथा मृग अत्यन्त महान भाग्यशाली हैं । ब्रह्माजी ने भी श्रीकृष्ण भगवान से यह वर मांगा कि हे प्रभो ! इस जन्म में अथवा पशुपक्षियों के जन्म में आपके दास के बीच में रहकर मैं आपके चरणारविन्दों की सेवा करुँ ऐसा मेरा महान भाग्य हो ।''
अतः जब ऐसा व्यक्ति भगवान के भक्त ही महिमा समझे तब भगवान के भक्त के प्रति कभी भी उसमें अवगुण की गांठ नहीं बंधती । अपने इष्टदेव प्रत्यक्ष भगवान के भक्त में यदि अल्प दोष रहा हो तो उसकी महिमा समझने वाले की दृष्टि में आता ही नहीं है । जो भगवान की महिमा को जानते हैं वह तो भगवान के सम्बन्ध को प्राप्त हुए पशुपक्षियों तथा वृक्षवेलियों आदि को भी देव तुल्य समझते हैं । तब भगवान की भक्ति जो मनुष्य करता हो तथा व्रतों का पालन तथा भगवान का नाम स्मरण करनेवाले को देव तुल्य मानता हो तब उसमें कोई दोष न देखे तो इसके लिये कहना ही क्या ? अतः जो भगवान की महिमा समझता है उसका भगवान के भक्त के साथ वैर नहीं रहता और जो भगवान के माहात्म्य को नहीं जानता उसका भगवद भक्त के साथ वैर जरुर हो जाता है । यदि कोई भगवान और भगवान के भक्त की महिमा को नहीं जानता फिर भी सत्संगी बना हुआ है तो भी उसे आधा विमुख जानना चाहिये । परन्तु जो भगवान तथा उनके भक्त की महिमा समझता हो उसे पूर्ण सत्संगी मानना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।।९।। ।। १०५ ।।