संवत् १८ के कार्तिक शुक्ल पक्ष की दशमी को रात्रि के समय स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री कारियाणी ग्राम में वस्ताखाचर के दरबार में पूर्वी द्वार के कमरे में विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष दस बारह बडे सन्त तथा पाँच-छह हरिभक्त बैठे थे । श्रीजी महाराज को कुछ ज्वर था । वे अंगीठी आगे रखकर ताप रहे थे । श्रीजी महाराज ने मुक्तानन्द स्वामी से कहा कि - 'हमारी नाडी देखिये । देह में कुछ कसर मालूम होती है ।' मुक्तानन्द स्वामी ने नाडी देखकर कहा कि - 'हे महाराज ! कसर तो बहुत है । पुनः यह कहा कि हे महाराज ! अभी सत्संगियों का कठिन काल दिखता है क्योंकि आप तो समस्त सत्संगियों के जीवन प्राण हैं । आपके शरीर में जो ज्वर प्रतीत होता है वही समस्त सत्संगियों के लिये कठिन काल है ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान को प्रसन्न करने के लिये नारदजी ने कितने युगों तक शीत-धूप तथा भूख-प्यास को सहन करके महा तप किया। उन्होंने उसी तप के द्वारा भगवान को प्रसन्न किया । जो विवेकशील पुरुष होते हैं वे ज्ञानपूर्वक अपनी देह और इन्द्रियों का दमन करके तप करते हैं । अतः विवेकी साधुओं का बुद्धिपूर्वक अपनी देह इन्द्रियों को कष्ट देना चाहिये । तब जो ईश्वर इच्छा से कष्ट आये उसे मिटाने की इच्छा क्यों करनी चाहिये । त्यागी साधु को तो अपने मन में ऐसी दृढ रुचि रखनी चाहिये कि मुझे तो देवलोक, ब्रह्मलोक, बैकुंठ आदि लोकों के पंचविषय सम्बन्धी भोग तथा सुख नहीं चाहिए। मुझे तो अभी अपने जीवन पर्यन्त तथा देहान्त होने के बाद बद्रीकाश्रम तथा श्वेतद्वीप में जाकर तपस्या द्वारा भगवान को प्रसन्न करना है । चाहे एक जन्म, दो जन्म तथा सहस्त्र जन्मों तक भी तप करके ही भगवान को प्रसन्न करना है ।' जीव का कल्याण तो इतनी बात में है कि 'प्रकट प्रमाण श्रीकृष्ण नारायण द्वारा ही किया सब कुछ होता है । परन्तु काल, कर्म और मायादिक का किया हुआ कुछ नहीं होता । इस प्रकार से भगवान में ही एक कर्तृत्व के भाव को समझ लेना चाहिए । यही कल्याण का परम कारण है ।'
श्रीजी महाराज ने कहा - 'जो तप करता है वह भगवान की प्रसन्नता का हेतु है तप में भी जो राधिकाजी तथा लक्ष्मीजी की प्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा जो भाव रखती है वैसा ही भाव रखना चाहिए । यदि कोई तप न करे और भगवान को ही सर्व कर्ता समझे तो वह जीव जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त तो हो सकता है । परन्तु तप किये बिना जीव पर भगवान की प्रसन्नता नहीं हो सकती । जो जीव भगवान को ही कर्ता-हर्ता नहीं मानता तो उससे अधिक कोई पापी नहीं है । वह तो गौहत्या, ब्रह्महत्या, गुरुस्त्रीसंग तथा ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु का द्रोह करनेवाले पुरुष की अपेक्षा घोर पापी ऐसा समझना चाहिए । यदि वह भगवान को कर्ता न मानकर दूसरे काल कर्मियों को कर्ता समझता है तो ऐसे नास्तिक चाण्डाल की छाया में भी नहीं खडा रहना चाहिए और भूल से भी उसके मुख का वचन नहीं सुनना चाहिए । भगवान के जो भक्त हों वे परमेश्वर के प्रताप से ब्रह्मा, शिव, शुकजी, नारदजी तथा प्रकृति पुरुष और ब्रह्म एवं अक्षर जैसे हों तो भी पुरुषोत्तम नारायण के समान सामर्थ्य वाले होने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता । अतः जिसका संग करने से तथा जिस शास्त्र का श्रवण करने से भगवान की उपासना का खंडन होता हो, और स्वामी सेवक का भाव टल जाता हो तो उस संग का तथा उस शास्त्र का श्वपच की तरह तत्काल त्याग कर देना चाहिए ।''
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! जो भक्त सुन्दर वस्त्रों, अलंकारों तथा अनेक प्रकार के भोजनों और अन्य वस्तुओं द्वारा भगवान की सेवा करता है वह भी भगवान को प्रसन्न करना चाहता है । परन्तु, आप तो ऐसा कहते हैं कि भगवान तप द्वारा ही प्रसन्न होते हैं । वह तय के बिना ही ऐसी सेवाओं द्वारा भगवान को प्रसन्न करना चाहता है, तो उसमें अनुचित क्या है ?''
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो भक्त अच्छे-अच्छे पदार्थों द्वारा भगवान की भक्ति करता है । यदि वह निष्काम भाव से केवल भगवान को प्रसन्न करने के लिए ऐसा करता है तब तो ठीक है । परन्तु यदि वह स्वयं इन पदार्थों को भगवान की प्रसादी समझकर उन वस्तुओं की ओर आकृष्ट हो जाता है और भगवान को छोडकर उनसे आसक्ति करने लगता है । तो वह उन पदार्थों को भोगते हुए विषयासक्त होने के कारण भ्रष्ट हो जाता है । यही बाधाजनक होता है । अतः त्यागी भक्त को तो भगवान को ही सर्वकर्ता समझकर तप करके ही भगवान को प्रसन्न करना चाहिए तथा राधिकाजी और लक्ष्मीजी की तरह प्रेमलक्षणा भक्ति द्वारा भगवान का भजन करना चाहिये । यही हमारा सिद्धान्त है ।'
ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! इस लोक में तथा परलोक में हमारा कल्याण हो ऐसा उपाय बताइये ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह जो हमारा सिद्धांत है, वही इस लोक तथा परलोक में परमसुख का हेतु है ।'
गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! त्याग तथा तप करने की मनमें इच्छा तो रहे, किन्तु त्याग या तप करते समय बीच में यदि कोई विघ्न आ जाय तो उसके लिए क्या करना चाहिए ?''
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे जिस बात की सच्ची चाह रहती है उसके सामने बीच में यदि हजारों विघ्न उपस्थित हो जायें तो भी वह इनके रोकने से न रुके तब उसकी चाह को सच्चा समझना चाहिए । देखिए हम इक्कीस वर्षों से श्री रामानन्द स्वामी के पास रहे हैं । यहाँ अनेक प्रकार के वस्त्रों अलंकारों और खान पान आदि द्वारा सेवा करनेवाले असंख्य भक्त मिले हैं । परन्तु हमें किसी भी पदार्थ की लालसा नहीं है, क्योंकि हमें तो त्याग की ही चाहना है।
इस संसार में कितनी ही स्त्रियाँ हैं जिनके पति की मृत्यु पर उनके लिए छाती कूटकूट कर रोती ही रहती हैं और कितनी ही स्त्रियाँ ऐसी भी हैं कि अपने विवाहित पति का त्याग करके भगवान का भजन करती रहती हैं । कितने ही मूर्ख पुरुष हैं जो अपनी स्त्रियों को प्राप्त करने के लिए दौडते रहते हैं । कितने ही वैराग्यवान पुरुष ऐसे भी हैं जो विवाहिता स्त्री का अपने घरों में ही परित्याग करके परमेश्वर का भजन करते रहते हैं । इस प्रकार से सबकी चाहना भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है । मेरी तो चाहना और सिद्धान्त यही है कि तप द्वारा भगवान को प्रसन्न करना चाहिए । भगवान को ही सबका कर्ता-हर्ता जानकर स्वामी-सेवक भाव से परमेश्वर की भक्ति करनी चाहिए तथा भगवान की उपासना को खंडित नहीं होने देना चाहिए । इसके लिए आप सभी को मेरे इस वचन को परम सिद्धान्त के रुप में मानना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।।१०।। ।। १०६ ।।