वचनामृतम् ८

संवत् १८ के कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन श्रीजी महाराज श्री कारियाणी ग्राम में वस्ताखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे और समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनियों तथा देश-देश की हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
         
मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - ''हे महाराज ! वेदों, शास्त्रों, पुराणों और इतिहास में भगवान के सगुण तथा निर्गुण स्वरुपों का निरुपण किया गया है । तो भगवान पुरुषोत्तम के स्वरुप को किस प्रकार से समझना चाहिये तथा सगुण स्वरुप को किस प्रकार से समझना चाहिये ? भगवान के सगुण तथा निर्गुण स्वरुपों को समझने से भगवान के सगुण तथा निर्गुण स्वरुपों को समझने से भगवान के भक्त की बुद्धि में कितना ज्ञान होता है ?'
         
श्रीजी महाराज ने कहा कि - ''भगवान का निर्गुण स्वरुप तो सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म तथा पृथ्वी आदि समस्त तत्व, उनसे परे प्रधानपुरुष, उस प्रधान पुरुष से परे शुद्ध पुरुष तथा प्रकृति और उनसे परे अक्षर की भी आत्मा है और ये सब भगवान की आत्मा हैं । जैसे देह से जीव सूक्ष्म है, शुद्ध है तथा अतिशय प्रकाशमान है उसी तरह से भगवान इस सबसे अतिशय सूक्ष्म, अतिशुद्ध, अति निर्लेप और अत्यन्त प्रकाश युक्त है । जैसे आकाश पृथ्वी आदि चार भूतों में व्यापक है तथा उन से सत्संगी है और उन चार भूतों से निर्लिप्त है । क्योंकि आकाश तो अतिशय निर्लेप रहकर इन चार भूतों में रहा है । उसी प्रकार से पुरुषोत्तम भगवान सबके आत्मारुप होकर उनमें रहे हैं । तब भी अत्यन्त निर्विकार असंगी और स्वयं अपने स्वभाव से युक्त हैं और उनके सदृश होने में कोई समर्थ नहीं होता जैसे आकाश चार भूतों में रहा है किन्तु वे आकाश के समान निर्लेप और असंगी होने में समर्थ नहीं होते वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान सबकी आत्मा हैं फिर भी अक्षर पर्यन्त कोई भी उनके समान होने में समर्थ नहीं होता । इस तरह से अति सूक्ष्मता, अति निर्लेपता, अतिशय शुद्धता, अति असंगी भाव, अत्यन्त प्रकाशयुक्त और अत्यन्त ऐश्वर्य युक्त ये सभी उन भगवान की मूर्ति में निर्गुणता के प्रतीक हैं । जैसे गिरनार पर्वत को लोकालोक पर्वत के पास रखा जाय तो वह अत्यन्त छोटा दिखाता है, परन्तु गिरनार पर्वत छोटा नहीं हुआ वह तो लोकालोक पर्वत के आगे छोटा है । उसी तरह से पुरुषोत्तम भगवान की महानता के आगे अष्ट आवरण युक्त अनन्त कोटि ब्रह्मांड अणु सदृश अति सूक्ष्म दिखाई पडते हैं । इससे ब्रह्मांड कहीं छोटा नहीं हो गया । वह तो भगवान की महानता के आगे छोटा दिखायी देता है । इसी तरह से भगवान की मूर्ति में जो अत्यन्त महत्ता है वह भगवान की सगुणता है ।''
         
तब किसी को ऐसी आशंका हो कि - ''भगवान निर्गुण रुप से तो अति सूक्ष्म हैं तथा स्थूल रुप से अतिस्थूल से स्थूल हैं तब इन दोनों रुपों को धारण करनेवाले भगवान का मूल स्वरुप कैसा है ?''
         
इसका उत्तर यह है कि - 'प्रकट प्रमाण भगवान मनुष्याकार में दिखाई देते हैं । यही भगवान का सदैव मूल स्वरुप है । निर्गुण तथा सगुणभाव इस मूर्ति के अलौकिक ऐश्वर्य है । जैसे श्रीकृष्ण भगवान ब्राह्मण के पुत्र को लाने के लिये अर्जुन के साथ रथ में बैठकार चले तब लोकालोक पर्वत को पार करने के बाद माया का तम आया उसे उन्होंने सुदर्शन चक्र द्वारा काट दिया और उसके ऊपर ब्रह्मज्योति में रहनेवाले भूमापुरुष के पास से ब्रह्मा के पुत्र को ले आये।  तब रथ और घोडा मायिक और स्थूल भाव से युक्त थे परन्तु श्रीकृष्ण भगवान के योग से अतिसूक्ष्म और चैतन्य होकर वे भगवान के निर्गुण ब्रह्मधाम को प्राप्त हुए । इस तरह से स्थूल पदार्थ को सूक्ष्मभाव प्रदान करा देना श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति में निर्गुण भाव है, और वही श्रीकृष्ण भगवान ने अपनी माता यशोदा को अपने मुख में अष्टावरण युक्त समग्र ब्रह्मांड दिखलाया और अर्जुन को  अपनी मूर्ति में विश्वरुप का दर्शन कराया था । किन्तु अर्जुन के सिवा अन्य लोग  तो भगवान की साढे तीन हाथ की मूर्ति ही देख रहे थे । जब भगवान ने वामन अवतार धारण किया तब पहले तो उन्होंने वामनरुप में दर्शन दिये और राजाबालि से तीन चरण पृथ्वी कृष्णार्पण करा लेने के बाद अपना स्वरुप इतना बढाया कि उनका एक चरण सात पातालों तक फैल गया और आकाश में उनका शरीर समा गया । दूसरा चरण उन्होंने ऊँचा रखा । जिससे सात स्वर्गों को बेधकर अंडकटाह को फोड डाला । भगवान के ऐसे विराट स्वरुप को बलि राजा ने देखा । बलि राजा के सिवा अन्य लोगों ने तो भगवान को वामन स्वरुप में ही देखा । इस तरह से भगवान की अतिशय महानता में से जो महानता दिखायी पडे उसे ही भगवान की मूर्ति में सगुणभाव समझना चाहिये । जैसे आकाश शीतकाल तथा उष्णकाल में बादल रहित रहते हैं । किन्तु वर्षाकाल के आते ही वह असंख्य बादलों की घटाओं से घिर जाता है । आकाश में बादल काल द्वारा पैदा होते हैं और विलीन हो जाते हैं । वैसे ही भगवान अपनी इच्छा से अपने में से निर्गुण और सगुण रुप ऐश्वर्यों को प्रकट करते हैं और फिर उन्हें अपने में ही विलीन कर लेते हैं । ऐसे भगवान मनुष्य के सदृश दिखायी देते हैं । फिर भी उनकी महिमा का कोई पार नहीं पा सकता । जो भक्त इस प्रकार भगवान की मूर्ति में निर्गुण-सगुण भाव को समझ लेता है उस भक्त को काल कर्म तथा माया बन्धनकारी नहीं होते हैं । उसके अन्तःकरण में तो आठों प्रहर आश्चर्य ही रहता है ।            

इति वचनामृतम् ।।८।।  ।। १०४ ।।