वचनामृतम् ७

संवत् १८ में कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को रात्रि के समय श्री कारियाणी ग्राम स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के आगे दीपमाला जल रही थी । उस दीपमाला के मध्य में मंच था और उस पर पलंग बिछा था । उस पलंग पर श्रीजी महाराज विराजमान थे । उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
ग्राम बोचासणवासी काशीदास ने श्रीजी महाराज से प्रश्न पूछा कि - 'अनुगामी होने के कारण भगवान में अखंड वृत्ति बनाये रखते हैं तथा गृहस्थाश्रमी प्रवृत्ति मार्ग पर चलते हैं । इसलिये वे अनेक समस्याओं में घिरे रहते हैं । अतः उस गृहस्थाश्रमी की भगवान में अखंड वृत्ति रहे, ऐसा कौन सा उपाय है ?'
         
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'गृहस्थ को तो ऐसा समझना चाहिये जैसे पहले की चौरासी लाख योनियों में मेरे माँ-बाप और स्त्री पुरुष थे वैसे ही इस देह के भी हैं । कितने ही जन्मों की कितनी माता बहनें और लडकियाँ जहाँ तहाँ घूमती फिरती होगी । जिस तरह से मुझे उनकी ममता नहीं रही वैसे ही इस देह के सम्बन्धियों से भी मुझे ममता नहीं रखनी चाहिये । ऐसा विचार करके सबमें से आसाक्त छोडकर भगवान से ही दृढ प्रीति करनी चाहिये और सन्त समागम करना चाहिये । ऐसा करने से गृहस्थ को भी त्यागी की तरह भगवान में अखंड वृत्ति रहती है ।'
         
श्रीजी महाराज की इस बात को सुनकर सभा में बैठे समस्त गृहस्थों ने हाथ जोडकर पूछा कि 'हे महाराज ! जिस गृहस्थ से ऐसा न हो उसका क्या हाल होगा ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि यह बात तो हमने उन लोगों के लिये कही है जो भगवान के बिना अन्य पदार्थों से समस्त वासनाओं का त्याग करके भगवान में अखंड वृत्ति रखते हैं । यदि वह ऐसा हिम्मतवाला न हो तो उसे सत्संग की धर्ममर्यादा में रहना चाहिये । और सन्त तथा भगवान के आश्रय का बल रखना चाहिये कि भगवान तो अधर्मों के उद्धारक और पतित पावन हैं । वे मुझे साक्षात मिले हैं ।' श्रीजी महाराज के इन वचनों को सुनकर समस्त हरिभक्त अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
         
श्रीजी महाराज ने सन्तों से प्रश्न पूछा कि - ''वैराग्य के उदय होने का क्या कारण है ?'' तब जिसे जैसा समझ में आया उसने वैसा ही उत्तर दिया। किन्तु श्रीजी महाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ । बाद में समस्त मुनि यह बोले कि - ''हे महाराज ! इसका उत्तर आप ही दीजिए ।''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'वैराग्य के उदय होने का कारण तो यह है कि सद्ग्रन्थों तथा सत्पुरुषों के वचनों को सुनकर जिसे स्फूर्ति उत्पन्न हो और वह फिर समाप्त न होने पाये तो वही वैराग्य का कारण बन जाता है । दूसरी कोई बात वैराग्य का कारण नहीं बनती । जिसे इस प्रकार की लगनी लगती है वह तामसिक हो, राजसिक या सात्विक हो उन सबको वैराग्य उत्पन्न होता है और जिसे लगनी न लगती हो उसे वैराग्य नहीं हो सकता है । जिसे लगनी उत्पन्न होकर थोडे दिनों के बाद मिट जाती हो उसे तो वैसी लगनी का वैराग्य अत्यंत विनाश का कारण बन जाता है क्योंकि जब उसे लगनी लगती है तब वह घर छोडकर चला जाता है और भेष लेनें के बाद जब उसकी लगनी समाप्त हो जाती है और उसके जाने के बाद उसका घर धूल में मिल जाता है । तब वह पुरुष दोनों तरफ से भ्रष्ट हो जाता है जैसे धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का रहता है । परन्तु जो दृढ वैराग्य वाला होता है वह परम पद को प्राप्त करता है ।'
         
श्रीजी महाराज ने अति प्रसन्न होकर परमहंसों से दूसरा प्रश्न किया कि - 'आत्यन्तिक कल्याण किसे कहा जाय ? जो आत्यन्तिक कल्याण को पाकर सिद्ध दशा को प्राप्त कर लेता है उसकी समस्त क्रियाओं में कैसी स्थिति रहती है ?'
         
इस प्रश्न का उत्तर भी समस्त मुनियों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार दिया किन्तु प्रश्न का समाधान न हो पाया । तब समस्त मुनियों ने हाथ जोडकर श्रीजी महाराज से कहा कि ''हे महाराज ! इसका उत्तर आप ही दीजिए ।''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब ब्रह्मांड का प्रलय होता है तब प्रकृति के कार्यरुप चौबीस तत्व प्रकृति में लीन हो जाते हैं और प्रकृति पुरुष भी अक्षर ब्रह्म के तेज में अदृश्य हो जाते हैं । बाद में सच्चिादानन्द (चिद्धन) तेज रहता है । उस तेज में दिव्यमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव अखंडरुप से विराजमान रहते हैं । वे ही स्वयं दिव्यमूर्ति होकर जीवों के कल्याण के लिये मनुष्याकृति द्वारा पृथ्वी पर समस्त लोगों के लिये द्रष्टिगोचर होकर विचरण करते रहते हैं। जगत में जो ना समझ मूर्ख जीव हैं वे उन भगवान को मायिक गुणों से युक्त कहते हैं । परन्तु भगवान तो मायिक गुण मुक्त नहीं हैं । वे तो सदैव गुणातीत दिव्यमूर्ति ही हैं । उसी भगवान का साकार दिव्यरुप का प्रतिपादन वेदान्त शास्त्र में निर्गुण, अभेद्य और सर्वव्यापी रुप में किया गया हैं वे भगवान तो उत्पत्ति स्थिति तथा प्रलय कालायण में एकरुप से ही विराजमान रहते हैं । परन्तु मायिक पदार्थों की तरह विकार को नहीं प्राप्त करते हैं । सदा दिव्यरुप से विराजमान रहते हैं । इस प्रकार से प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम में जो दृढ निष्ठा रहती है उसी को आत्यान्तिक कल्याण कहते हैं । ऐसी निष्ठा को पाकर जिस सिद्ध दशा प्राप्त होती है कि वह पिंड, ब्रह्मांड तथा प्रकृति पुरुष प्रलय होने के बाद अक्षरधाम में अखंड रुप से विराजमान भगवान की मूर्ति को स्थावर जंगम आदि सभी आकारों में सर्वत्र दृष्टि पहुँचने पर साक्षात देखता है । तब उसे इस मूर्ति के सिवा अन्य अणु मात्र भी नहीं दिखाई पडता है । सिद्ध दशा का यही लक्षण है ।'
                              
इति वचनामृतम् ।। ७ ।। ।। १०३ ।।