वचनामृतम् ६

संवत् १८ के आश्विन कृष्णपक्ष (कार्तिक) की अमावस्या को दिवाली के दिन ग्राम श्री कारियाणी में वस्ताखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के आगे दीपमाला सजी थी और दीपमाला के बीच में मंच बांधा था और उस मंच पर छपर पलंग बिछाया था । उस पर स्वामी श्री सहजानन्द जी विराजमान थे। सुनहरी बूटी का लात किनखाब का चूडीदार पायजामा पहना था । नरनारायण स्वामीनारायण नामवाली किनखाब की काले रंग की बंडी पहनी थी । सिर   पर सुनहरी तार से युक्त कुसुम्भी पाग बाँधी थी और आसमानी रंग का फेंटा कमर में कसकर बाँधा था तथा कंठ में पीले रंग के पुष्पों का हार धारण किया था । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
इसमें दीव-द्वीप के हरिभक्त आये थे । उन्होंने श्रीजी महाराज की पूजा करने के लिये प्रार्थना की । तत्पश्चात श्रीजी महाराज सिंहासन के ऊपर से नीचे उतर कर उन भक्तों के सामने गये और उनकी पूजा को अंगीकार किया । उनके दिये हुए वस्त्र तथा पीला छत्र, पादुका ग्रहण करके पुनः उस सिंहासन पर             विराजमान हुए ।
         
तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'कितने वर्षों से अनेक हरिभक्त हमारे लिए वस्त्र तथा हजारों रुपये के अलंकार लाते हैं परन्तु हम इस तरह से किसी के सामने जाकर ऐसी वस्तुओं को ग्रहण नहीं करते तथा इस प्रकार किसी के वस्त्र और आभूषण पहनकर भी प्रसन्न नहीं हुए । आज तो हमें इन हरिभक्त पर अतिशय प्रसन्नता हुई ।'
         
मुनिजन ने कहा कि - 'ऐसे ही ये प्रेमी हरिभक्त हैं ।' उसी समय दीनानाथ भट्ट आकर श्रीजी महाराज के चरणों को छूकर बैठे । तब श्रीजी महाराज ने समस्त बहुमूल्य वस्त्र दीनानाथ भट्ट को दे दिए ।
         
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! भगवान अपने भक्त के किस गुण से प्रसन्न होते हैं ?'
         
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'जो भक्त काम, क्रोध, लोभ, कपट, मान ईष्या और मत्सर आदि से रहित होकर भगवान की भक्ति करते हैं । उसके ऊपर भगवान प्रसन्न होते हैं । इनमें मत्सर समस्त विकारों का आधार है । अतः श्री व्यासजी ने श्रीमद्द भागवत में निर्मत्सर सन्त को ही भागवत-धर्म का अधिकारी कहा है । अतः मत्सर समस्त विकारों से सूक्ष्म है और उसे मिटाना भी                      कठिन है ।'
         
ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'मत्सर मिटाने का क्या उपाय है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'सन्त के मार्ग पर चलने वाला जो पुरुष सन्त जैसा हो उसका मत्सर मिटता है । किन्तु उस मनुष्य का मत्सर नहीं मिटता जो सन्त के मार्ग पर नहीं चलता है ।'
         
मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'मत्सर उत्पन्न होने का क्या कारण है?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'एक स्त्री, दूसरा धन, तीसरा अच्छा भोजन ये तीनों मत्सर के हेतु हैं, और जिसमें ये तीन चीजें नहीं उसमें मान-मत्सर की उत्पत्ति के कारण बन जाता है । जो मत्सर स्वभाव वाला होगा उसे तो इस बात पर भी मत्सर उत्पन्न होगा कि हमने भट्टजी को वस्त्र दे दिए । परन्तु उसे यह विचार नहीं आयेगा कि जो हरिभक्त वस्त्र लाये थे, वे धन्य हैं कि उन्होंने इतने कीमती कपडे महाराज को पहनाये और महाराज को भी धन्य है कि उन्होंने तुरन्त ब्राह्मण को दे दिए ऐसा विचार मत्सर वाले के हृदय में नहीं आता, कोई ले, कोई दे तो भी बीच में खाली-खाली मत्सर स्वभाववाला जल मरता है । हमें तो हृदय में लेशमात्र भी काम, क्रोध, लोभ, मान, मत्सर, ईष्या कभी नहीं आते। शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध इन पाँच इन्द्रियों का हृदय में अत्यन्त अभाव रहता है । परन्तु पंच विषयों में से किसी एक के लिये भी लेशमात्र भाव नहीं आता । जो कुछ भी अन्न-वस्त्र यदि ग्रहण करते हैं वह तो भक्त की भक्ति को देखकर करते होगें, परन्तु अपने शरीर के सुख के लिये नहीं करते हैं । मेरा तो जो खाना, पीना, ओढना, पहनना है ये सभी सन्त और सत्संगी के लिये हैं । यदि उनके लिये न होकर मेरे सुख के लिये हैं ऐसा प्रतीत हो जाय तो हम उसका तत्काल त्याग कर देते हैं । हम यह देह सत्सगियों के लिये ही रखते हैं । किन्तु शरीर को बनाये रखने का कोई दूसरा कारण नहीं है । हमारे इस स्वभाव को तो मूलजी ब्रह्मचारी तथा सोमलाखाचर आदि हरिभक्त जो कितने ही वर्षों से हमारे पास रहे हैं वे अच्छी तरह से जानते हैं कि 'महाराज को एक प्रभु के भक्तों के सिवा किसी के साथ प्रेम सम्बन्ध नहीं है । महाराज तो आकाश के समान निर्लेप हैं ।' जो हमारे पास हमेशा रहनेवाले हैं वे हमारे इस स्वभाव को जानते हैं । हमने तो मन, कर्म, वचन से जो परमेश्वर के भक्त हैं उनके लिये अपनी देह को भी श्री कृष्णार्पण कर दिया है । अतः जो सर्व प्रकार से भगवान के भक्त हैं उनके साथ हमारा सम्बन्ध है और भगवान के भक्तों के बिना तो हमारे लिये चौदह लोक की सम्पत्ति भी तृण के समान है । जो भगवान के भक्त हैं जिन्हें भगवान के साथ दृढ प्रीति हैं उन्हें रमणीय जो पंच विषय हैं उनमें आनन्द नहीं आता और शरीर को रखने के लिये जैसे-तैसे शब्दादि विषयों से गुजरान करते हैं । परन्तु रमणीय विषयों से तत्काल उदास हो जाते हैं ऐसे जो व्यक्ति होते हैं वे ही परिपूर्ण भक्त कहलाते हैं ।'
                          
इति वचनामृतम् ।।६।।  ।। १०२ ।।