संवत् १८ के आश्विन कृष्णपक्ष चर्तुदशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम श्री कारियाणी में वस्ताखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में छपर पलंग पर विराजमान थे । वे सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये हुये थे । और उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'हम एक प्रश्न पूछते हैं, मुनि बोले कि पूछिये महाराज !'
श्रीजी महाराज ने पूछा कि - 'भगवान जीवों के कल्याण के लिये पृथ्वी पर अवतार धारण करते हैं । क्या अवतार धारण किये बिना अपने धाम में रहकर वे कल्याण करने में समर्थ नहीं है ? जीवों का कल्याण तो भगवान अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं । तो अवतार धारण करने का क्या प्रयोजन है ?' यदि अवतार धारण कर के ही भगवान में कल्याण करने का सामर्थ्य हो और अवतार धारण किये बिना जीवों का कल्याण न कर सकते हों तो भगवान के सामर्थ्य में असमर्थता रहे । अतः भगवान अवतार धारण करके और अवतार के बिना भी जीव का कल्याण करने में समर्थ हैं । इसलिये ऐसे भगवान को अवतार धारण करने का क्या प्रयोजन है ? यह प्रश्न है ?'
बडे-बडे सन्तों ने अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया किन्तु इस श्रीजी महाराज के - प्रश्न का कोई समाधान न हुआ क्योंकि श्रीजी महाराज ने आशंका की तो सबका उत्तर गलत हो गया ।
तत्पश्चात समस्त मुनिजनों ने हाथ जोडकर कहा कि - 'हे महाराज ! इस प्रश्न का उत्तर तो आप कहें तभी होगा ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भगवान के अवतार धारण करने का यही प्रयोजन है कि भगवान में अत्यन्त प्रीति वाले भक्तजनों की भक्ति के आधीन होकर भक्त को सुख देने के लिये उनकी इच्छा के अनुसार ही वे रुप धारण करते हैं और भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करते हैं । भगवान के जो भक्त हैं वे स्थूल भाव से युक्त होकर देहधारी रहते हैं । अतः भगवान भी स्थूल भाव से युक्त देहधारी होकर रहते हैं और अपने भक्तों को लाड-प्यार करते हैं । अपने सामर्थ्य को छिपाकर उन भक्तों के साथ पुत्र भाव, सखाभाव, मित्रभाव तथा सगे-सम्बन्धी के रुप में व्यवहार करते हैं । इस प्रकार से भक्त को भगवान की अधिक मर्यादा नहीं रहती और इस तरह से भक्त की इच्छानुसार लाड करते हैं । अपने प्रेमी भक्तों के मनोरथों को पूर्ण करना ही भगवान के अवतार धारण करने का उद्देश्य है । इनके साथ-साथ असंख्य जीवों का कल्याण भी करते हैं और धर्म की स्थापना भी करते हैं । अब इसमें कोई आशंका हो तो बोलिये ।'
तब मुनियों ने कहा - 'हे महाराज ! आप ने यथार्थ उत्तर दिया है ।'
इति वचनामृतम् ।।५।। ।। १०१ ।।