वचनामृतम् ४

संवत् १८ के आश्विन कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन डेढ प्रहर दिन चढने के बाद श्रीजी महाराज श्री कारियाणी ग्राम में वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों और देश-देश के हरि भक्तों की सभा हो रही थी ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'आपस में प्रश्नोतर करिये ।'
         
गोपालानन्द स्वामी ने भजनानन्द स्वामी से पूछा कि - 'इस देह में जीव और साक्षी का ज्ञातत्व कितना है ?' भजनानन्द स्वामी उत्तर देने लगे । किन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इस देह में बुद्धि नखशिख पर्यन्य व्याप्त होकर रहती है । वह बुद्धि सब इन्द्रियों की क्रिया को एककालावच्छिन्न जानती है और बुद्धि में जीव व्याप्त होकर रहता है, उस जीव के ज्ञातापन के कथन से बुद्धि के ज्ञातत्व के कथन का पता चलता है । उस जीव में परमात्मा साक्षी रुप से रहे हैं । अतः साक्षी के ज्ञातत्व के कथन से जीव का ज्ञातारुप भी कथित हो गया ।'
         
श्रीजी महाराज से नित्यानन्द स्वामी से पूछा कि - हे महाराज ! जो इस जीव में साक्षी रहे हैं, और जो साक्षी हों तो मूर्तिमान हो और जो मूर्तिमान हो वह व्यापक कैसे हो ?
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो मूर्तिमान हों वे व्यापक भी हो सकते हैं, देखिये, जब स्वप्न आता है उस समय चित्त में जो आकृतियाँ दिखती हैं वे मूर्तिरुप होती हैं या अर्मूत (अरुप)' तब नित्यानन्द स्वामी ने कहा कि - 'वे तो मूर्तिमान होती हैं ।'
         
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो चित्त में आकृतियाँ रही हैं तो चित्त में रहने के लिये कितना बडा स्थान है ।'
         
नित्यानन्द स्वामी ने कहा कि - 'दश अंगुल ही है ।'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'चित्त कितना बडा है ?' तब नित्यानन्द स्वामी ने कहा कि - 'चित्त तो अल्प (छोटा) है ।' श्रीजी महाराज बोले कि - 'चित्त में जो आकृतियाँ रही हैं वह कितनी बडी हैं ?' नित्यानन्द स्वामी ने कहा कि - 'चित्त में समस्त ब्रह्मांड दिखता है ।'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह चित्त निर्मल है अतः जैसे दर्पण में समस्त सभा दिखती है वैसे चित्त में समस्त आकृतियाँ दिखती हैं । इसी तरह से यह जीव अति निर्मल है अतः जीव में भगवान दिखते हैं । भगवान भी अत्यन्त निर्मल हैं । अतः भगवान में समस्त विश्व दिखता है और विश्व भगवान में रहा है, और विश्व में भगवान रहे हैं ।'    

इति वचनामृतम् ।।४।। ।। १०० ।।