वचनामृतम् ३

संवत् १८ के अश्विन कृष्णपक्ष की सप्तमी के दिन सायंकाल के समय श्रीजी महाराज श्री कारियाणी ग्राम में वस्ताखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सिर पर सफेद साफा बांधा था, सफेद खेस पहना था और सफेद चादर ओढी थी । उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों और देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह शुकमुनि बहुत बडे सन्त हैं । जिस दिन से वे हमारे पास रहे हैं, उस दिन से उनकी प्रगति हुई है । परन्तु कोई शिथिलता नहीं आयी है । अतः यह तो मुक्तानन्द स्वामी के समान हैं । ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'मनुष्यों में परस्पर स्नेह गुणों द्वारा होता है और दोषों से दुर्गुण आते हैं । वे गुण और दोष मनुष्य के बाह्य स्वभाव से नहीं पहचाने जा सकते । क्योंकि कोई मनुष्य बिल्ली के समान नीचे देखकर चलता है परन्तु अन्दर से अत्यन्त कामी होता है । उसे देखकर कोई नासमझ ऐसा कहता है कि यह तो बहुत बडा सन्त है ।' कोई यदि चंचल दृष्टि रखकर चलता है तो उसे देखकर नासमझ ऐसा कहते हैं कि यह तो लफंगा है । परन्तु अन्दर से तो वह निष्कामी होता है । अतः शरीर की बाह्य प्रकृति देखकर मनुष्य के स्वभाव की परीक्षा नहीं हो सकती । उसकी परीक्षा तो साथ में रहने पर ही होती है । साथ में रहते समय बोलने-चालने, खाने-पीने, उठते-बैठते आदि क्रियाओं से ही उसके स्वभाव की सही जानकारी मिलती है । विशेष रुप से गुण-अवगुण युवावस्था में ही ज्ञात होते हैं । बाल्यावस्था तथा वृद्धावस्था में तो ये नहीं मालूम होते । क्योंकि कोई बाल्यावस्था में ठीक न रहता हो तो युवावस्था में अच्छा हो जाता है और कोई बाल्यावस्था में अच्छा रहता है तो युवावस्था में बिगड जाता है । जिसको यह खटका लगा रहता है कि 'मुझे यह संकल्प हुआ वह ठीक नहीं है' और वह इस संकल्प को टालने का प्रयत्न करे और वह जब तक टले नहीं तब तक टालने के खटके को बनाये रखे, तो ऐसे स्वभाव वाले की युवावस्था में प्रगति होती है और जिसे खटका (चिन्ता) नहीं तथा आलसी हो वह नहीं बढ पाता । यदि वह अच्छा है तो वह बाल्यावस्था से ही उसका पता चल जाता है । इस विषय पर स्वयं अपने बचपन के त्यागी स्वभाव की अनेक बांते करके बोले कि जो 'अच्छा हो उसे तो बचपन से ही दूसरे लडकों का संग अच्छा नहीं लगता है । वह जीभ का स्वादी भी नहीं होता और शरीर का दमन करता है । देखिये, मुझे बाल्यावस्था में स्वामी कार्तिकेय की भाँति ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे शरीर में माता का भाग रुपी जो खून और मांस है उसे न रहने दिया जाय' अतः अनेक प्रयत्न करके मैंने अपने शरीर को इतना सुखा दिया कि 'शरीर में यदि किसी चीज से चोट लगे तो पानी की बूँद निकलती है खून नहीं निकलता । इस तरह से सदाचारी का तो बाल्यावस्था से ही पता चल  जाता है ।'
         
भजनानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! मानसिक रुप से ऐसा विचार रखना उचित है या शरीर का दमन करना ठीक है ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'शरीर के अनेक दोष हैं और कितने ही मन के दोष हैं जिन्हें जान लेना चाहिये । उनमें शरीर के कौन से दोष हैं ? शिश्न इन्द्रिय वारंवार जागृत होती है, खुजलाहट होती है, शरीर के बल की वजह  से वह मनुष्य कुछ कर चलता है । एक क्षण में सबको देख लेता क्षणभर में अनेक प्रकार के गन्धों को सूंघ लेना तथा बीस पचीस कोस का मार्ग तक करना, बल पूर्वक किसी से मिलकर उसकी हड्डियाँ तोड डालना तथा स्वप्न में वीर्यपात होना इत्यादि जो दोष हैं वे देह के दोष हैं । परन्तु मन के नहीं हैं । इन शारीरिक दोषों के अतिशय क्षीण हो जाने पर भी जब मन में काम, खाने, पीने, चलने, स्पर्श, गंध, शब्द तथा स्वाद के जो संकल्प बने रहते हैं उन्हें मन के दोष जानना चाहिये । मन और शरीर के इन दोषों को जानकर शारीरिक दोषों को शरीर का दमन करके डाल देना चाहिये । मन और शरीर के इन दोषों को जानकर शारीरिक दोषों को शरीर का दमन करके डाल देना चाहिये । शरीर के क्षीण होने के बाद मनके जो दोष रह जायें उन्हें विचार द्वारा मिटा डालना चाहिये कि 'मैं आत्मा हूँ, संकल्प से भिन्न हूँ तथा सुखरुप हूँ ।' इस तरह से शरीर का दमन और विचार दोनों हो वह बडा साधु है । जो केवल दमन करता है किन्तु विचार नहीं रखता और केवल विचार रखता है किन्तु दमन नहीं करता, वह ठीक नहीं है। अतः यह दोनों गुण जिनमें हों वे श्रेष्ठ हैं । गृहस्थ सत्संगी को भी शारीरिक दमन चाहिए तथा विचार रखना चाहिये, फिर भी त्यागी पुरुष को तो इनका पालन अवश्य करना चाहिये ।'
         
निष्कुलानन्द स्वामी ने पूछा कि - ''हे महाराज ! इस तरह का आचरण विचार द्वारा होता है या वैराग्य द्वारा ?''
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह तो बडे सन्त के समागम द्वारा होता है । और जिसे बडे सन्त के समागम द्वारा भी ऐसा नहीं होता, वह तो महापापी है ।' ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'त्यागी होकर जो पुरुष यदि गृहस्थ के भोगने योग्य भोगों की इच्छा रखता है तो वह घास खाता है, क्योंकि उसे वह भोग प्राप्त होने वाला नहीं है, जिनकी वह इच्छा रखता है । अतः यही कहना पडेगा कि उसके समझ में यह बात आयी नहीं है कि जिस गाँव जाना नहीं उस गाँव का नाम क्या पूछना ? उसी तरह से इसने जिस पदार्थ का त्याग कर दिया है उसकी अभिलाषा रखता है तो क्या वह उसके इस देह द्वारा उपलब्ध हो जायगा । उसे तो वह सत्संग में से विमुख हो तभी प्राप्त हो सकेगा किन्तु सत्संग में रहते हुये जो भोगों की इच्छा रखता है वह मूर्ख हैं ।'
         
जो सत्संग में रहेगा उसे तो धर्म का पालन करना चाहिये । जैसे कोई स्त्री सती होने के लिये निकले किन्तु अग्नि देखकर वह लौट आये तो क्या उसके सम्बन्धी उसे पीछे लौटने देंगे ? वे तो जबरदस्ती उसे जला देंगे । जैसे कोई ब्राह्मणी विधवा होने पर भी सौभाग्यवती के समान वेष रखती है तो क्या उसके सम्बन्धी रखने दते हैं ? नहीं रखने देते । उसी तरह से सत्संग में रहकर कोई अयोग्य स्वभाव रखता है तो वह इस प्रकार की बात नहीं समझ पाता है । यदि उसकी समझ में यह बात आयी होती, तो वह ऐसा अनुचित स्वभाव रखता ही नहीं । इस प्रकार से बात करने के बाद श्रीजी महाराज जयस्वामी नारायण कहकर शयन के लिये पधारे ।    

इति वचनामृतम् ।।३।। ।। ९९ ।।