संवत् १८ के आश्विन शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम श्री कारियाणी में वस्ताखाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के दालान में विराजमान थे । वे सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये हुये थे और उनके मुखारविन्द के आगे परमहंस तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज की आज्ञा से छोटे-छोटे परमहंस समीप आकर प्रश्न उत्तर कर रहे थे । तत्पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'हम एक प्रश्न पूछते हैं । तब सबने कहा कि - 'पूछिये महाराज !'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'एक की बुद्धि तो ऐसी है कि जिस दिन से सत्संग किया है उस दिन से भगवान का तथा सन्त का अवगुण आता तो है परन्तु रहता नहीं है, टल जाता है, परन्तु इसी प्रकार गुण और अवगुण आते रहते हैं तब भी वह कभी भी सत्संग छोडकर नहीं जाता है क्योंकि उसकी बुद्धि के अनुसार ऐसा समझता है कि ऐसे सन्त ब्रह्मांड में कहीं नहीं है और इन महाराज के सिवा कोई दूसरा भगवान नहीं है ।' ऐसी जिसकी समझ है वह सत्संग में अडिग रहता है । अन्य की तो ऐसी बुद्धि है कि उसे सन्त का अथवा भगवान का किसी दिन अवगुण ही नहीं आता । अतः बुद्धि तो दोनों की समान है और भगवान का निश्चय भी समान है । परन्तु, एक को अवगुण आते रहते हैं और अन्य को नहीं आते, तो जिसे अवगुण आते हैं उसकी बुद्धि में कोन सा दोष है ? यह प्रश्न छोटे शिवानन्द स्वामी को पूछते हैं ?'
शिवानन्द स्वामी इसका उत्तर देने लगे । परन्तु उचित उत्तर न दे सके। तब भगवदानन्द स्वामी ने कहा कि - 'उसकी बुद्धि शापित है ।'
इस पर श्रीजी महाराज बोले कि - 'ठीक कहते हैं ।' इस प्रश्न का यही उत्तर है । जगत में क्या कोई ऐसा नहीं कहता है कि - 'इसको तो किसी का शाप लगा है । इसने किसी बडे सन्त का या किसी गरीब का दिल दुखाया है या माँ बाप की सेवा नहीं की है । इसी कारण उन्होंने इसे शाप दिया है जिससे इसकी ऐसी बुद्धि हुई है ।' भगवदानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! इसकी शापित बुद्धि में किस प्रकार से सुधार हो सकता है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इसका उत्तर तो यह है कि हमने अपने सिर पर जो वस्त्र बाँध रखा है उसे और दरी जैसे मोटे वस्त्र को समान परिश्रम से नहीं धोया जा सकता है । यदि इस पतले वस्त्र को धोना हो तो उसमें थोडा सा साबुन लगाकर धोने पर वह तुरन्त साफ हो जायगा । अगर मोटे वस्त्र को धोना हो तो पहले उसे पानी में दो-चार दिन तक भिगोकर रखना पडेगा । इसके बाद उसे भट्वी पर चढाकर भाप देनी पडेगी । तब साबुन लगाकर धोने से साफ हो जायगा । वैसे ही जिसकी बुद्धि शापित है वह अगर अन्य भक्तों के समान साधना करे तो उसका दोष नहीं मिट पायगा । अन्य भक्त जैसे निष्कामी, निस्वादी, निर्लोभी, निस्नेही और निर्मानी रहते हैं । उनकी भांति उसे नहीं रहना चाहिये। उसे तो ऐसे निष्कामी, निर्लोभी, निःस्वादी, निःस्नेही और निर्मानी जनों की अपेक्षा अधिक निष्कामी, निर्लोभी, निःस्वादी, निःस्नेही और निर्मानी होना चाहिये । उसे दूसरों के सोने के बाद एक घडी देर से सोना चाहिये । दूसरों की अपेक्षा अधिक माला करनी चाहिये तथा अन्य पुरुषों के उठने पर पहले ही उठ जाना चाहिये। इस तरह से अन्य लोगों की अपेक्षा इन नियमों का विशेष पालन करने से ही उनकी अभिशप्त बुद्धि मिट जायगी । वर्ना वह कभी भी नहीं मिट सकती है।
वयोवृद्ध शिवानन्द स्वामी ने बडे योगानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा कि - 'कर्म मूर्तिमान है या अमूर्त ?' बडे योगानन्द स्वामी ने कहा कि - 'मुझे नहीं लगता है कि मैं इसका उत्तर दे सकूँगा ।'
तब श्रीजी महाराज बोले कि - ''वस्तुतः कर्म तो अर्मूत है और इन कर्मों के परिणाम स्वरुप होनेवाले शुभाशुभ फल मूर्तिमान रहते हैं । जो लोग कर्मों को मूर्तिमान कहते हैं वे तो नास्तिक हैं । क्योंकि कर्मात्मक क्रिया कभी भी मूर्तिमान नहीं होती है । इस प्रकार से श्रीजी महाराज ने अनेक वार्ताएँ कहीं, उनमें से यह वार्ता संक्षिप्त रुप से लिखी गई है ।'
इति वचनामृतम् ।।२।। ।। ९८ ।।