।। श्री कारियाणी - वचनामृतम् ।।
संवत् १८ के भाद्र पक्ष द्वादशी के दिन श्री कारियाणी ग्राम स्थित वस्ता खाचर के दरबार में उत्तर द्वार के कमरे के बरामदे में सूरत के हरिभक्त जादवजी छत पर पलंग लाये थे उसे बिछाया था और उस पर रेशम के गद्दे के उपर सफेद चादर बिछी थी । उस पर सफेद तकिया और लाल मशरु के तकिये रखे थे । उस पलंग पर चारों और सुनहरे तार के सेजबंध लटक रहे थे । ऐसे शोभायुक्त मुखारविन्द करके विराजमान थे । उन्होंने सुनहरी पल्ले का सफेद फेंटा मस्तक पर बाँधा था और सुनहरी रंग का शेला ओढा था और काले किनारवाला सफेद खेस पहना था । उनके मुखारविन्द के सामने मुनियों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी । उस समय समस्त भक्तजन श्रीजी महाराज के मुखारविन्द रुपी चन्द्रमा को चकोर की भांति देख रहे थे ।
श्रीजी महाराज परमहंसों से तत्पश्चात बोले कि - 'आपस में प्रश्न-उत्तर करिये ।'
तब भूदरानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान का निश्चय अन्तःकरण में होता है या जीव में होता है ?'
इसका उत्तर शिवानन्द स्वामी करने लगे लेकिन यथार्थ उत्तर न दे सके। तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह जीव बुद्धि द्वारा जानता है और वह बुद्धि ही सबकी कारण है । जो सबसे बडी है । अतः बुद्धि मन, चित्त, अहंकार, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा, वाणी, त्वचा, हाथों, पैरों, शिश्न, गुदा में विद्यमान रहती है। इस तरह से बुद्धि नख शिख पर्यन्त इस शरीर में व्याप्त होकर रही है । उस बुद्धि में जीव रहा है परन्तु वह जीव को मालूम नहीं होता किन्तु अकेली बुद्धि ही है । यहाँ एक दृष्टान्त देते हैं जैसे अग्नि की ज्वाला घटती-बढती है, तो वह वायु के द्वारा घटती-बढती है, इसी तरह से अग्नि की ज्वाला घटती-बढती दिखती है । परन्तु वायु नहीं दिखायी पडती है । यदि अग्नि कन्डे पर रखें तो वह जलने लगती है । यदि उसे उस स्थान पर रखा जाय जहाँ पर वायु नहीं रहती तब चारों और धुआँ ऊपर ही फैलता दिखायी देगा । लेकिन वायु नहीं दिखायी पडेगी । जैसे बादल आकाश में वायु द्वारा चलते हैं वे दिखायी देते हैं । परन्तु उनमें रहनेवाली वायु नहीं दिखायी पडती है । वैसे ही ज्वाला, धुआँ और बादल के स्थान पर बुद्धि को जानना चाहिये और वायु के स्थान पर जीव को समझना चाहिये । वह जीव बुद्धि द्वारा किये गये निश्चय को जानता है । उस बुद्धि में निश्चय के विवेक कर्ता ब्रह्मा मन के संकल्पों को जानता हैं । संकल्पों का विवेक प्रदान करनेवाले चन्द्रमा को भी जानते हैं । चित्त की चिन्तनशीलता, चित्त के चिन्तन का विवेक देनेवाले वासुदेव, अहंकार की अहम्मन्यता तथा उस अहंकार की समझ को देनेवाले रुद्र को भी जानते हैं । इस प्रकार वह चारों अन्तःकरणों दस इन्द्रियों उनके विषयों तथा उनके विवेकदायी देवताओं को एक कालावच्छिन्न रुप से जानते हैं । ऐसा जो जीव तो एकदेशस्थ रुप से जानता है । वह बरछी की नोक जैसा तीक्ष्ण तथा अतिशय सूक्ष्म मालूम होता है । वह बुद्धि सहित है, अतः इतना सूक्ष्म प्रतीत होता है । परन्तु जब उस जीव को देह, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण देवता और विषय अपने प्रकाशभाव से जानते हैं तब जीव अत्यन्त बडा और व्यापक प्रतीत होता है । वह बुद्धि रहित है और अनुमान द्वारा ज्ञान होता है । परन्तु साक्षात नही दिखायी पडता है । यहाँ एक दृष्टान्त है - जैसे कोई दस मन की तलवार को देखकर यह अनुमान लगायेगा कि 'इस तलवार को उठाने वाला बहुत बडा होगा' वैसे ही वह जीव समस्त देहों एवं इन्द्रियों को एक साथ प्रकाशित करता है । अतः जीव बहुत बडा है ऐसा अनुमान द्वारा पता चलता है ।' श्रीजी महाराज ने इस प्रकार उत्तर दिया ।
तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज इसका क्या उत्तर हुआ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इसका यही उत्तर हुआ कि जब बुद्धि में निश्चय हुआ तब जीव में भी निश्चय हो गया ऐसा समझना चाहिये । सबसे पहले इन्द्रियों में निश्चय होता है । उसके बाद अहंकार, चित्त, मन, बुद्धि में तथा इसके बाद जीव में निश्चय होता है ।
नित्यानन्द स्वामी ने पुनः पूछा कि - 'हे महाराज ! यह बात किस तरह से मालूम होती है कि इन्द्रियों में, अन्तःकरण में और जीव में निश्चय हो चुका है ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इन्द्रियों में निश्चय को इस प्रकार से जानना चाहिये कि इस जगत में जितने पदार्थ हैं वे देखे, सुने, सूंघे और छूये जाते हैं । उनमें से कुछ शुभ हैं और कुछ अशुभ हैं कुछ ही सुखरुप हैं कुछ दुःखरुप हैं । कुछ प्रिय हैं और कुछ अप्रिय हैं, बहुत से योग्य हैं और बहुत से अयोग्य हैं । यदि ये सब भगवान में दिखाई दें और इसमें कोई संशय न हो उसे इन्द्रिय सम्बन्धी निश्चय जानना चाहिये । सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों के जो कार्य हैं उनमें आलस्य एवं निद्रादि तमोगुण के कार्य हैं । कामक्रोधादिक रजोगुण के कार्य हैं तथा शमदमादि सत्वगुण के कार्य हैं । यदि ये सब भगवान में दिखायी पड और किसी भी तरह का सन्देह न रहे, तो उसे अन्तःकरण में भगवान का निश्चय जानना चाहिये । जैसे ऋषभदेव भगवान ने निर्विकल्प समाधि द्वारा उन्मत्त होकर विचरण किया और मुख में पत्थर रखा तथा देह दावानल में जल जाने पर भी उन्हें खबर नहीं रही । ऐसी गुणातीत स्थिति यदि भगवान में दिखाई दे और उससे किसी प्रकार का संशय न रहे तब उसे जीव में निश्चय जानना चाहिये।
यहाँ एक दृष्टान्त है - जैसे समुद्र में जहाज चलते हैं । उनमें लोहे के लंगरों को सागर में डालने पर भी वे पृथ्वी तक न पहुँचे और उन्हे तुरन्त खींच कर निकालने पर अधिक परिश्रम नहीं करना पडता है । वे तुरन्त निकल जाते हैं । उन्हें यदि पृथ्वी पर लग जाने के बाद खींचा जाय तो अधिक परिश्रम पडता है । यदि उन्हें धीरे-धीरे जाने देने पर वे धरती पर गढ जाये और घँस जायें तो जोर देने पर भी नहीं निकलते हैं । इसी तरह से जिसे जीव में निश्चय हो वह निश्चय किसी भी तरह से मिटाने पर भी नहीं मिटता है । इस तरह से श्रीजी महाराज ने अनेक वार्ताएँ कहीं परन्तु ये तो थोडी लिखी हैं ।'
चैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! भगवान तो मन और वाणी से परे हैं, गुणातीत हैं तो उन्हें मायिक इन्द्रियाँ और अन्तःकरण किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को जानने वाला जीव जब सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त हो जाता है तब उसकी इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण सुषुप्ति में मिल जाते हैं । उस जीव को भगवान प्रकाशमान करते हैं । जब वह सुषुप्ति अवस्था में स्वप्नावस्था में आता है, तब उस स्वप्नावस्था सम्बन्धी जो स्थान भोग, विषय और जीव आदि को भगवान प्रकाशमय बनाते हैं । जाग्रत अवस्था में भी भगवान प्रकाश देते हैं । इस प्रकार भगवान रुपभाव तथा अरुपभाव से रहनेवाले जीव को प्रकाशित करते हैं । प्रधान में से महत्तत्व हुआ, महत्तत्व में से तीन प्रकार के अहंकार हुये तथा उन अहंकारों में से इन्द्रियों, देवताओं, पंचभूतों तथा पंच मात्राओं की उत्पत्ति हुई । इन सबको भी भगवान ने प्रकाशवान बनाया है । इन सब तत्त्वों ने मिलकर विराट की रचना की है। उस विराट को भी भगवान ने प्रकाश प्रदान किया है । जब ये माया में लीन हो जाते हैं तब उस माया को भी भगवान प्रकाशमय बनाते हैं । इस प्रकार से जब जीव और ईश्वर दोनों रुपभाव से रहते हैं तब भगवान उन्हें प्रकाशमान करते हैं तब भी भगवान प्रकाश देते हैं । काल इन मायादि तत्त्वों को नाम रुपभाव तथा अरुपभाव को प्राप्त कराता है । उस काल को भी भगवान प्रकाशवान बनाते हैं । ऐसे भगवान की इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को कैसे जाना जा सकता है ? यह आप का प्रश्न है या नहीं ?' तब सबने कहा 'हे महाराज यही प्रश्न है?'
तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'इसका यह उत्तर है कि ऐसे जो भगवान हैं उन्हें इस जगत की उत्पत्ति तथा स्थिति को करना है किन्तु यह सब वे अपने लिये नहीं करते । यह बात श्रीमद् भागवत में कहीं गई है -
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् जनानामसृजत् प्रभुः ।
मात्रार्थं च भवार्थं च ह्यात्माने।कल्पनाय च ।।
इस श्लोक में ऐसा कहा गया है कि - 'समस्त लोगों में बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राण का सृजन भगवान करते हैं । इनका सृजन जीवों के विषय भोगों, जन्म, लोकान्तर में जाने के लिये तथा मोक्ष के लिये किया गया है ।' इसलिये भगवान इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी जीवों के कल्याण के लिये करते हैं । क्योंकि जो अनेक प्रकार की संसृति करने से थके हुये जीव हैं उनके विश्राम के लिये प्रलय करते हैं । इसी तरह से समस्त जीवों के हित के लिये वे भगवान जब मनुष्याकार होते हैं, तब जो जीव भगवान के सन्त का समागम करते हैं तो उन्हें भगवान का स्वरुप समझ में क्यों नहीं आता ? वह तो आता ही है ।' ऐसा श्रीजी महाराज ने कहा ।
भगनानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! श्रुति में ऐसा कहा गया है कि - 'यतो वाचो निर्वतन्ते अप्राप्य मनसा सह ।'
तब श्रीजी महाराज प्रसन्न होकर बोले कि - 'इसका यह प्रकार है कि जैसे पृथ्वी आकाश में रही है परन्तु आकाश के भाव को नहीं पाती और जल आकाश में रहा है पर आकाश के भाव को नहीं प्राप्त होता । तेज आकाश में रहा है पर आकाश के भाव को नहीं प्राप्त होता, वायु आकाश में रहा है पर आकाश के भाव को नहीं पाता है । ऐसे मन वाणी भगवान को नहीं पाते ।' तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि - 'हे महाराज ! श्रुति स्मृति में ऐसा कहा गया है कि - 'निरंजनः परमं साम्युमुपैति बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भाव मागताः' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'यह तो हमने अभक्तों के मन इन्द्रियों के लिये कहा है । किन्तु भक्त की मन इन्द्रियाँ तो भगवान को साक्षात्कार रुप को प्राप्त करते हैं । जैसे आकाश में रही हुई जो पृथ्वी है वह प्रलयकाल में आकाश रुप हो जाती है और जल भी आकाशरुप हो जाता है, वायु भी आकाशरुप हो जाती है । ऐसे जो भगवान के भक्त हों उनके जो देह इन्द्रियाँ अन्तःकरण प्राण हैं वे सब भगवान के ज्ञान से भगवान के आकार रुप हो जाते हैं । तथा दिव्य हो जाते हैं । क्योंकि भगवान स्वयं दिव्य मूर्ति हैं । उनकी जो इन्द्रियाँ अन्तःकरण देह है उनके आकाररुप उस भक्त के देह इन्द्रियाँ अन्तःकरण होते हैं । अतः दिव्य हो जाते हैं । यहाँ दृष्टान्त है - जैसे कोई भँवरी कीट को पकड लाती है, इससे वह कीट उसकी देह से तदाकार हो जाता है । परन्तु कोई अंत कीट का नहीं रहता, भँवरी समान भँवरी ही हो जाता है । वैसे भगवान का भक्त भी उसी देह से भगवान के आकार का हो जाता है । यह तो हमने वार्ता कही उसका तात्पर्य यह है कि - ''आत्मज्ञान सहित जो भक्ति निष्ठा वाला है तथा केवल भक्ति निष्ठावाला है उन दोनों की यह गति कही है । परन्तु केवल आत्मनिष्ठा वाला जो कैवल्यार्थी उसके देह इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण इनका भगवान की मूर्ति के साथ तदाकार रुप नहीं होता है वह तो केवल ब्रह्मसत्ता को पाते हैं ।' ऐसी वार्ता करके बोले कि - 'अब इतनी वार्ता रखिये क्योंकि समस्त सभा शून्य हो गयी है । अतः कोई अच्छे अच्छे कीर्तन बोलिये' ऐसा कहकर वे स्वयं ध्यान करने लगे और सन्त कीर्तन गाने लगे ।
इति वचनामृतम् ।।१।। ९७ ।।