संवत् १८ के कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी के दिन श्रीजी महाराज ग्राम कारियाणी के मध्य वस्ताखाचर के दरबार में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में रात्रि के समय विराजमान थे । उन्होंने श्वेत दुपट्टा धारण किया था । सफेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और मस्तक पर सफेद पाग बाँधी थी । पीला और लाल रंग के गुलदावदी के पुष्पों का हार पहना था । पाग में पीले पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे । उनके दोनों तरफ दो व्यक्ति मशाल लेकर खडे थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज से सच्चिदानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - 'भगवान में प्रीति हो उसके क्या लक्षण हैं ?'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे अपने प्रियतम भगवान से प्रीति होती है वह अपने प्रियतम के विपरीत कोई कार्य नहीं करता है । प्रीति का यही लक्षण है । गोपियों को श्रीकृष्ण भगवान से प्रेम था । जब श्रीकृष्ण भगवान मथुरा जाने के लिये तैयार हुए, तब समस्त गोपियों ने मिलकर यह विचार किया कि - 'हम कुटुम्ब तथा संसार की लज्जा का त्याग करके भगवान को जबरदस्ती रोकेंगे' परन्तु चलते समय भगवान के नेत्र के समक्ष देखा और उन्हें भगवान के रहने की इच्छा नहीं दिखायी पडी तब वे डर के मारे दूर ही खडी रहीं और उनके अन्तरमन में यह भय उत्पन्न हुआ कि यदि हमने भगवान की इच्छा का पालन नहीं किया तो भगवान को हमसे प्रीति नहीं रहेगी । ऐसा विचार करके वे कुछ भी नहीं कह सकीं । भगवान मथुरा पधारे और वे केवल तीन कोस की दूरी पर थे तब भी गोपियाँ प्रभु की मर्जी का उल्लंघन करके प्रभु के दर्शन के लिए भी नहीं गयी । गोपियों ने ऐसा समझा कि यदि भगवान की मर्जी के बिना मथुरा जायेंगी तो भगवान का जो हम पर हेत है वह समाप्त हो जायगा ।' प्रीति का यही स्वरुप है कि जिसे जिसके साथ स्नेह होता है वह उसकी मर्जी के अनुरुप ही रहता है । इस प्रकार का भक्त अपने प्रियतम की प्रसन्नता के लिए उनके करीब रहकर या दूर रहकर भी प्रसन्न रहता है । लेकिन उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । यही प्रेम का लक्षण है । गोपियों को भगवान से सच्चा प्रेम था । अतः आज्ञा पाये बिना दर्शन के लिए भी नहीं गई । भगवानने जब उन्हें कुरुक्षेत्र में बुलाया तब उन्होंने वहाँ जाकर भगवान के दर्शन किये । किन्तु उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया अतः जिसे भगवान में प्रीति होती है वह भगवान की इच्छा के विरुद्ध कभी भी नहीं चलता है । भगवान की इच्छानुसार रहना ही प्रीति का लक्षण है ।'
श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'हम एक प्रश्न पूछते हैं ।' मुनियों ने कहा कि 'हे महाराज ! पूछिये' श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो भगवान के भक्त हैं वे भगवान की मूर्ति के सम्बन्ध से रहित अन्य सम्बन्धी पंचविषयों को तुच्छ समझते हैं और पांचो प्रकार से एक भगवान काही सम्बन्ध रखते है । ऐसे भक्त को भगवान ऐसी आज्ञा करते हैं कि 'तुम हमसे दूर रहो' तब वह यदि भगवान के दर्शन का लोभ रखता है और यदि आज्ञा का उल्लंघन करता है और यदि आज्ञा पालन नहीं करता है तो उस भक्त के साथ भगवान का स्नेह नहीं रहता है । अतः भक्त ने जिस प्रकार मायिक शब्दादि पंचविषयों का त्याग किया है वैसे ही वह भगवान सम्बन्धी शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गंध का त्याग करे कि न करे ? यह प्रश्न है ।'
समस्त मुनि मिलकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उत्तर देने लगे परन्तु इस प्रश्न समाधान नहीं हो पाया । तब श्रीजी महाराज से बोले कि - 'हे महाराज ! इसका उत्तर आप ही दें ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिसे भगवान में दृढ प्रीति है और भगवान के बिना रह नहीं सकता है । मायिक पंचविषयों को जिसने तुच्छा समझा है और शब्दादि पंच विषयों द्वारा भगवान के प्रति अपना ध्यान दृढता से लगाये हुए है । वह भक्त भगवान की आज्ञा से जहाँ जहाँ जाता है वहाँ वहाँ भगवान की मूर्ति भी साथ ही जाती है । जैसे उस भक्त को भगवान के बिना नहीं रहा जाता वैसे ही भगवान भी वह भक्त के हृदय में से आँख की पलक गिरे उतनी देर भी दूर नहीं रहते । अतः भगवान के साथ ऐसे भक्त का अखंड साथ रहता है । जिन शब्दादि पंचविषयों के बिना जीवमात्र से नहीं रहा जाता उन पंचविषयों को उसने तुच्छ मान लिया है तथा पांचों प्रकार से भगवान में ही जुडा रहता है । अतः भगवान के साथ उस भक्त का अखंड सम्बन्ध रहता है ।'
इति वचनामृतम् ।।११।। ।। १०७ ।।