संवत् १८ के कार्तिक शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज ग्राम श्री कारियाणी में वस्ताखाचर के दरबार में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । वे सफेद खेस पहने थे और सफेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और सफेद फेटा बांधा था तथा मुँह लपेट कर दुपट्टा बाँधा था । उनके मुखारविन्द के आगे परमहंस तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
श्रीजी महाराज ने कहा कि - ''प्रश्न उत्तर करो ! मुनियों ने परस्पर काफी देर तक प्रश्न-उत्तर किये । इसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीन शरीर, तथा विराट, सूत्रात्मा और अव्याकृत ये तीन शरीर पर विचार किया गया ।''
श्रीजी महाराज बोले कि - 'शरीर कारण है । वह जीव की माया है। इसी कारण शरीर स्थूल, सूक्ष्म रुप होता है । अतः जीव की स्थूल सूक्ष्म तथा कारण नामक तीन प्रकार की माया है । उसी तरह विराट, सूत्रात्मा और अव्याकृत ईश्वर की माया है । जीव की कारण शरीर रुपी माया जो वज्र के समान है वह किसी भी प्रकार से जीव से अलग नहीं होती । जब उस जीव को सन्त का समागम मिलता है तथा सन्त के वचनों से अलग नहीं परमेश्वर का ज्ञान होता है तब उसके आधार पर ईश्वर के स्वरुप का ध्यान करता है तथा परमेश्वर के वचनों को हृदय में धारण करता है । तब वह कारणरुपी शरीर जलकर खोखला हो जाता है । जैसे इमली के बीज का छिलका बीज के साथ मजबूती के साथ चिपका दिया गया हो और उसे आग में सेका जाय तब वह छिलका जल जाने से खोखला-सा हो जाता है और हाथ में लेकर मसलने से अलग हो जाता है। वैसे ही भगवान के ध्यान एवं वचनों द्वारा कारण शरीर दग्ध होकर इमली के छिलके की तरह अलग हो जाता है । उनके बिना अन्य कोटि उपाय करने पर भी कारण रुपी शरीर अज्ञान का नाश नहीं होता । श्रीजी महाराज ने इस प्रकार से वार्ता की ।
श्रीजी महाराज ने मुनियों से प्रश्न पूछा कि - 'जाग्रत अवस्था में सात्विक गुण रहता है और समस्त पदार्थो का यथार्थ ज्ञान रहता है । तब भी जागृत अवस्था में सुनी गयी बात का जब सूक्ष्म देह में मनन किया जाय तब सुनी बात पक्की हो जाती है । सूक्ष्म देह में तो रजोगुण रहता है । उसमें यथार्थ ज्ञान रहा है फिर भी जागृत अवस्था में सुनी गयी बात का सूक्ष्म देह में मनन करने से यथार्थ ज्ञान होता है इसका क्या कारण है ?'
सब मुनियों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया । परन्तु श्रीजी महाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ । तब समस्त मुनि हाथ जोडकर बोले कि - 'हे महाराज ! इस प्रश्न का उत्तर आप ही दीजिए।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'इस प्रश्न का उतार तो यह है कि हृदय में क्षेत्रज्ञा जीव का निवास है । वह क्षेत्रज्ञा जीव चौदह इन्द्रियों का प्रेरक है । उसमें अन्तःकरण क्षेत्रज्ञा समीप रहता है । अतः अन्तःकरण में मनन करने पर यह दृढ होता है क्योंकि क्षेत्रज्ञा समस्त इन्द्रियों और अन्तःकरण की अपेक्षा अधिक समर्थ है अतः क्षेत्रज्ञा जो प्रमाणित करे वह अत्यन्त दृढ होता है । इस तरह से इस प्रश्न का उत्तर दिया ।' समस्त मुनियों ने कहा कि - 'आपने यथार्थ उत्तर दिया है । ऐसा उत्तर कोई भी नहीं दे सकता था ।'
श्रीजी महाराज बोले कि - 'चाहे जैसा भी कामी, क्रोधी, लोभी, लंपट जीव हो वह यदि इस प्रकार की बात में विश्वास रखकर इसे प्रीतिपूर्वक सुनता है तो उसके सभी विकार मिट जाते हैं । जैसे किसी पुरुष के दांत पहले तो इतने मजबूत होते हैं कि वह कच्चा चना चबाकर खा जाता है, परन्तु यदि वह कच्चा आम अच्छी तरह खा ले तो वह भात भी चबाकर नही खा सकेगा वैसे ही कामादिक में आसक्त कैसा भी पुरुष क्यों न हो यदि वह आसक्ति से इस वार्ता को श्रद्धापूर्वक सुनता है तो ऐसा पुरुष विषयों के सुख को भोगने में समर्थ नहीं होता । यदि वह तप्त कृच्छ्र चान्द्रायणादि व्रत द्वारा अपनी देह को सुखा डाले तो भी उसका मन वैसा निर्विषयी नहीं हो सकता जैसा कि भगवद गीता सुनने वाले मनुष्य का निर्विषयी हो जाता है । ऐसी बात सुनने के बाद आप सबका मन जिस तरह से निर्विकल्प हो जाता होगा वैसा ध्यान करने और माला फेरते रहने से नहीं होता होगा । अतः विश्वास रखकर प्रीतिपूर्वक भगवान पुरुषोत्तम नारायण की वार्ता सुनने से बढकर मनको स्थिर रखने और मन को निर्विषयी बनाने का अन्य कोई बडा साधन नहीं है ।'
इति वचनामृतम् ।।१२।। ।। १०८ ।।
।। श्री कारियाणी प्रकरणम् समाप्तम् ।।