वचनामृतम् ४८

संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल त्रयोदशी को संध्या के समय स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्य पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द किये विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी । उस समय उनके सामने दो मशालें जल रही थी और श्री वासुदेवनारायण की संध्या आरती तथा नारायण धुन हो रही थी ।
         
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'आप सब सावधान होकर सुनिए, एक वार्ता करते हैं । तब समस्त मुनि तथा हरिभक्त बोले - 'हे महाराज कहिए। तब श्रीजी महाराज बोले कि यह हमारी आज्ञा है कि भगवान के भक्तों को श्री नरनारायण की मूर्ति कागज में चित्रित करा देंगे । उसकी पूजा करिएगा और यह पूजा समस्त शास्त्रों में प्रमाणित है । श्रीमद्भागवत में भी अष्ट प्रकार की मूर्ति कही गयी है । अतः चित्रमूर्ति भी अत्यन्त प्रमाणित है और मेरी आज्ञा भी है। अतः हरिभक्तों को प्रातःकाल स्नानादि करके श्री नरनारायण की पूजा करनी चाहिए । तत् पश्चात्भगवान से यह मांगना चाहिए कि हे महाराज मेरी कुसंगी से रक्षा करना । वे कुसंगी चार प्रकार के हैं । एक कुंडापंथी, दूसरा शक्तिपंथी, तीसरा शुष्कवेदान्ती तथा चौथा नास्तिक । ये चार प्रकार के कुसंगी हैं । उनमें से यदि कुडांपंथी का संग हो जाय तो वह निष्काम धर्म से हटाकर उसे भ्रष्ट कर डालता है । यदि शक्तिपंथी का संग हो जाय तो वह शराब पिलाकर और मांस खिलाकर स्वधर्म से भ्रष्ट कर डालता है । यदि शुष्कवेदान्ती का संग हो जाय तो वह भगवान के धाम तथा भगवान के शाश्वत दिव्य आकार और उनके अवतारों की मूर्तियों के आकारों, सबको मिथ्या बताकर भगवान की भक्ति उपासना से भ्रष्ट करता है । यदि नास्तिक का संग हो जाय तो वह कर्मों को ही सच्चा दिखाकर परमेश्वर जो श्रीकृष्ण भगवान हैं उन्हें मिथ्या करके दिखाता है तथा अनादि सत् शास्त्रों के मार्ग से भ्रष्ट कर डालता है। इसलिए, भगवान से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि इन चार प्रकार के मनुष्यों का संग कभी भी न हो । यह प्रार्थना भी करनी चाहिए कि - 'हे महाराज ! काम, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या और देहाभिमान आदि अंतःशत्रुओं से रक्षा करिए तथा नित्य आपके भक्तों के समागम का अवसर प्रदान कीजिए । इसप्रकार, नित्य ही भगवान की प्रार्थना करनी चाहिए।
         
आप समस्त हरिभक्त मन में ऐसा विचार मत लाइए कि यह जो कागज पर चित्रित है, वह हमारी कुसंगी से किस प्रकार रक्षा कर पाएगा ? ऐसा विचार तो किसी भी दिन मत लाना क्योंकि हम तो सत्पुरुष हैं । यदि आप हमारी आज्ञा से नरनारायण की पूजा करेंगे तो मेरे और नरनारायण के बीच तो सीधा मन मेल है, जिससे हम नरनारायण से कहेंगे कि हे महाराज ! जो पंच वर्तमान में रहकर मेरी दी हुई आपकी मूर्ति का पूजन करे, उनमें आप अखंडवास करके रहिये। इसलिए यह नरनारायणदेव हैं उन्हें हम स्नेह रुपी बंधन में बांधकर जबरदस्ती रखेंगे । इससे आप लोग यह निश्चय जानिए कि यह मूर्ति नरनारायणदेव की है । ऐसा जानकर किसी दिन भी मूर्ति को अपूज्य न रहने दें । प्रातःकाल उठकर स्नान करके भगवान की पूजा करके उसके बाद ही अन्य व्यवसाय करें और जब तक पंच वर्तमान में रहकर नरनारायण देव की पूजा करेंगे तब तक उस मूर्ति में नरनारायणदेव विराजमान रहेंगे, यह हमारी आज्ञा है । उसे आप लोग दृढता से मानिएगा ।' इस प्रकार से श्रीजी महाराज बोले - उस वचन को समस्त हरिभक्तों ने सिर पर चढाया ।          

इति वचनामृतम् ।। ४८ ।।