वचनामृतम् ४७

संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल द्वादशी को प्रातःकाल स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेव नारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्य पलंग पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किया था । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
तत् पश्चात श्रीजी महाराज दाहिने हाथ से चुटकी बजाकर बोले कि - 'आप सब लोग सावधान होकर सुनिए, एक बात कहते हैं । यद्यपि यह बात तो स्थूल है, फिर भी आप पूर्ण रुप से ध्यान देकर उसे सुनेंगे तो समझ सकेंगे, अन्यथा नहीं समझ पायेंगे ।' तब समस्त हरिभक्त बोले कि - 'हे महाराज कहिए।' तब श्रीजी महाराज बोले - 'परमेश्वर के भक्तों में किसी की धर्मनिष्ठा, किसी की आत्मनिष्ठा, किसी की वैराग्यनिष्ठा और किसी की भक्तिनिष्ठा प्रधान होती है तथा गौण रुप से ये सब अंग समस्त हरिभक्तों में होते हैं । जिसकी भागवत - धर्मनिष्ठा प्रधान होती है, वह तो अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य आदि रुपी अपने वर्णाश्रम संबंधी सदाचार से युक्त होकर निर्दम्भभाव से भगवान और भगवद्भक्तों की सेवा चाकरी करने में प्रीतिपूर्वक कार्यरत रहता है । ऐसा भक्त भगवान के मंदिरों का निर्माण करने, भगवान के लिए बाग-बगीचे बनाने, भगवान को नाना प्रकार के नैवेद्य धरने तथा भगवान के मंदिरों और संत के स्थान को लीपने और झाडने के कार्यो में रुचि रखता है, तथा भगवान की श्रवणकीर्तनादि भक्ति में निर्दम्भ भाव से तत्पर रहता है । ऐसी धर्मनिष्ठा रखनेवाला भक्त भागवत-धर्मयुक्त शास्त्रों के श्रवण तथा कीर्तनादि में अतिशय रुचि रखता है । जिसकी आत्मनिष्ठा प्रधान होती है, वह तो तीन देहों और तीनों अवस्थाओं से परे रहनेवाले सत्तारुपी अपनी आत्मा के रुप में निरन्तर आचरणशील रहता है और अपने इष्टदेव प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण परमात्मा को सबसे परे, अतिशुद्ध स्वरुप तथा सदा दिव्य साकार मूर्तिवाला समझता है और वह अपनी आत्मा तथा परमात्मा के शुद्ध स्वरुप का प्रतिपादन करनेवाली वार्ता को स्वयं करता है और उसे दूसरों से सुनता है तथा उसी प्रकार के शास्त्रों में प्रीतिपूर्वक प्रवृत्ति रखता है और स्वयं को आत्मसत्ता रुप से आचरण करने तथा उसमें विक्षेप होने पर उसे सहन न कर सकने की प्रकृतिवाला होता है । जिसकी वैराग्यनिष्ठा प्रधान होती है, उसे तो एकमात्र भगवान की मूर्ति के सिवा अन्य समस्त मायिक पदार्थों में निरन्तर अरुचि रहती है तथा उन्हें असत्यरुप समझकर वह अपने मल की तरह व्यक्त स्वयं के गृह - कुटुम्बीजनों आदि को सदैव विस्मृत करता रहता है तथा वह भक्त भगवान के त्यागी भक्तों को समागम ही करता रहता है और भगवान की भक्ति करता है । उसकी वह भक्ति भी ऐसी होती है, जो उसके निजी त्याग में बाधक न बनने पावे । वह स्वयं त्याग प्रधान वार्ता करता है तथा त्याग का प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों में रुचि रखता है और अपने त्याग में बाधा डालनेवाले स्वादिष्ट भोजन तथा अच्छे वस्त्रादि एवं पंच विषय संबंधी मायिक पदार्थों को प्राप्त करने में अतिशय अरुचि प्रकट करता है । जिसकी भक्तिनिष्ठा प्रधान होती है, वह तो एकमात्र भगवान के स्वरुप में ही दृढ प्रीति बनाये रखता है और उन भगवान के स्वरुप से भिन्न अन्य मायिक पदार्थों में अपनी मनोवृत्ति को बिलकुल नहीं लगा सकता तथा भगवान को प्रेमपूर्वक वस्त्र एवं अलंकार धारण करने, भगवान के मानव चरित्रों का श्रवण करने और भगवान की मूर्ति का निरुपण करनेवाले शास्त्रों में ही उसकी अतिशय रुचि रहती है तथा वह भगवान के प्रति जिस भक्त का प्रेम देखता है, केवल उसीसे प्रीति करता है । वह तो उस भक्त के सिवा अपने पुत्रादि से भी प्रेम कभी भी नहीं करता तथा भगवान संबंधी क्रियाओं में ही ऐसे भक्त की प्रवृत्ति निरन्तर बनी रहती है । इस प्रकार, ऐसी चार निष्ठाएँ रखनेवाले भक्तों के लक्षणों की वार्ता पर विचार करते हुए जिसका जैसा अंग हो उसका वर्णन करिए । यह वार्ता तो दर्पण के सदृश है और जिसका जैसा अंग होता है उसे वह दिखता है । भगवान के जो भक्त हैं वे तो बिना अंग के होते ही नहीं है, किन्तु वे अपने अंगों की परख नहीं कर पाते, इसलिए इन अंगों की दृढता नहीं हो पाती । जब तक अपने अंगों की दृढता नहीं हो पाती तब तक जैसी बात होती है वैसा ही उसका अंग बन जाता है । इसलिए, इस वार्ता पर विचार करके अपने - अपने अंगों को दृढ बनाइये। इसके पश्चात समस्त हरिभक्तों में से जिसका जैसा अंग था उसने वैसा बताया । बाद में श्रीजी महाराज बोले कि - 'जिनका एक समान अंग हो, वे उठकर खडे हो जायें । तब जिस - जिस का एक समान अंग था, वे सब उठकर खडे हो गये। बाद में श्रीजी महाराज ने इन सबको बैठाया ।
         
तत् पश्चात नित्यानंदस्वामी ने पूछा - 'इन चारों अंगोवालों के अपने-अपने अंगों में कोई गुण-दोष है या नहीं ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जो गुण-दोष हैं, उन्हें कहते हैं' सुनिए । इन चारों अंगोंवाले भक्तों के जो लक्षण हमने पहले बताये हैं उनके अनुसार जो आचरण करते हैं, यह तो उनका गुण है तथा जो ऐसा आचरण नहीं करते उतना उनका दोष है ।' फिर मुक्तानंद स्वामी ने पूछा - 'इन चारों निष्ठावालों में कुछ अधिक न्यूनता है या ये चारों ही समान हैं ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब तक ये एक-एक निष्ठा के साथ आचरणशील रहते हैं तब तक ये चारों समान रहते हैं और जब ये चारों निष्ठाएँ एक में ही रहती हैं तब वह सबसे आगे रहता है और एक में ही जब ये चारों निष्ठाएँ इकट्वी रहती हैं तब उसीको परम भागवत तथा एकान्तिक भक्त कहते हैं ।'                                                                     
इति वचनामृतम् ।। ४७ ।।