वचनामृतम् ४९

संवत् १८६ के माघ महीने की शुक्ल चतुर्दशी को संध्या के समय स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा - स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्री वासुदेवनारायण के मंदिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्य पलंग पर विराजमान थे । उनके मुखारविन्द के सामने दो दीपक जल रहे थे। उन्होंने कंठ में पीले पुष्पों का हार पहना था, दोनों हाथों में पीले पुष्पों के गजरे धारण किये थे और सर्व श्वेत वस्त्र पहने थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख मुनियों तथा देश - देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
         
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले - 'अब प्रश्नोतर करिए ।' तब ब्रह्मानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - 'भगवान में जो वृत्ति रखते हैं, वह तो बहुत जोर जबर्दस्ती से रखने के कारण रहती है, किन्तु जगत के पदार्थों के सामने तो यह स्वयमेव रहने लगती है, उसका क्या कारण है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'भगवद्भक्तों की वृत्ति तो भगवान के सिवा अन्य किसी भी स्थान पर रहती ही नहीं है, और उन्हें तो यही चिन्ता लगी रहती है कि हमें जगत के पदार्थों में वृत्ति रखना कष्टप्रद रहेगा । परमेश्वर के भक्तों को तो जगत के पदार्थों में वृत्ति रखना कष्टप्रद ही बना रहता है तथा जगत के जीवों के लिए तो परमेश्वर में वृत्ति रहना अत्यन्त दुष्कर रहता है । इसलिए, जिसकी वृत्ति परमेश्वर में नहीं रहती वह भगवद्भक्त नहीं है, फिर भी सत्संग में यदि आता रहे तो वह धीरे - धीरे संत की वार्ता को सुनते - सुनते परमेश्वर का भक्त हो जाएगा ।'
         
बाद में ब्रह्मानंद स्वामी ने प्रश्न किया कि - 'इस प्रकार भगवान में वृत्ति रखने का कौन सा साधन है ?' तब श्रीजी महाराज बोले - 'इसका साधन तो अंतर्दृष्टि है ? वह यह है कि स्वयं को जो प्रत्यक्ष भगवान मिले हैं, उनकी मूर्ति के सामने देखते रहना ही अंतदृष्टि है । यदि उस मूर्ति को छोडकर षट्चक्र दिखायी पडे या भगवान के गोलोक एवं वैकुंठ आदि धाम दृष्टिगोचर हो जायँ तो भी वह अंतदृष्टि नहीं हो सकती । इस कारण भगवान की मूर्ति को अंतः करण में धारण करके उसका अवलोकन करते रहने तथा बाहर भी भगवान की मूर्ति को निहारते रहने को ही अंतदृष्टि कहा गया है । उस मूर्ति को छोडकर अन्य जिस - जिस स्थान पर वृत्ति रहे तो उसे बाह्म दृष्टि कहा जाता है ।' इसके पश्चात् श्रीजी महाराज परमहंसों से बोले कि - 'अब तो दो - दो आदमी आमने-सामने बैठकर प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम प्रारंभ करें ।' तब परमहंसों ने बहुत देर तक परस्पर प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम चलाया । उन्हें सुनते हुए श्रीजी महाराज ने उनकी बुद्धि की परीक्षा ली ।
                                        
इति वचनामृतम् ।। ४९ ।।