वचनामृतम् २

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में रात्रि के समय विराजमान थे और वे सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सम्मुख साधु और देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

तत् पश्चात मयाराम भट्ट ने श्रीजी महाराज से प्रश्न किया कि - 'हे महाराज! उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ इन तीन प्रकार के जो वैराग्य हैं, उनके लक्षण क्या हैं ? कृपया उन्हें कहें ।' तब श्रीजी महाराज बोले - 'जिसको उत्तम वैराग्य होता है वह परमेश्वर की आज्ञा से अथवा अपने प्रारब्धवश व्यवहार करता है, परन्तु व्यवहार में वह जनक राजा के समान निर्लिप्त रहे और शब्द, स्पर्श, रुप, रस तथा गंध - नामक पाँच प्रकार के उत्तम विषय जो उसे अपने प्रारब्ध - के अनुसार प्राप्त हुए हैं उनका उपभोग 'उनमें अनुरक्त रहे बिना वह उदासीन होकर करे' तो ये विषय उसे लिप्त नहीं कर सकते, और उसका त्याग क्षीण नहीं होता है । जो उन विषयों में निरन्तर दोष ही देखता रहे, विषयों को शत्रु के समान समझे और संत, शास्त्रों तथा भगवान की सेवा में निरन्तर मग्न रहे, और देश, काल एवं संग आदि यदि कठिन परिस्थितियों के आने पर भी जिसका ऐसा ज्ञान क्षीण नहीं होता, उसे उत्तम वैराग्यवाला कहते हैं । जिसे मध्यम वैराग्य हो, वह भी पांचों प्रकार के उत्तम विषयों का उपभोग करे, परन्तु उनमें आसक्त न हो लेकिन देश, काल तथा संग कठिन आने पर विषयों में आसक्त हो जाय और उसका वैराग्य मंद हो जाय, उसे मध्यम वैरागी कहते हैं । जो कनिष्ठ वैराग्यवाला हो, यदि उसे सामान्य और दोषयुक्त ऐसा पंचविषय प्राप्त हो और उनका वो उपभोग करे तो, उसमें वह आसक्त नहि होता है, किंतु जो उत्तम पंचविषय उन्हेंे प्राप्त हो और उनका वो उपभोग करे तो, उसमें वह आबद्ध हो जाता है, उसे मंद वैरागी कहते हैं ।
इति वचनामृतम् ।। २ ।।