संवत् १८६ की पौष शुक्ल पंचमी के दिन श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे । श्रीजी महाराज ने सिर पर सफेद फेंटा बांधा था तथा श्वेत अंगरखा पहना था । वे सफेद चूडीदार पाजामा पहने थे । उन्होंने कमर पर कुसुंभी रंग का शेला बांधा था । उसके मुखारविन्द के सम्मुख परमहंसों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज करुणा करके परमहंसों के सामने यह बात करने लगे कि - 'वासुदेवमाहात्म्य' नामक ग्रन्थ हमें अत्यन्त प्रिय है, क्योंकि इसी ग्रन्थ में भगवद्भक्तों के लिए भगवान का भजन करने की सभी विधि बतायी गई है । भगवान के भक्त दो प्रकार के हाते हैं । इनमें से एक प्रकार का वह भक्त है, जिसका भगवान संबंधी निश्च तो यथार्थ है, परन्तु वह देहात्मबुद्धि सहित भगवान का भजन करता है । दूसरी तरह के भक्त वे है, जो जाग्रत, सवप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण नामक तीनों देहों से परे रहनेवाले चैतन्य रुप को ही अपना स्वरुप मानते हैं और अपने स्वरुप में भगवान की मूर्ति को धारण करके भगवद् भजन करते है तथा तीनों अवस्थाओं और तीनो शरीरों से परे अपने स्वरुप को अतिशय प्रकाशमान देखते है । और उसी प्रकाश में भगवान की मूर्ति जो अभी प्रकट है वो उन्हें अतिशय दैदीप्यमान दिखायी पडती है । दूसरी तरह के भक्त की ऐसी स्थिति रहती है । जब तक ऐसी स्थिति न हो तब तक उसे भगवान का भक्त होने पर भी विघ्नग्रस्त रहना पडता है । कभी ऐसी स्थिति न रहने पर शिवजी मोहिनीस्वरुप को देखकर मोहित हो गये थे और ब्रह्माजी सरस्वती पर मुग्ध हुए थे, नारदजी विवाह करने के लिए लालायित हो उठे थे तथा इन्द्र एवं चन्द्रादि भी तो ऐसी स्थिति में थे, इस कारण उन्हें कलंकित होना पडा था। भगवान का भक्त होने पर यदि वह इस स्थिति तक नहीं पहुँच सका तो भगवान के स्वरुप में भी उस पर सहज मनुष्यभाव छाया रहता है । राजा परीक्षित ऐसे भक्त नहीं थे, इसी कारण उन्हें रास-क्रीडा की बात सुनकर श्रीकृष्ण भगवान पर संशय उत्पन्न हो गया था । शुकजी तो ऐसे भक्त थे, इसलिए उनके मन में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं हुआ । जो ऐसा भक्त होता है, वह तो यह समझता है कि 'कोई भी दोष न तो मुझे छू सकता है और न वह मेरे मार्ग में बाधक बन सकता है । तब जिनका भजन करने से मैं ऐसा हुआ हूँ उन भगवान में कोई मायिक दोष होगा ही कैसे ?' ऐसा दृढ ज्ञान रखनेवाला भगवद्भक्त भगवान की मूर्ति में जब अपनी वृत्ति रखता है तब उसके दो भाग हो जाते हैं । इनमें से एक वृत्ति तो भगवान के स्वरुप में रहती है तथा दूसरी वृत्ति भजन करनेवाले में बनी रहती है । भगवान के स्वरुप में रहनेवाली वृत्ति प्रेममय और भजन करनेवाले की वृत्ति विचारयुक्त रहती है । और यह वृत्ति भगवद्भजन के सिवा उसमें होनेवाले अन्य संकल्प विकल्पों को मिथ्या कर देती है तथा उस भजन करनेवाले में से दोष को नष्ट कर देती है । इस प्रकार भगवान में उसकी वृत्ति अखंड रहती है । जो जीव कभी तो एकाग्रचित्त होकर भगवान का भजन करता है और कभी अन्य क्रियाओं में उसका ध्यान लगा रहता है, उसे ऐसी स्थिति प्राप्त नहीं होती । यदि पानी का घडा भरकर एक जगह डाल आयें और दूसरे या तीसरे दिन भी इस तरह पानी बहाये तो भी वहाँ तालाब नहीं हो सकता, क्योंकि प्रथम दिन का पानी पहले दिन और पिछले दिन का पानी पिछले दिन सूख जाता है । लेकिन उंगली-जैसी छोटी-सी पानी की धारा का अखंड प्रवाह होने से बडा तालाब भर जाता है, उसी तरह खाते-पीते, चलते-फिरते तथा शुभ एवं अशुभ क्रियाओं में सदैव भगवान के प्रति अखंड वृत्ति रखनी चाहिए। बाद में इस प्रकार अखंड वृत्ति रखते-रखते ऐसी दृढ स्थिति हो जाती है ।'
इति वचनामृतम् ।। २३ ।।