संवत् १८६ की पौष शुक्ल प्रतिपदा को श्रीजी महाराज संध्या के समय श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखाराविन्द के सम्मुख परमहंस तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।
तत् पश्चात श्रीजी महाराज बोले कि - 'इस सत्संग में अपने आत्यन्तिक कल्याण का इच्छुक जो भक्त है, उसकी एकमात्र आत्मनिष्ठा, प्रीति (जो प्रेम सहित नौ प्रकार की भक्ति के साथ की जाती है ।) वैराग्य तथा स्वधर्म द्वारा कार्य सिद्ध नहीं होता है । इसलिए, आत्मनिष्ठा आदि चार गुणों को सिद्ध करना आवश्यक है, क्योंकि इन चारों गुणों को एक-दूसरे की अपेक्षा रहती है । वही बात कहते हैं, सुनिए । आत्मनिष्ठा तो हो, किन्तु श्रीहरि में प्रीति न हो तो प्रीति से होनेवाली प्रसन्नता के फलस्वरुप उपलब्ध होनेवाला महान ऐश्वर्य जो माया के गुणों से अपराजित होने वाली महान सामर्थ्य' उसकी प्राप्ति उस भक्त को नहीं होती है । श्रीहरि में प्रीत तो रहे, किन्तु आत्मनिष्ठा न हो तो देहाभिमान के कारण उस प्रीति की सिद्धि नहीं हो पाती । श्रीहरि में प्रीति तथा आत्मनिष्ठा तो रहे, परन्तु दृढ वैराग्य न हो तो माया के पंच विषयों में आसक्ति रहने के कारण प्रिती एवं आत्मनिष्ठा की सिद्धि नहीं हो सकती । और यदि वैराग्य तो हो परन्तु प्रीति एवं आत्मनिष्ठा न हो, तो श्रीहरि के स्वरुप से संबंधित परमानंद की प्राप्ति नहीं होती । स्वधर्म के रहने पर भी यदि प्रीति, आत्मनिष्ठा और वैराग्य, ये तीनों न हों तो भूलोक, भुवर्लोक तथा ब्रह्मा के भुवन पर्यन्त तक जो स्वर्गलोक है उससे आगे गति नहीं होती अर्थात् ब्रह्मांड को बेधकर माया के तम से पर रहनेवाले श्रीहरि के अक्षरधाम की प्राप्ति नहीं हो पाती । इसी प्रकार आत्मनिष्ठा, प्रीति और वैराग्य के रहने पर भी यदि स्वधर्म न रहे, तो इन तीनों की सिद्धि नहीं होती । इस प्रकार आत्मनिष्ठा आदि जो चार गुण हैं उन्हें एक-दूसरे की अपेक्षा रहा करती है । इसलिए एकान्तिक भक्त के समागम से जिस भक्त में इन चारों गुणों का अतिशय दृढता के साथ समन्वय रहता हो, तो उस भक्त के समस्त साधन संपूर्ण हो गये और उसी को एकान्तिक भक्त समझना चाहिए । इसलिए, जिस भक्त में इन चारों गुणों में से जिस गुण की न्यूनता हो, तो उसे दूर करने के लिए भगवान के एकान्तिक भक्त की सेवा तथा समागम करना चाहिए ।''
इति वचनामृतम् ।। १९ ।।