वचनामृतम् १

।। श्री गढडा प्रथम प्रकरणम् ।।

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को श्रीजी महाराज श्री गढडा स्थित दादा खाचर के राजभवन में साधुओं के निवास पर रात्रि के समय पधारे थे । वे सभी श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के सामने साधु तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी ।

श्रीजी महाराज ने प्रश्न किया कि - 'समस्त साधनों में कौनसा साधन कठिन है ?' तब सभी ब्रह्मचारियों, साधुओं तथा गृहस्थों ने अपनी - अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया, लेकिन वे उचित उत्तर नहीं दे पाये । तब श्रीजी महाराज ने कहा - 'लीजिए हम उत्तर देते हैं - भगवान के स्वरुप में मन की अखण्ड वृत्ति लगाना इससे बढकर कोई दूसरा साधन कठिन नहीं है, और जिस मनुष्य की मनोवृत्ति भगवान के स्वरुप में अखण्ड रहती है, उसको उससे अधिक उपलब्धि शास्त्रों में निर्दिष्ट नहीं है, क्योंकि भगवान की मूर्ति तो चिंतामणी के समान है । जिस प्रकार चिंतामणि जिस पुरुष के हाथ में रहती है उस पुरुष को जिस पदार्थ की इच्छा होती है, वह उसे प्राप्त होती है, उसी तरह भगवान की मूर्ति में जिसकी मनोवृत्ति अखण्ड रहती है यदि वह जीव, ईश्वर, माया और ब्रह्म के स्वरुप को देखने का इच्छुक हो तो वह उन्हें तत्काल देख सकता है और बैकुंठ, गोलोक, ब्रह्मधाम आदि भगवान के धाम भी देख सकता है। इसलिए भगवान के स्वरुप में अखण्ड वृत्ति रखने से बडा कोई कठिन साधन नहीं है और उससे बढकर कोई उपलब्धि भी नहीं है ।'

इसके बाद किसी हरिभक्त ने श्रीजी महाराज से प्रश्न किया कि - 'जिसे भगवान की माया कहते हैं उसका स्वरुप क्या है ?' तब श्रीजी महाराज ने कहा कि - 'जो भगवान का भक्त हो उसको भगवान की मूर्ति का ध्यान करते समय जो पदार्थ सामने आकर आवरण डाले उस पदार्थ को माया कहते हैं ।'

तदनन्तर मुक्तानंदस्वामी ने प्रश्न किया कि - 'जब पंचभौतिक शरीर को त्याग करके भगवान का भक्त भगवान के धाम में जाता है तब वह किस प्रकार का शरीर प्राप्त करता है ?' तब श्रीजी महाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि - 'धर्म कुलाश्रित भगवान का भक्त भगवान की इच्छानुसार ब्रह्ममय देह प्राप्त करता है और जब वह अपनी देह का त्याग करके भगवान के धाम में जाता है उस समय कोई गरुड पर, कोई रथ पर और कोई विमान में बैठकर जाता है । इस प्रकार भगवान का भक्त भगवान के धाम में जाता है । योगसमाधि वाले उसे प्रत्यक्ष देखते हैं ।'

इसके बाद भी किसी हरिभक्त ने श्रीजी महाराज से प्रश्न किया कि - 'कुछ लोग तो बहुत दिनों तक सत्संग करते हैं, फिर भी उन्हें अपनी देह और देह से सम्बन्धित विषयों में जितना अधिकाधिक ध्यान रहता है उतना अनुराग उन्हें सत्संग में नहीं रहता है, इसका क्या कारण है ?' फिर श्रीजी महाराज बोले - 'उसको भगवान के माहात्म्य का संपूर्ण रुप से ज्ञान नहीं हो पाया है । और जिस साधु के संग से भगवान का संपूर्ण ज्ञान हो सकता है, वह साधु जब अपने स्वभाव पर बात करते हैं तब जीवात्मा उस अयोग्य स्वभाव को छोड नहीं सकता है, किंतु ऐसी बात करनेवाला जो साधु है उसका अवगुण देखते हैं, इस पाप से लेकर उसे सत्संग में आनन्द प्रीति होती नहीं है । क्योंकि अन्य स्थलों में किए गए पापों को संतों की संगति से मिटाया जा सकता है पर संतों के विषय में जो पाप किए जाते हैं वे तो केवल संतों के अनुग्रह से ही मिट सकते हैं, दूसरे किसी साधन से नहीं मिट सकते हैं -
शास्त्र में कहा गया है -
'अन्यक्षेत्रे कृतं पापं तीर्थ क्षेत्रे विनश्यति ।
तीर्थक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।'

इसलिए संत के अवगुणों पर जो ध्यान नहीं देता है, उसकी सत्संग में दृढ प्रीति रहती है ।'
इति वचनामृतम् ।। १ ।।