वचनामृतम् १८

संवत् १८६ की मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठ के दिन रात का पिछला प्रहर बाकी था । स्वामी श्री सहजानंदजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे के आगे चौक में पलंग पर विराजमान थे और सभी श्वेत वस्त्र धारण किये हुए थे ।

तत् पश्चात उन्होंने परमहंसों तथा सत्संगियों को बुलाया । इसके बाद वे बहुत देर तक विचार मग्न बैठे रहे । बाद में वे बोले कि - एक बात कहता हूँ, उसे सुनिए । ऐसा कहकर श्रीजी महाराज बोले कि - 'मेरे मन में ऐसी धारणा होती है कि यह बात न कहूँ किन्तु आप हमारे हैं इसलिए मेरे मन में ऐसा होता है कि मैं आपसे वह बात कहूँ । और जो पुरुष इस बात को समझकर उसके अनुसार आचरण करते हैं वही मुक्त हो जाते हैं । इसके बिना तो चार वेदों, षट्शास्त्रों, अठारह पुराणों तथा भारतादि इतिहासों का अध्ययन करने, उनका अर्थ जानने अथवा उनका श्रवण करने पर भी कोइ भी मुक्त नहीं हो पाता । वही बात कहते हैं, उसे सुनिए । बाहर चाहे कितनी ही व्याधियाँ क्यों न हों, फिर भी अगर मन में उसका संकल्प न हो तो, उसके लिए हमें कोई संताप नहीं है । और अंतः करण में यदि पदार्थ का लेशमात्र भी संकल्प हो जाय तो उसका त्याग करने पर ही शान्ति मिलती है, ऐसा हमारा स्वभाव है । इसलिए हमारे हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि भगवान के भक्त के हृदय में यदि विक्षेप होता है तो उसका क्या कारण है ? मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार पर दृष्टिपात करने पर भी हमें ऐसा लगा कि अंतः करण उद्वेग का कारण नहीं है, अंतः करण में तो भगवान के स्वरुप के निश्चय का बल रहने या आत्मज्ञान के बल के कारण हृदय में इस तरह की लापरवाही रहती है कि भगवान मिल गये हैं, इसलिए अब कुछ करना शेष नहीं रहा । इस तरह की गलतफहमी रहती है, अंतःकरण का इतना ही दोष है । अधिक दोष तो पंच ज्ञानेन्द्रियों का है । उनका विस्तृत वर्णन करते है । यह जीव कई तरह का भोजन करता है, उसका भिन्न स्वाद तथा भिन्न गुण होता है । इस प्रकार जीव जैसा भोजन करता है, वैसा ही गुण अंतःकरण तथा शरीर में बना रहता है । हरी भांग पीनेवाला यदि प्रभु का भक्त हो तो भी भांग पीने के कारण उसे धर्मपालन का भान ही नहीं रहता और न भगवान के भजन की ही सुध रहती है, वैसे ही अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थों के गुण भी भांग के गहरे नशे के समान इतने ज्यादा तरह के होते हैं कि उनकी गणना करने पर भी उनका अंत नहीं दिखायी पडता । उसी प्रकार यह जीव श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा जिन विभिन्न शब्दों को सुनता है, उनके गुण भी अलग-अलग होते हैं । वह जैसा शब्द सुनता है वैसा ही गुण अंतःकरण में बना रहता है । जिस प्रकार किसी हत्यारे जीव या किसी व्यभिचारी पुरुष या किसी व्यभिचारिणी स्त्री या लोकाचार और वेदों में प्रतिपादित मर्यादा के विपरीत आचरण करनेवाले किसी भ्रष्ट जीव की बात सुनाई पडती है, वह तो भांग पीनेवाले या शराब की बकवास जैसी लगती है । यह बात उस सुननेवाले के अंतः करण को भ्रष्ट कर डालती है और भगवान के भजन, स्मरण तथा धर्म को लुप्त कर देती है । इसी प्रकार त्वचा का स्पर्श भी अनेक प्रकार का होता है तथा उसके गुण भी अलग-अलग होते हैं । उनमें पापी जीव का स्पर्श भांग और शराब के असर की तरह होता है । यदि कोई हरिभक्त भी उसका स्पर्श कर ले तो उसकी सुधबुध खो जाती है । उसी तरह रुप और उसके गुण भी कई प्रकार के और अलग अलग होते हैं। किसी भ्रष्ट जीव के दृष्टिगोचर होने से भांग और शराब पीनेवाले में उन्माद आ जाता है, उसी तरह पापी को देखने से भी ऐसी हालत पैदा हो जाती है और बुद्धि भी नष्ट हो जाती है । उसी तरह गंध के भी कई प्रकार हैं और उनके गुण भी कई तरह के हैं । यदि पापी जीव के हाथ के पुष्प या चन्दन को सूंघा जाय तो बुद्धि उसी प्रकार भ्रष्ट हो जाती है उसी तरह दूसरी ओर परमेश्वर या उनके संत के सान्निध्य से उसे सद्बुद्धि प्राप्त होती है । यदि जीव की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी हो तो भी वह भगवान और संत के शब्दों को सुनने से उत्तम हो जाती है । इसी प्रकार उनके स्पर्श से भी सुबुद्धि प्राप्त होती है । यदि वर्तमान मर्यादा के कारण महान संत का स्पर्श न हो सके तो उनिकी चरणधूलि को ही अपने मस्तक पर लगा लेने से उससे वह पवित्र हो जाता है । उसी प्रकार महान संत के दर्शन करना उचित है । ठीक उसी तरह महान संत की दी गई हुई प्रसादी के अन्न को ग्रहण करने से भी पवित्रता आती है, परन्तु उसके लिए भी परमेश्वर ने वर्णाश्रम की मर्यादा निर्धारित की है । इसलिए उसका पालन करके ही प्रसाद लेना चाहिए । यदि कोई वर्णाश्रम धर्म के अनुसार महान संत की अन्न-प्रसादी न ले सके तो उसे मिसरी की प्रसादी कराकर ही उसका प्रसाद लेना चाहिए । महापुरुषों को समर्पित पुष्पों और चन्दन की सुगंध लेने से भी बुद्धि निर्मल हो जाती है । यदि इन पांच विषयों को समझे बिना कोई पुरुष उनका उपभोग करेगा तथा सार-असार का विवेक नहीं रखेगा तो वह नारद सनकादिक जैसा भी होगा तो भी उसकी बुद्धि नष्ट हो जाएगी । तो देहाभिमानी हो और उसकी बुद्धि नष्ट हो जाय तो उसके लिए क्या कहा जाय ? इसलिए इन पंच इन्द्रियों को, योग्य - अयोग्य समझे बिना यदि छूट दे दी गयी तो अंतः करण भ्रष्ट हो जाएगा । पंच इन्द्रियों द्वारा जीव जो आहार करता है, उसे यदि शुद्ध कर लिया जाए तो अंतः करण शुद्ध हो जाता है और अंतः करण के शुद्ध होने पर भगवान की स्मृति अखंड बनी रहेगी । इन पंचेन्द्रियों के आहार में यदि एक भी इन्द्रिय का आहार मलिन होगा तो अंतः करण भी मलिन हो जाएगा । इसलिए यदि भगवद्भक्त के भजन के मार्ग में अगर कोई बाधा उपस्थित होती है तो उसका कारण अंतःकरण नहीं, किन्तु पंच इन्द्रियों के विषय ही रहते हैं ।

और, यह जीव जैसी संगति करता है वैसा ही उसका अंतः करण हो जाता है । यदि यह जीव विषयी जीवों के समाज में बैठा हो और उस जगह भी सुंदर सात मंजिलवाली हवेली हो, उसमें सुंदर शीशे जडे हो, सुंदर बिछौने बिछे हो, नाना प्रकार के आभूषणों तथा वस्त्रों से सुसज्जित होकर विषयीजन बैठे हों और वे एक दूसरे को शराब पिला रहे हों, शराब से भरी कितनी ही बोतलें पडी हों, वेश्याएँ थेई - थेई कर रही हों, विविध प्रकार के बाजे बजते हो, तब ऐसी महफिल में जो पुरुष बैठे हों तो उनका अंतः करण भी दूसरी तरह का हो जाता है । और घासफूस की झोंपडी हो और उसमें फटी गोदडीवाले परमहंसों की सभा हो और धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति के साथ भगवतकथा होती हो उस सभा में जो पुरुष जाकर बैठें तो उस समय उनका अंतःकरण भी दूसरी तरह का हो जाता है इसलिए सत्संग और कुसंग के योग से अंतःकरण ऐसा हो जाता है उस पर यदि विचार किया जाय तो ज्ञान प्राप्त होता है, किन्तु मूर्ख को तो किसी प्रकार का ज्ञान ही नहीं रहता । यह कथा संपूर्णतः मूर्खता के साथ पशुतापूर्ण आचरण करनेवाले व्यक्तियों की समझ में नहीं आती, किंतु जो अंशतः विवेकी हो, और जिसे भगवान का अंशतः भी आश्रय हो उसे तुरन्त समझ में आती है । इस कारण परमहंस, सांख्ययोगी तथा कर्मयोगी हरिभक्तों को कुपात्र मनुष्यों की संगति नहीं करनी चाहिए । सत्संग से पूर्व कैसे भी कुपात्र जीव हो, उसे नियमों का पालन कराकर सत्संग में लेना चाहिए, किन्तु सत्संग में आने के बाद भी यदि व्यक्ति कुपात्रता रखता हो तो उसे सत्संग में से दूर कर देना चाहिए । यदि उसे नहीं हटाया गया तो उसमें और भी खराबी हो जाती है । सर्पदंश या किडियारा रोग से ग्रस्त उंगली को यदि तुरन्त काट दिया जाय तो स्वयं स्वस्थ रहता है । परन्तु, ऐसा करने में यदि हिचकिचाहट की गयी तो और ज्यादा बिगाड हो जाता है । जो जीव कुपात्र प्रतीत होता है तो उसका तत्काल ही त्याग कर देना चाहिए । यह हमारा वचन है । सबको इसका पालन करना चाहिए । यदि ऐसा किया गया तो हम समझेंगे कि आप लोगों ने हमारी सभी तरह की सेवा की है । हम भी आप सबको आशीर्वाद देंगे और बहुत प्रसन्न होंगे, क्योंकि आपने हमारे परिश्रम को सफल बनाया है । हम सब मिलकर भगवान के धाम में रहेंगे । यदि इस प्रकार न रहे तो आपके और हमारे बीच की दूरी अधिक बढ जाएगी और भूत या ब्रह्मराक्षस की देह मिलने पर आपको परेशानी होगी । यदि भगवान की भक्ति की होगी तो उसका फल घूमते फिरते कभी भी मिल जाएगा । उस समय भी हमने जो बात कही है उसके अनुसार यदि आपने आचरण किया है तो इसके बाद मुक्त होकर आप भगवान के धाम जायेंगे।

यदि किसीने हमारा अनुकरण किया तो उसको निश्चित ही प्रतिकूल स्थिति होगी क्योंकि हमारे हृदय में नरनारायण प्रकट रुप में बिराजते हैं और मैं अनादि मुक्त हूँ किन्तु मैं किसी के उपदेशों से मुक्त नहीं हुआ हूँ । मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार तो मैं उस प्रकार पकड लेता हूँ, जिस तरह सिंह बकरे को अपने पंजों में जकड लेता है । और दूसरों को यह अंतः करण दिखायी ही नहीं देता । यदि ऐसा मान लिया जाय कि हमारा अनुकरण करके और विषय के प्रसंग में आकर भी शुद्धभाव से रहें तो नारद सनाकादिक जैसे मुनिजन भी इस प्रकार नहीं रह सकते तो दूसरों के बारे में कोई भी बात कैसे कही जा सकती है ? अनंत मुक्त हो गये और अनंत होंगे, लेकिन विषयों के प्रसंग में रहने के बाद भी उससे निर्लेप रहे ऐसा कोई हुआ नहीं है, होगा भी नहीं और वर्तमान समय में कोई नहीं है और कोटिकल्प तक प्रयास करके भी ऐसा होने में कोई समर्थ नहीं है । इसलिए, आप यदि हमारे कथनानुसार रहेंगे तो कल्याण  होगा । यदि हम किसी को प्रेम से बुलाते हैं तो हम उसकी भलाई करना चाहते हैं । यदि हम किसी के सामने प्रेम से देखते हैं या किसी के आग्रह पर स्वादिष्ट भोजन करते हैं या किसी के द्वारा पलंग बिछायें जाने पर उसके ऊपर बैठ जाते हैं या किसी का दिया हुआ वस्त्र, आभूषण और पुष्पमाला आदि सामान स्वीकार करते हैं, तो उसका उद्वेश्य हमारा सुखसाधन नहीं बल्कि उस जीव का कल्याण करना ही है । हम श्रीरामानंद स्वामी की कसम खाकर कहते हैं कि हम अपने सुख के लिए ऐसा नहीं करते । इसलिए, ऐसा विचार करके कोई भी हमारा अनुकरण न करे । पंच इन्द्रियों के आहार को अतिशय शुद्ध रुप में रखना । हमारे इस वचन का अवश्य पालन करना । यह बात तो सभी आसानी से समझ सकें इतनी सुगम है । इसलिए सर्व की समझ में तुरन्त आ जाएगी । हमारी इस बात का सत्संग में अतिशय प्रसार करना उससे हमारी अत्यन्न प्रसन्नता  होगी ।' ऐसी बात करने के बाद श्रीजी महाराज जय 'सच्चिदानंद' कहकर अपने निवास पर गये ।

इति वचनामृतम् ।। १८ ।।