वचनामृतम् ९

संवत् १८८ में श्रावण शुक्ल चतुर्दशी के दिन स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे मशरु की गद्दी पर विराजमान थे । उस समय आनन्द स्वामी ने पूजा की थी इसलिए लाल किनखाब का चूडीदार पायजामा पहना था तथा लाल किनखाब की बगलबंडी पहनी थी तथा मस्तक पर सुनहरे किनारेवाला कुसुम्बल फेंटा बाँधा था । कमर पर जरीवाला दुपट्टा बाँधा था तथा गहरे आसमानी रंग का रेंटा कन्धे पर डाला था और हाथ में राखियाँ बाँधी थी उनके मुखारविन्द के समक्ष मुनि तथा देश देशान्तर के हरिभक्तों की सभा बैठी थी ।
         
मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि - 'कीर्तन बोलें ?' तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'परमेश्वर की वार्ता करेंगे' श्रीजी महाराज बोले कि - 'ज्ञान मार्ग को तो ऐसा समझना चाहिए कि - किसी भी प्रकार से भगवान के स्वरुप का द्रोह नहीं हो सकता और किसी भी समय भगवान के वचन का लोप होता हो तो उसकी 'चिन्ता नहीं' परन्तु भगवान के स्वरुप का द्रोह तो नहीं होने देना चाहिए । यदि भगवान के वचन का लोप हुआ हो तो भगवान की प्रार्थना द्वारा उससे छुटकारा मिल सकता है किन्तु भगवान के स्वरुप का द्रोह किया हो तो उसका किसी भी प्रकार से छुटकारा नहीं हो सकता, अतः जो समझदार हैं उन्हें यथासम्भव भगवान के वचनानुसार अपनी सामर्थ्य के अनुसार अवश्य रहना चाहिए भगवान की मूर्ति का बल अतिशय रखना चाहिए - कि सर्वोपरि, सदा दिव्य, साकार मूर्ति एवं समस्त अवतारों के अवतारी भगवान का स्वरुप मुझे प्राप्त हुआ है । जो ऐसा समझता हो तो वह कभी यदि सत्संग से किसी कारण बाहर निकल गया हो तो भी भगवान की मूर्ति में से उसका प्रेम नहीं मिटता । अभी तो वह सत्संग से बाहर है किन्तु मृत्यु के पश्चात अन्त में वह अक्षरधाम में भगवान के समीप में ही जायेगा ।'
         
'जो अभी सत्संग में रहता होगा और शास्त्रों के वचनों का पालन करता होगा फिर भी यदि उसे भगवान के स्वरुप की दृढ निष्ठा नहीं होगी तो वह शरीर त्याग करने के पश्चात ब्रह्मा के लोक में या किसी अन्य देवता के लोक में जायेगा । परन्तु वह पुरुषोत्तम भगवान के धाम में नहीं जा सकेगा, अतः उसे यह जान लेना चाहिए कि उसे साक्षात भगवान का स्वरुप प्राप्त है और सदैव दिव्य साकार मूर्ति है तथा समस्त अवतारों का कारण अवतारी है । यदि वह ऐसा न समझकर उसको निराकार तथा अन्य अवतार के समान समझेगा तो वह उस स्वरुप के विरुद्ध द्रोह कहलाएगा । जैसे अर्जुन को तो भगवान के स्वरुप का बल था तथा युधिष्ठिर राजा को शास्त्र के वचनों में विश्वास था, बाद में जब महाभारत का युद्ध हुआ तब श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा कि -

''सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।''
         
इस श्लोक का अर्थ यह है कि - 'हे अर्जुन ! समस्त धर्मों का त्याग करके तुम केवल मेरी ही शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम किसी भी प्रकार की चिन्ता मत करो ।' अर्जुन ने इस वचन को मान लिया । यद्यपि अर्जुन ने युद्ध में अनेक हिंसात्मक कार्य किए परन्तु मन से वे लेशमात्र भी क्षुब्ध नहीं हुए क्योंकि उन्हें भगवान के आश्रय का बल था । परन्तु युधिष्ठिर ने कोई पाप नहीं किया था फिर भी उन्हें भगवान की आज्ञा की अपेक्षा शास्त्रों के वचनों में अधिक विश्वास था । उन वचनों से यह मान लिया कि 'मेरा कभी भी कल्याण नहीं होगा ।' तत्पश्चात् समस्त ऋषियों, व्यासजी तथा श्रीकृष्ण भगवान स्वयं भीष्म के पास ले जाकर शास्त्र सम्बन्धी कथा सुनाई । तब कुछ विश्वास हुआ परन्तु अर्जुन जैसा निश्चय तो नहीं ही हुआ । अतः बुद्धिमान व्यक्ति को तो भगवत स्वरुप का ही अत्यन्त निश्चय रखना चाहिए । यदि इस बल का अल्प आश्रय भी हो तो उसके फलस्वरुप भीषण भय से भी रक्षा होती है । यह भी श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है कि -

'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।।'
         
इस श्लोक का अर्थ यह है कि - 'भगवत्स्वरुप का थोडा सा भी बल हो तो भी वह भीषण भय से रक्षा करता है' अर्जुन को महाभारत के युद्ध में अनेक प्रकार के अधर्म रुपी आवरण उत्पन्न हुए परन्तु भगवत्स्वरुप के आश्रय के कारण अर्जुन की उन सभी भयों से रक्षा हुई । अतः जिसे भगवत्स्वरुप का सर्वाधिक बल रहता है वो ही एकान्तिक भक्त कहलाता है और उसे ही दृढ सत्संगी कहते हैं ।
         
श्रीमद् भागवत में भी यही बात प्रधान है कि - 'श्रुति स्मृतियों की धर्म सम्बन्धी आज्ञा का त्याग करना पडे तो उनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए परन्तु भगवान के आश्रय का त्याग नहीं करना चाहिए ।' कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि - 'ऐसी बातों से धर्म खंडन हो जायगा ।' परन्तु यह बात धर्म का खंडन करने के लिये नहीं है बल्कि इसलिये है कि देश, काल, क्रिया, संग, मंत्र, शास्त्र, उपदेश और देवता ये सभी शुभ एवं अशुभ दो प्रकार के हैं । इनमें से यदि अशुभ का योग हो जाय और भक्त के मार्ग में कुछ विध्न आ जाय तो भी उसे यदि भगवान के स्वरूप की दृढ निष्ठा हो तो वह मोक्ष मार्ग से कभी नहीं गिर सकता । यदि भगवद् स्वरूप की निष्ठा मे अपरिपकता हो तो वह जिस दिन से धर्मच्युत होता है तब से वह मानने लगता है कि - 'मैं नर्क में गिर चुका हूँ' अतः जिस भगवत्स्वरूप का बल है वह दृढ सत्संगी है और इसके अलावा अन्य तो गुणबुद्धि वाले कहलाते हैं । जिसे भगवत्स्वरुप की पक्की निष्ठा होती है उन्हें ही शास्त्रों में भी एकान्तिक भक्त कहा जाता है । इस समय सत्संग मे जैसी वार्ता होती है उसे यदि नारद सनकादिक तथा ब्रह्मा आदि देवता सुनें तो उसे सुनकर वे यही कहेंगे कि - 'ऐसी वार्ता कभी सुनी नहीं और न कभी भी सुन पायेंगे । यह वार्ता तो 'न भूतो न भविष्यति' जैसी है ।' अत्यन्त सूक्ष्म वार्ता होती है तो भी जडबुद्धि वालों को भी आसानी से समझ में आ जाती है । ऐसी मूर्तिमान वार्ता होती है । अतः इस समय जिसे सत्संग मे दृढता आयी है उनके पुण्य का अन्त नहीं हैं । ऐसा समझकर सत्संगियों को अपने अन्दर कृतार्थभाव रखना चाहिये । जिसे भगवान में अत्यन्त प्रीति हो उसे यह वार्ता समझमें आये या आये तो भी उसे कुछ करने की आवश्यक्ता नहीं रहती परन्तु जिसे परमेश्वर में अतिशय प्रीति न हो उसे तो भगवन के स्वरुप की महिमा को समझना  चाहिए । अतः बुद्धिमान व्यक्ति को यह वार्ता समझकर भगवान का दृढ आश्रय करना चाहिए यही इसका सार है ।'   
इति वचनामृतम् ।।९।। ।। १४२ ।।