वचनामृतम् १०

संवत् १८८ मण श्रावण कृष्ण तृतीया के दिन सवामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा में दादाखाचर के दरबार से घोडी पर सवार होकर श्री लक्ष्मीवाडी पधारे थे । उस फूलवाडी में आम्रवृक्ष के नीचे की वेदी पर उत्तर की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे । उन्होंने समस्त श्वेत वस्त्र धारण किये थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा चल रही थी ।
         
तत्पश्चात् श्रीजी महाराज बोले कि - 'श्रीमद् भागवत में साकार ब्रह्म का प्रतिपादन किया गया है परन्तु पढने वाले में यदि परमेश्वर की भक्ति न हो तो श्रीमद् भागवत में से भी परमेश्वर का स्वरुप निराकार ही ज्ञात होता है । द्वितीय स्कन्ध में जहाँ आश्रय का रुप प्रतिपादित किया गया है वहाँ भी जो भक्ति रहित है, उसे भगवान का स्वरुप निराकार ही लगता है, परन्तु भगवान का स्वरुप  निराकार नहीं है क्योंकि भगवान द्वारा ही स्थावर जंगम की सृष्टि होती है । यदि भगवान निराकार हो तो उनके द्वारा साकार सृष्टि कैसे हो सकती है ? जैसे आकाश निराकार है, तो उससे पृथ्वी द्वारा घटादि आकार नहीं होता । वैसे ही ब्रह्मादि सृष्टि साकार है तथा उसके निर्माता परमेश्वर भी साकार हैं । भागवत में अध्यात्म, अधिभूत तथा अधिदेव इन तीनों का आधार है, उसे भगवान का स्वरुप बताया गया है। इसकी बात कहते हैं सुनिए - विराट पुरुष की अध्यात्मरुपी इन्द्रियाँ और अधिभूत ये पंचमहाभूत तथा अधिदेव विराट के इन्द्रियों के देवता ये सभी विराट में आये, तब भी विराट जाग्रत नहीं हुए । तत्पश्चात् वासुदेव भगवान ने पुरुष का रुप धारण करके विराट पुरुष में प्रवेश किया तब विराट पुरुष खडे हो गये । वे भगवान विराटपुरुष के अध्यात्म, अधिभूत और अधिदेव में तादात्म्य रुप से निवास करते हैं । परन्तु स्वरुप से विराट पुरुष से भिन्न है और वही स्वरुप आश्रय करने योग्य कहा गया है । जैसे अग्नि प्रकाश स्वरुप से अरुप है परन्तु अग्नि तो मूर्तिमान है । जब अग्नि को अजीर्ण हुआ था तब मूर्तिमान अग्नि श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास आया था । जब वह इन्द्र का खांडव वन जलाने गया, तब वही अग्नि ज्वाला रुप होकर समग्र वन में व्याप्त हो गया । उसी प्रकार से पुरुषोत्तम भगवान अपनी ब्रह्मरुपी अन्तरयामी शक्ति द्वारा समस्त में व्यापक बने हुए हैं तथा मूर्तिमान होकर सबसे भिन्न हैं । ब्रह्म तो पुरुषोत्तम भगवान का किरणरुप है । परन्तु भगवान तो सदैव साकार मूर्ति ही हैं । अतः कल्याण की इच्छा रखनेवाले को तो भगवान को मूर्तिमान समझकर उनका दृढ आश्रय करना चाहिए और बात भी ऐसी करनी चाहिए कि यदि - 'किसी को भगवान का आश्रय हो तो वह इस बात से टल न जाय ।' जैसे किसी स्त्री के उदर में गर्भ हो तो उससे पुत्र रुप फल का उदय होता है वैसे ही जिसे भगवान के स्वरुप का निश्चयरुपी गर्भ हो उसको भगवान के अक्षरधामरुपी फल की प्राप्ति होती है ।' अतः ऐसा उपाय करना चाहिए कि - 'जिससे इस गर्भ को विघ्न न हो' दूसरों से भी ऐसी ही बात करनी चाहिए जिसके द्वारा भगवान के निश्चयरुप का गर्भपात न हो जाय।
         
तत्पश्चात श्रीजी महाराज वाडी से दादाखाचर के दरबार में पधारे और पूर्व द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान हुए । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा हो रही थी । श्रीजी महाराज ने छोटे-छोटे परमहंसों को बुलाकर परस्पर चर्चा करवायी । बाद में अचिन्त्यानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि - ''ज्ञान, वैराग्य और भक्ति इन तीनों में से कौन-सा विशेष कारण है जिससे भगवान के स्वरुप में प्रीति हो जाती है ।'' इस प्रश्न का उत्तर कोई न दे सका तब श्रीजी महाराज बोले कि - 'इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं, और ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति के स्वरुप को अलग अलग कहते हैं। जीवमात्र का ऐसा स्वभाव है कि जब वह कोई अच्छा पदार्थ देखता है तब उससे हल्की वस्तु में से उसकी प्रीति कम हो जाती है ।' अतः भगवान के अक्षरधाम में जो सुख है उसके आगे मायिक सुख तो कृत्रिम लगता है और अचल सुख तो भगवान के धाम में ही है । अतः भगवान की बातें सुनते-सुनते यदि भगवान सम्बन्धी सुख की पहचान हो जाय तो माया से उत्पन्न सुख तुच्छ प्रतीत होने लगेगा । यदि किसी पुरुष के हाथ में तांबे का पैसा हो और उस पैसे के बदले में यदि कोई सोना मोहर दे दे तब उसे ताँबे के पैसे में से प्रीति कम हो जाती है । उसी तरह से जब भगवान सम्बन्धी सुख में दृष्टि पहुँचने लगती है तब मायिक सुख से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और एकमात्र भगवान की मूर्ति से ही प्रेम हो जाता है । इसे ही वैराग्य का स्वरुप कहा गया है ।
         
अब ज्ञान का स्वरुप बताते है । ज्ञाननिरुपण में दो शास्त्र हैं । एक सांख्यशास्त्र, दूसरा योगशास्त्र । उसमें सांख्यशास्त्र का मत यह है कि जैसे आकाश पृथ्वी, जल, तेज और वायु में व्याप्त है और आकाश के बिना एक अणु भी कहीं खाली नहीं है तब भी पृथ्वी आदि के विकार से आकाश अलिप्त रहता है । वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान को कोई भी मायिक विकार आकाश की तरह से स्पर्श नहीं करता । यह वार्ता कृष्णताप की उपनिषद में कही है कि - ''जब दुर्वासा ऋषि वृन्दावन में आये तब श्रीकृष्ण भगवान ने गोपियों से कहा कि - 'दुर्वासा भूखे हैं अतः उनके लिए भोजन लेकर जाओ ।' तब गोपियों ने पूछा कि - बीच में यमुनाजी हैं, उन्हें कैसे पार किया जाये । तब श्रीकृष्ण भगवान ने कहा कि - 'यमुनाजी को ऐसा कहना कि यदि श्रीकृष्ण सदैव ब्रह्मचारी हों तो मार्ग दें' तत्पश्चात गोपियाँ हंसते हंसते यमुना तट पर पहुँचकर ऐसा ही कहा तब यमुनाजी ने तत्काल मार्ग दे दिया और वे ऋषि के पास पहुँच गयी और ऋषि को भोजन कराया । ऋषि ने समस्त भोजन समाप्त कर दिया । तब गोपियों ने उनसे कहा कि हम घर कैसे जायें, बीच में यमुनाजी हैं । तब ऋषि ने पूछा कि जब आयीं तब कैसे आयीं थी ? तब गोपियों ने कहा कि - 'श्रीकृष्ण ने कहा था कि यमुनाजी से जाकर कहना कि यदि हम हमेशा बाल ब्रह्मचारी हों तो मार्ग दे ।' बाद में यमुनाजी ने मार्ग दिया और हम आपके पास आये । यह बात सुनकर ऋषि बोले कि - 'अब यमुनाजी को कहना कि - यदि दुर्वासा सदैव उपवासी हों तो मार्ग दे ।' तब गोपियों हंसती हंसती गयीं और वैसा ही कहा और यमुनाजी ने तत्काल मार्ग दे दिया । गोपियाँ ये दोनों बातें देखकर आश्चर्य चकित हुई । अतः भगवान का स्वरुप आकाश के सदृश निर्लेप है और समस्त कार्यों के कर्ता होते हुए भी वे अकर्ता है । भगवान सबके संगी होते हुए भी असंगी है । इस तरह से सांख्यशास्त्र भगवान के स्वरुप को निर्लेप बताता है । यह सांख्य मत के अनुसार ज्ञान है, ऐसा समझना चाहिए ।
         
अब योगशास्त्र का मत कहते हैं उसे सुनिए योग का मत यह है कि जिसे भगवान का ध्यान करना हो उसे प्रथम दृष्टि स्थिर रखनी चाहिए । दृष्टि स्थिर रखने के लिए भगवान की प्रतिमा या अन्य किसी पदार्थ में दृष्टि को  एकाग्र करना चाहिए । फिर एक ही आकार को देखते देखते दृष्टि स्थिर हो जाती है । तब उसके साथ ही अन्तःकरण स्थिर हो जाती है तब भगवान की मूर्ति को हृदय में धारण करना चाहिए । ऐसा करनेवाले योगी को प्रयास नहीं करना पडता है । आसानी से मूर्ति को हृदय में धारण हो जाती है । यदि प्रथम से ही अतःकरण  प्रयास द्वारा स्थिर न किया गया हो तो तब भगवान का ध्यान करते समय अनेक आवरण उत्पन्न होते हैं । अतः योगशास्त्र का यह सिद्धांत है कि - 'पहले अभ्यास द्वारा चित्त स्थिर करना चाहिए इसके बाद उसे भगवान के साथ सम्बन्धित कर देना चाहिए ।' यह समझना चाहिए कि योगशास्त्र सम्बन्धी ज्ञान है । इस तरह से इन दोनो शास्त्रों के मतानुसार समझदारी को दृढ करने का नाम ही ज्ञान है ।
         
अब भक्ति की रीति कहते हैं । जब समुद्र मंथन हुआ तब समुद्र में से लक्ष्मीजी उत्पन्न हुई । बाद में लक्ष्मीजी ने हाथ में वरमाला लेकर विचार किया कि - 'वरण करने लायक कौन है जिसका मैं वरण करुँ ।' बाद में उन्होंने तो जिसमें रुप का उसमे गुण नहीं था और जिसमें गुण था उसमें रुप नहीं था इस तरह से उन्होंने अनेकों बडे बडे कलंक देखे । सभी देवताओं और दैत्यों को कलंकपूर्ण देखा । बाद में उन्होंने केवल भगवान को ही सर्व गुणसम्पन्न, सर्व दोषों से रहित और सर्व सुखविधान देखा । तब लक्ष्मीजी को भगवान में दृढ भक्ति हुई । अतः अत्यन्त प्रेमपूर्वक भगवान को वरमाला पहनाई और उनका चयन किया । इसलिए कल्याणकारी गुणों को जानकर परमेश्वर का दृढ आश्रय करने को ही भक्ति कहते हैं ।'
         
यह वार्ता सुनकर मुक्तानन्दजी ने श्रीजी महाराज ने पूछा कि - 'हे  महाराज ! ज्ञान वैराग्य और भक्ति इनमें से परमेश्वर से प्रीति होने में किसका  प्राधान्य होता है यह बात समझ में नहीं आयी ?'
         
श्रीजी महाराज बोले कि - 'भक्ति में दैवत अधिक है, ज्ञान-वैराग्य में दैवत तो है लेकिन भक्ति जितना नहीं है, भक्ति तो अति दुर्लभ है । भक्तिवालों के लक्षण यह है कि - जब जीवों के कल्याण के लिए जब भगवान मनुष्याकार रुप से पृथ्वी पर विचरण करते है तब भगवान के अनेक चरित्र दिव्य होते हैं और कितने ही चरित्र मायिक होते हैं । जब भगवान ने कृष्णावतार धारण किया तब उन्होंने देव की और वसुदेव को चर्तुभुज रुप में दर्शन दिया, गोवर्धन पर्वत उठाया और कालीयानाग को निकालकर यमुनाजी का जल निर्विष किया । उन्होंने ब्रह्मा का मोह दूर किया तथा अक्रूरजी को यमुना जल में दर्शन दिया तथा मल्ल, हस्ति, कंसादिक दुष्टों को मारकर समस्त यादवों के कष्टों को दूर किया । उसी तरह से रामावतार में उन्होंने धनुष तोडा तथा रावणादि दुष्टों का संहार करके देवताओं के कष्ट का निवारण किया । ऐसे पराक्रम भगवान के दिव्य चरित्र कहलाते है। जब सीता हरण हुआ तब रामचन्द्रजी रोते-रोते पागल से हो गये तथा कृष्णावतार के कालयवन के आगे से भागे तथा जरासंघ के साथ हारे और अपनी राजधानी मथुरा को छोडकर समुद्री द्वीप में जाकर बस गये । भगवान के ये सब चरित्र प्राकृत जैसे प्रतीत होते हैं । अतः दिव्य चरित्रों में पापी को भी दिव्यता प्रतीत होती है । परन्तु भगवान जब प्राकृत चरित्र करते हैं, तब उसमें भी जिसे दिव्यता प्रतीत हो उसे ही परमेश्वर का सच्चा भक्त कहा जाता है ।

भगवान ने गीता में कहा है कि -
''जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सो।र्जुन ।।''         

इस श्लोक का यह अर्थ है कि - 'हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है । जो इस दिव्यता को समझ लेता है, उसका देह त्याग के बाद पुनर्जन्म नहीं होता परन्तु मुझे ही प्राप्त करता है ।' अतः भगवान जो दिव्य चरित्र करते हैं वह तो भक्त और अभक्त दोनों को दिव्य प्रतीत होते हैं परन्तु जब भगवान मनुष्य जैसे प्राकृत चरित्र करते हैं तब भी उनमें जो दिव्यता दिखाई दे और भगवान के चरित्रों में किसी प्रकार का अभाव न आये, इस प्रकार की जिसकी बुद्धि रहे उसे परमेश्वर की भक्ति कहा जाता है, इस प्रकार की जो भक्ति करे उसे भक्त कहते हैं । उपर्युक्त श्लोक में कहे अर्थ का फल भी ऐसे भक्त को ही मिलता है । गोपियाँ भगवान की भक्त थीं । उन्होंने किसी भी प्रकार का भगवान के सम्बन्ध का अवगुण नहीं लिया । राजा परीक्षित ने तो गोपियों की बात सुनने मात्र से ही भगवान का अवगुण ले लिया । बाद में शुकजी ने उन्हें भगवान का सामर्थ्य दिखाकर उस संशय को समाप्त किया । अतः भगवान जो-जो चरित्र उन्हें भक्त गोपियों के समान दिव्य समझे परन्तु उन्हें किसी भी प्रकार से प्राकृत समझकर अभाव न लाये, ऐसी भक्ति तो महादुर्लभ है । ऐसी भक्ति एक-दो जन्मों के पुण्यों से नहीं प्राप्त होती । अनेक जन्मों के जब शुभ संस्कार एकत्रित होते हैं तब गोपियों जैसी भक्ति का उदय होता है । ऐसी भक्ति की परमपद है । अतः इस प्रकार का जो भक्ति है, वह ज्ञान-वैराग्य से विशेष है । जिसके हृदय में इस प्रकार की भक्ति हो, उसे भगवान से प्रीति होने में क्या बाकी रह जाता है? अर्थात् कुछ भी नहीं ।'    

इति वचनामृतम् ।।१०।। ।। १४३ ।।