संवत् १८८ के श्रावण महीने की शुक्ल द्वादशी के दिन प्रातःकाल स्वामी श्री सहजानन्दजी महाराज श्री गढडा स्थित दादाखाचर के दरबार में श्री वासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे गद्दी पर विराजमान थे । उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किए थे । उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देश के हरिभक्तों की सभा बैठी थी । परमहंस ताल-मृदंग के साथ कीर्तन कर रहे थे।
श्रीजी महाराज साधुओं से बोले कि - 'एकादशी व्रत करने के विषय में जानकारी यह है कि जब भगवान दस इन्द्रियों और ग्यारहवें मन को अन्तर सम्मुख करके सो रहे थे, तब उस समय नाडीजंघ का बेटा मुरदानव युद्ध करने के लिए आया । तब भगवान के एकादश इन्द्रियों के तेज में से एक कन्या उत्पन्न हुई । तब मुरदानव कन्या से बोला कि - तू मुझसे शादी कर ले । तत्पश्चात कन्या बोली कि - मेरी तो ऐसी प्रतिज्ञा है कि जो मुझसे युद्ध में जीतेगा उसके साथ शादी करुँगी ।' उसके बाद भूरदानव और कन्या के बीच युद्ध हुआ और कन्याने भूरदानव का मस्तक धड से अलग कर दिया । भगवान ने प्रसन्न होकर कन्या से कहा कि - 'तू वरदान माँग ले' कन्याने यह वरदान माँगा कि - 'मेरे व्रत के दिन कोई भी अन्न न खाये । मैं आपकी एकादश इन्द्रियों के तेज से उत्पन्न हुई हूँ । अतः मेरा नाम एकादशी है और मैं तपस्विनी हूँ । अतः मेरे व्रत के दिन मन आदि एकादश इन्द्रियों का आहार किसी को नहीं करना चाहिए ।' एकादशी के वचनों को सुनकर भगवान ने यह वरदान दे दिया, ऐसी पौराणिक कथा है ।
धर्मशास्त्रों में भी ऐसा कहा गया है कि 'एकादशी के दिन काम, क्रोध, लोभ आदि सम्बन्धी बुरे संकल्प मन में नहीं लाने देना चाहिए और शारीरिक क्रियाओं द्वारा भी कोई अनुचित आचरण नहीं करना चाहिए ।' शास्त्रों के यही वचन हैं । उन्हीं शास्त्रों के अनुसार हम भी कहते हैं कि - 'एकादशी के दिन ढोरलंघन नहीं करना चाहिए । तथा एकादशी इन्द्रियों के आहार का भी त्याग कर डालना चाहिए । वही एकादशी व्रत वास्तविक रहेगा ऐसा न करने पर ढोरलांघन कहलाता है ।' जैसे प्राणों का आहार अन्न है वैसे ही श्रोतेन्द्रियों का आहार शब्द है, त्वचा का आहार स्पर्श, नेत्रों का आहार रुप, जिह्वा का आहार रस, नासिका का आहार गंध है तथा मन का आहार संकल्प - विकल्प है । इस तरह से ग्यारह इन्द्रियों के अलग-अलग आहार हैं । इन समस्त आहारों के त्याग को एकादशी व्रत कहा जाता है । परन्तु ग्यारहों इन्द्रियाँ कुमार्गगामी होकर यदि अपने-अपने आहार को करने लगीं तो शास्त्र के अनुसार उसे एकादशी का व्रत नहीं कहेंगे। अतः जब एकादशी का व्रत किया हो तब ग्यारहों इन्द्रियों का व्रत किया हो तो तब ग्यारहों इन्द्रयों को अपना-अपना आहार करने का अवसर नहीं देना चाहिए। ऐसा व्रत पन्द्रह दिन में एक बार आता है । अतः सावधान होकर करना चाहिए। तब उसके ऊपर भगवान प्रसन्न होते हैं । परन्तु इसके सिवा ढोरलंघन से भगवान प्रसन्न नहीं होते । श्वेतद्वीप में जो निरन्नमुक्त कहलाते हैं वे तो सदैव इस व्रत को रखते हैं और कभी भी व्रत का भंग नहीं होने देते । अतः उन्हें निरन्न कहा जाता है । हमें भी ऐी ही इच्छा रखनी चाहिए कि - 'जैसे श्वेतद्वीप में निरन्नमुक्त हैं वैसा हमें भी होना है । परन्तु इस बात में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए । इस प्रकार से जो हिम्मत रखकर पूर्वोक्त प्रकार से एकादशी व्रत करता है, भगवान की कथा कीर्तन सुनता है तथा रात्रि में जागरण करता है तो वही व्रत सच्चा है । शास्त्रों में भी उसी का नाम एकादशी कहा गया है ।' इतनी बात कहकर श्रीजी महाराज मौन रहे और सन्त कीर्तन करने लगे ।
श्रीजी महाराज बोले कि - 'जब ब्रह्मा ने प्रथम सृष्टि की, तब समस्त प्रजा से बोले कि - आप सब यज्ञा करना और उस यज्ञा द्वारा आपके समस्त पुरुषार्थो की सिद्धि होगी और सृष्टि की भी वृद्धि होगी अतः यज्ञा तो जरुर करना' तत्पश्चात ब्रह्माने वेदों में बताये अनेक प्रकार के यज्ञों को विधिपूर्वक बताया । प्रवृत्ति मार्गवालों को उन्होंने प्रवृत्ति मार्ग के राजसी, तामसी यज्ञा बताये और जो निवृत्ति मार्ग के लोग थे उन्हें सात्विक यज्ञा विधि बताई । इन यज्ञों को श्रीकृष्ण भगवान ने भगवदगीता में भी कहा है । अतः हमें तो सात्विक यज्ञा करना चाहिए क्योंकि हम तो निवृत्ति मार्गी है । परन्तु जिसमें पशुओं का वध होता हो ऐसे राजसी और तामसी यज्ञा हमें नहीं करने चाहिए । सात्विक यज्ञा की रीत यह है कि - 'दस इन्द्रियों और ग्यारवे मन को उन विषयों में से हटा लेना चाहिए जिनमें वे चिपके रहते हैं और हटाने के बाद उन्हें अग्नि में होम करना चाहिए। इसे योगयज्ञा कहते हैं । इस प्रकार से होम करते करते जैसे यज्ञा करनेवाले को भगवान दर्शन देते हैं वैसे ही योगयज्ञा करनेवालो के अन्तर में अपना स्वरुप जो ब्रह्म हो उसमें पर ब्रह्म पुरुषोत्तम प्रकट हो जाते हैं । वह योगयज्ञा का फल है।
अन्तदृष्टि द्वारा भगवान का भक्त जो व्यवहार करता है उसे ज्ञान यज्ञा कहते हैं । अब कोई यह पूछेगा कि - 'अन्तदृष्टि क्या है ?' इसका उत्तर यह है कि - बहार अथवा भीतर भगवान की मूर्ति के समक्ष चित्त वृत्ति रखना यही अंतदष्टि है । इसके बिना तो जो अर्न्तदष्टि करके बैठा है वह बाह्य दृष्टि ही है । अतः बाहर भगवान का दर्शन, पूजन, भगवान की कथा कीर्तन आदि जो जो भगवान सम्बन्धी क्रियाएँ है वे सभी अर्न्तदृष्टि हैं । ये सभी ज्ञानयज्ञा है । भगवान की मूर्ति को अन्तर में धारण करके अनेक पूजन वंदन आदि क्रियाओं को अर्न्तदृष्टि और ज्ञानयज्ञा होता रहता है । समाधि तो किसी को होती है किसी को नहीं होती । वह तो परमेश्वर की इच्छा से होता है । कहीं कहीं भक्त की अपरिपक्वता के कारण भी ऐसा होता है । कितने मूर्ख हैं जो कहते हैं कि - गोपिकाओं के अंगों को लक्ष्य करके किया जाने वाला कीर्तन नहीं गाना चाहिए। परन्तु निर्गुण कीर्तन गाना चाहिए ।' जो व्यक्ति निर्वस्त्र घूमते हैं उन्हें मूर्ख लोग निर्गुण पुरुष कहते हैं । यदि निर्वस्त्र होकर घूमने से निर्गुण माना जाता हो तो कुत्ते, गधे आदि सभी निर्गुण कहलाते । अतः यह तो मूर्खों की अपनी समझ है । ज्ञानी भक्त तो यह मानता है कि - 'भगवान का स्वरुप ही निर्गुण है ।' जिसे-जिसे भगवान के साथ सम्बन्ध हुआ है वे सभी निर्गुण मार्गवाले हैं । जिस जिस कथा कीर्तन में भगवान के स्वरुप का सम्बन्ध है वह निर्गुण कहलाता है । जिस कथा कीर्तन में भगवान का सम्बन्ध न रहे वह मायिक गुणों से युक्त है । अतः वह सगुण कहलाता है । यदि भगवान की प्राप्ति न हुई हो और वह व्यक्ति निर्वस्त्र घूमे तो उसे निर्गुण नहीं कहा जा सकता । जिस पुरुष को भगवान की प्राप्ति हो चुकी है वह गृहस्थाश्रमी होने पर भी निर्गुण कहलाता है । यदि कोई त्यागी हो तो वह भी निर्गुण कहलाता है । अतः भगवान की प्राप्ति का मार्ग ही निर्गुण मार्ग है । वह व्यक्ति जो भी क्रिया करता है उसे निर्गुणात्मक कहते हैं । जिस व्यक्ति का भगवान के साथ सम्बन्ध हो गया है उसके भाग्य का पार ही नहीं रहता । भगवान के साथ सम्बन्ध एक ही जन्म के पुण्यों से नहीं होता है । यह तो श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है -
''अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो यादि परां गतिम् ।''
इस श्लोक का अर्थ यह है कि - 'अनेक जन्मों के संचित पुण्यों से पुरुष परमपद को प्राप्त कर लेता है ।' वह परमपद क्या है ? प्रत्यक्ष भगवान की प्राप्ति ही परमपद है । श्रीकृष्ण भगवान ने यह भी कहा है कि -
''मामैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणी प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।''
इस श्लोक का अर्थ यह है कि - 'इस संसार में भगवान के अंशरुपी जो जीव हैं, वे मन सहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों को पंचविषयों से खींचकर अपने वश में रखते हैं । जो जीव भगवान के अंश नहीं हैं, उन्हें इन्द्रियाँ आकृष्ट करके अपनी इच्छानुसार नचाती है ।' अतः हम सब इन्द्रियों द्वारा खींचे जाने से भी उनकी तरफ आकृष्ट नहीं होते क्योंकि भगवान के अंश है । ऐसा जानकर आनन्द में रहकर भगवान का भजन करना चाहिए और इन्द्रियों की वृत्तियों को भगवान के स्वरुप में होम देना चाहिए । सदैव ज्ञान यज्ञा करते रहना चाहिए । यज्ञारहित व्यक्ति का किसी भी प्रकार से कल्याण नहीं होता है । चारों वेदों, सांख्य शास्त्र, योगशास्त्र, धर्मशास्त्र, अठारह पुराण, महाभारत, रामायण, नारद पंचरात्र आदि समस्त शास्त्रों का यही आज्ञा है कि - 'यज्ञा रहित का कल्याण नहीं होता' अतः हमारी भी यही आज्ञा है कि - 'समस्त परमहंस तथा सभी सत्संगी ज्ञानयज्ञा करते रहें', इस प्रकार से ज्ञान यज्ञा करते करते जब अपना स्वरुप जो ब्रह्म है उसमें जब परब्रह्म भगवान का साक्षात्कार हो जाय तो वही ज्ञानयज्ञा का फल है । इस प्रकार से ज्ञान यज्ञा करते करते जब श्वेतद्वीप स्थित निरन्नमुक्तों के सदृश हो जायें तब ज्ञानयज्ञा विधि की अवधि पूरी हो जाती है । जब तक ऐसा न हो तब तक यह समझना चाहिए कि यह कार्य अधूरा है । फिर भी निरन्न मुक्त जैसे होने की अतिशय इच्छा रखनी चाहिए । परन्तु श्रद्धा रहित नहीं होना चाहिए और स्वयं में अपूर्णता नहीं माननी चाहिए । भगवान की प्राप्ति हुई है यह समझकर स्वयं को कृतार्थ मानना चाहिए और सावधान होकर ज्ञानयज्ञा करते रहना चाहिए ।'
इति वचनामृतम् ।।८।। ।। १४१ ।।